दिव्या(भाग–10) – आरती झा आद्या : Moral stories in hindi

प्रियंवदा का चेहरा भरा हुआ था दुख और बेरुखी से, जैसे कि उसका सारी संवेदनशीलता गहराइयों में डूब गई हो। “शायद मेरा दिन ही खराब था,” उसने दुखभरी आवाज में कहा, जैसे कि उसके दिल में कई अनजान सवाल हो।

“राजा तक भी बात पहुँच चुकी थी, माँ को तलब किया गया है,” उसने जारी रखते हुए बताया, वह उस छोटे से पल में जिंदगी के महत्वपूर्ण पल का सामना कर रही है। उसकी आवाज में था एक अस्तित्व के खिलाफ संघर्ष का आभास, जिसने उसके जीवन की दिशा को बदल दिया था।

माँ बेहद चिंतित रूप में दिखाई दे रही है, उनके चेहरे पर उदासी के भाव छा गए हैं, जैसे कि उन्हें किसी बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़ा हो। वह आपत्ति और चिंता से भरी दिख रही थीं, जैसे कि विपत्तियों की बड़ी लहर उन्हें बहा कर ले जा रही हो और साहिल की ओर लौटने के लिए उसका सामना कर रही हो।

प्रियंवदा के शांत चेहरे पर परेशानी के भाव छाए हुए थे, जैसे कि स्थिर पानी में किसी ने कंकड़ फेंका हो। यह बता रहा था कि माँ की परेशानी इस वक्त उसकी आत्मा को गहरे से छू रही थी।

माँ राजमहल जाने हेतु दर्पण के सामने खड़ी होकर तैयार हो रही हैं। गहरे गुलाबी लहंगे में बहुत खूबसूरत लग रही हैं, उनकी शैली और आभूषणों की झंकार में सजीवता भरी है। लेकिन उनके चेहरे पर छाई उदासी की परत से कुम्हलाया चेहरा ऐसा प्रतीत हो रहा है 

माँ गहरे गुलाबी लहंगे में बहुत खूबसूरत लग रही है। लेकिन उनके चेहरे पर छाई उदासी की परत से कुम्हलाया चेहरा ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे कि क्षितिज पर खड़ा सूर्य डूबने की प्रतीक्षा कर रहा है और धरा की मिट्टी इस आलोक में भी खुद को रंगने की कोशिश कर रही हो। मुझे माँ की आकर्षण छवि कृष्ण रात्रि के उज्ज्वल स्वप्न की भांति लग रही है। माँ एक नजर मुझ पर डाल और कल्पना मौसी की ओर बेबसी से देखती महल से आई दासी के साथ चल पड़ी हैं।

वहाँ से आकर आकर माँ बहुत ज्यादा उदास हैं, उनके चेहरे पर उदासी की छाया और गहरी हो गई है। वे खामोशी से अपने कमरे में चली गईं, जैसे कि उनकी अंतरात्मा बात नहीं करने के लिए तैयार नहीं है। रात के अंधकार ने कमरे को घेरा हुआ है, लेकिन माँ ने दरवाजा नहीं खोला, जिससे मुझे एक अजीब सा डर सा महसूस हो रहा है। उनके उदासी भरे चेहरे ने देख कर लग रहा था जैसे कि वे किसी गहरे दुख का सामना कर रही हैं, और उनका आत्मविश्वास कमजोर हो रहा है। उनका अकेलापन और दरवाजे को नहीं खोलना बता रहा है कि वे अपनी अंतर्निहित चिंताओं और दर्द को अब तक खुद से भी साझा नहीं कर पा रही हैं। इस समय में, मेरा डर उनकी अवस्था के लिए बढ़ गया है, क्योंकि उनके अस्तित्व को धारित करने की स्थिति अजीब और असुरक्षित लग रही है। अब जाने क्यूं मुझे माँ को खोने के भय सता रहा है। फिर भी मेरे मन में एक पल के लिए भी ये ख्याल नहीं आ रहा कि मैं अपना काम बंद करुँ, जहाँ तहाँ मेरा प्रण और मजबूत हो गया है।

क्यूँकि माँ अपने कमरे में जहर की शीशी रखती है। 

अब सब दरवाजे तुड़वाने का सोच रही थी। तभी माँ सूजी आँखें और चेहरे पर अजीब से भाव लिए बाहर आ गई। उनकी सूजी आँखें कह रही थी कि उनके अंदर कोई उत्साह, कोई उम्मीद नहीं बची है। उनके अंदर की अवस्था का उनके थकान का स्पष्ट संकेत दे रहे थे। इस पल की उपेक्षा ने उनकी आत्मा को भारी कर दिया था, जो सूजी आँखों के माध्यम से प्रतिक्रिया कर रही थी।

कल्पना मौसी आगे बढ़कर माँ को थाम लेती हैं और “क्या बात है” पूछने लगती हैं।

“कल से ही प्रियंवदा को देवदासी बनाने की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी।” माँ बोलती हुई काॅंप रही हैं।

“पर राजा जी ने ही बीस साल की उम्र का नियम बनाया है। उसका क्या होगा.. तूने कहा नहीं।” कल्पना मौसी दोनों हाथों से माँ को थामती हुई पूछ रही हैं।

“राजाजी ने कहा.. ये तुम्हारे और तुम्हारी बेटी की कर्मों की सजा है।” माँ के अश्रु अब मुझे भी भिगो रहे हैं।

मैं स्तब्ध थी और माँ मुझे अपने बहुपाश में कसे रोये जा रही हैं। अचानक माँ ने अपने आँसू पोछे और उनके साथ मेरा खाना भी अपने कमरे में देने कह मुझे मेरे कमरे में भेज दिया।

“प्रियंवदा.. अभी अपने कमरे में जाओ… खाना आ जाने पर तुम्हें बुलवा लूँगी।” ये बोलते हुए माँ एकदम शांत चित्त लग रही हैं। उनके चेहरे पर उभरता परेशानी का भाव एकदम से गायब हो गया है।

माँ ने प्रियंवदा से कहा, “प्रियंवदा, अभी अपने कमरे में जाओ, खाना आ जाने पर तुम्हें बुलवा लूँगी।” ये बोलते हुए माँ एकदम शांत चित्त लग रही हैं। उनके चेहरे पर पहले जो परेशानी के भाव थे,  वह एकदम से गायब हो गए। उनकी बातों और भावनाओं में यह बदलाव प्रियंवदा को आश्चर्य में डालता जा रहा था। साथ ही प्रियंवदा को रक्षंदा के चेहरे पर आया यह बदलाव अच्छा भी लग रहा है, वो खुद को प्रसन्न महसूस कर रही है और खुशी खुशी अपने कमरे की ओर बढ़ गई।

थोड़ी देर बाद एक दासी आकर कह जाती है कि मुख्य देवदासी खाने की थाल लिए आपका इंतजार कर रही हैं। मैं उसकी बात अनसुनी कर खुद के विचारों में खोई रही। जब दासी दुबारा बुलाने आई, मैं अपने आगे की योजना की तैयारी में लगी थी….. दासी की आवाज से मेरी तन्द्रा भंग हुई है। मैं उसके साथ माॅं के कमरे की ओर चल पड़ी। परिसर पारकर हम दोनों माॅं के कमरे में पहुँचती हैं। माँ ने मुझे ध्यानपूर्वक देखा और एक संयमित मुस्कान के साथ बोली, “आओ, बेटा। खाना खाओ?”मैं शब्दहीन रहकर मुस्कुरा कर माॅं के पास बैठ गई।

माँ को आज मुझ पर बहुत प्यार आ रहा है। जबकि मुझे तो लगा था कि गुस्से में भरी बैठी होंगी। मैंने राहत की साँस ली, जब भी माँ मुझसे प्यार जताती हैं, अपने हाथों से मुझे खाना खिलाती हैं। माँ ने उठकर दरवाजा बंद कर लिया। माँ के साथ होने का एहसास बहुत शानदार था। वे मेरे साथ बहुत प्रसन्न लग रही हैं। अब वह मेरी बातें सुन रही हैं,  समझ रही हैं और मुझे सलाह भी दी रही हैं, ऐसा लग रहा है जैसे की अब मेरी तकलीफें दूर हो जाएंगी। माँ मेरे साथ अपना पूरा समय बिताने का निर्णय ले रही हैं और इससे मेरे दिल में बहुत खुशी हो रही है।

“आज मैं ही तुझे खिलाऊँगी।” माँ का स्वर ऐसा है जैसे ठंडी बयार खुद में लिपटा कर मखमली अहसास करवा रही हो। उनकी मिठास से भरी आँखों में प्यार भरी चमक है, जैसे कि अमृत भरी बूंदें मुझ पर गिर रही हो।

मुझे क्या आपत्ति होती। आज अंतर इतना था कि माँ एक बार मुझे खिला रही हैं और एक बार खुद खा रही हैं। खाना लगभग खत्म होने वाला है। अब मेरे गले में दर्द सा हो रहा है। माँ भी अपने गले को पकड़े मुझे देख रही हैं, शायद उनके गले में भी दर्द का अहसास है।

माँ खाने में क्या डला है.. मेरे गले में दर्द हो रहा है और साँस लेने में भी तकलीफ हो रही है। आपकी आँखें भी लाल हो रही हैं.. मैं किसी तरह अटकते हुए बोल पा रही हूॅं।

“जहर.. हमारे कर्मों की सजा.. मुझे माफ़ कर देना.. मैं तुझे इस रूप में नहीं देख सकती।” माँ की आवाज अटक रही है।

“पर माँ.. मेरा काम अधूरा रह जाएगा। मैं किसी को भी इस रूप में नहीं देखना चाहती।” प्रियंवदा को खुद के ही शब्द दूर से आते हुए प्रतीत हो रहे थे।

माँ बिल्कुल शांत हो गई हैं….. मेरी आँखें बंद हुई जा रही है…मेरी साँसें रुक रही है…. अँधेरा छा रहा है…..माँ ने अपने कमरे में देवी माँ की प्रतिमा के सामने दीया जला रखा है.. मुझे ऐसा लग रहा है.. मानो देवी माँ मुझे बुला रही हैं.. किसी तरह प्रतिमा के सामने पहुँच कर मैंने देवी माँ के चरणों को पकड़ लिया… अब मेरे शरीर में कोई हरकत नहीं है.. माँ की तरह ही मेरा शरीर भी शांत है… बोलते बोलते दिव्या की ऑंखों से अश्रु धारा बह चली थी और वो बिल्कुल निर्जीव सी अवस्था में आ गई थी। मि. जॉन ने अब कोई सवाल नहीं करने का इशारा किया। साथ ही उसे इसी हालत में रोते रहने देने कहा। राघव विचलित होकर दिव्या को गले लगा सांत्वना देना चाहते थे। लेकिन मि. जॉन ने कठोर मुखमुद्रा बनाते हुए दिव्या को छूने से भी मना किया। 

थोड़ी देर बाद दिव्या खुद ही शांत हो गई। तब आज का सेशन आगे ना बढ़ाने का दोनों ने फैसला लिया और दिव्या को शनैः शनैः सम्मोहन से बाहर ले कर आए।

“कैसा लग रहा है बेटा।” अब राघव दिव्या के सिर और पीठ धीरे धीरे सहलाते हुए पूछ रहे थे।

“फीलिंग वेल, बस सिर थोड़ा भारी सा है।” दिव्या अपने सिर को थाम कर कहती है।

“और कोई दिक्कत.. रोने की इच्छा हो रही हो या कमजोरी लग रही हो।” राघव पूछता है।

“नहीं.. और कुछ नहीं”.. दिव्या जवाब में कहती है।

“आराम करो..सब ठीक हो जाएगा।” राघव प्यार से दिव्या को देखता हुआ कहता है।

“कब तक चलेगा ये चाचा जी। मेरे सारे काम अटके पड़े हैं।” दिव्या की आवाज में थोड़ी झुंझलाहट भरी थी।

“बस दो चार दिन और बेटा। फिर तुम्हारे शंका के समाधान के साथ हर सवाल का जवाब भी मिलेगा।” बोल उसका गाल थपथपाता हुआ राघव बाहर चला गया।

बाहर सब उसी का इंतजार कर रहे थे। चंद्रिका को दिव्या के पास भेज कर राघव आनंद के साथ बैठ गया और वही रखे जग से ग्लास में पानी डाल कर पीने के बाद निढ़ाल सा सोफ़े पर सिर टिका देता है। राघव खुद को दिव्या की कहानी से बाहर नहीं निकाल पा रहा था। एक उधेरबुन सी उसके दिमाग में चल रही थी।

“राघव भैया.. दिव्या का सिर भारी लग रहा है.. चाय दे सकती हूँ उसे अभी।” चंद्रिका आकर पूछती है।

“हाँ.. हाँ.. भाभी.. अगर उसकी इच्छा है तो जरूर दीजिए।” राघव सीधा बैठते हुए कहता है।

“आप दिव्या के पास बैठिए भाभी.. मैं ले कर आती हूँ।” रिया कहकर रसोई की तरफ बढ़ गई।

“रिया, सबके लिए ही चाय बना लेना।” चंद्रिका रसोई की ओर जाती रिया से कहती है।

“नहीं भाभी.. पहले दिव्या को पीने दीजिए.. उसका सोना जरूरी है।” राघव कहता है।

“चाय के बाद उसे नींद आ जाएगी??” चंद्रिका पूछती है।

“उसे फिलहाल नींद आ जाएगी भाभी”…राघव आश्वस्त करता हुआ कहता है।

चाय की गर्मी से दिव्या को थोड़ी राहत मिली और वह चंद्रिका के कोमल हाथों को अपने सिर पर महसूस करती है, जो धीरे-धीरे उसे सुला रही हैं। चाय की गर्मी और चंद्रिका के साथी होने की शांति ने उसे अपने चिंताओं से दूर ले जाने का एक सुरीला माहौल बना दिया और वह धीरे-धीरे सोती जाती है, जैसे चंद्रिका की ममता और स्नेह ने उसे एक प्यारी सी नींद में लिपटा लिया हो। उसकी आँखें धीरे-धीरे बंद हो जाती हैं, लेकिन उसका चेहरा एक प्रशांत स्मित से भरा हुआ है। इस पल की शांति और सुरक्षा ने उसे एक नए सफर की ओर मुड़ने का एहसास कराया।

चंद्रिका के आने पर राघव स्थिर होकर बैठता है।

“भैया चाय कॉफी क्या बना दूँ.. आप आज बहुत थके लग रहे हैं।” चंद्रिका राघव के निस्तेज हो गए चेहरे को देख कर पूछती है।

“जी भाभी.. आज दिव्या ने जो बताया, उसे सुनकर मन उद्विग्न सा गया है। कुछ नहीं लूँगा भाभी.. आपलोगों को सारी बात बताकर घर ही जाऊँगा।” राघव बुझे बुझे स्वर में कहता है।

बताते बताते राघव के साथ साथ सभी के आँखों से आँसू छलक आए।

सुनने के बाद सभी प्रकृतिस्थ हो गए थे। कोई भी कुछ बोलना नहीं चाह रहा था या यूँ कहे कि बोलने से बच रहे थे।

बीस पच्चीस मिनट के बाद राघव ही चुप्पी तोड़ता है।

“आनंद हमलोग चलते हैं… रिया चलें।” राघव रिया की ओर देखकर कहता है।

क्रमशः

दिव्या(भाग–9) – आरती झा आद्या : Moral stories in hindi

आरती झा आद्या

दिल्ली

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