धूप-छाँव – पुष्पा पाण्डेय

प्रभात बेला में एक महिला की छाया रेलवे लाइन पर चलती देखकर कचरा चुनने वाली वृद्धा को काफी हैरानी हुई। ट्रेन अभी आने ही वाली थी और वह छाया सीधी चली जा रही थी। आव देखा न ताव दौडती हुई गयी और रेलवे लाइन से धक्का दे उस पार ढकेल दिया।

ट्रेन चली गयी, लाइन के इस पार कचरा चुनने वाली और उस पार वह महिला एक दूसरे को नजरों से निहारे जा रही थी। भारी कदमों से चलती हुई नीलिमा, हाँ उस महिला का नाम नीलिमा ही था, वृद्धा के पास आई।

” तुमने मुझे क्यों बचाया? मैं मर जाना चाहती हूँ।”

“अरे बेटी, मरना तो आसान है।

चुनौति तो तब है जब जिन्दा रह कर दिखाओ। तुम तो अच्छे घर की लग रही हो। फिर तुमने  ऐसा क्यों सोचा?” 

“अच्छे घर की हूँ  तभी तो ऐसा सोचना पड़ा।”

किसी के घाव पर मरहम न लगाकर उसे और कुरेदने में इस समाज को जो खुशी मिलती है उससे वह वंचित कैसे रह सकता है। जब परिवार में सिर्फ महिलाएँ ही रह जाती हैं तो हर कोई उसका फायदा उठाना चाहता है। गबन का आरोप लगाकर तानों की बौछार करने वालों की कमी नहीं।

फिर वही सहानुभूति जताते हुए नजदीक आने की कोशिश करता है। नीलिमा का पड़ोसी जो विजय का अच्छा दोस्त था ,वो भी मदद के नाम पर नीलिमा के नजदीक आने की कोशिश की। ननद पहले ही लोगों की नजरों का सामना करने से बचने के लिए काॅलेज छोड़ घर बैठ गयी थी।

सात वर्षीय बेटी के सवालों का जबाब देने में असमर्थ नीलिमा ने जिन्दगी से हार मान लिया और क्षणिक भावावेश में समस्या का समाधान मौत से करना चाहा, लेकिन काल को ये मंजूर नहीं था। तभी तो कचरे वाली वृद्धा वहाँ पहुँच गयी।—–




“मैं तुम्हारी बात समझी नहीं बेटा, लेकिन एक बात समझ लो- जीवन में धूप-छाँव आते रहते हैं। हाँ, कभी- कभी धूप की उष्मा अधिक हो जाती है ।इसका मतलब यह नहीं कि छाँव होगी ही नहीं ।”

” क्या करूँ?अब तो बाहर निकलना भी मुश्किल हो गया था। लोगों की चुभती निगाहों का सामना करना मुश्किल हो गया था।”

” जीवन में कुछ भी मुश्किल  नहीं होता बेटी।”

कहकर कचरा वाली अपने रास्ते चल पड़ी।

नीलिमा दूर तक जाती हुई उस वृद्धा को देखती रही। सोचने लगी- एक कचरा चुनने वाली जीवन से इतनी संतुष्ट? 

वो पल गुजर गया, जो जिन्दगी और मौत का फैसला करने वाला था। रास्ते भर नीलिमा यही सोचती रही- आज विजय फरार नहीं हुआ होता तो बात इतनी नहीं बिगड़ती। व्यापार में हुए नुकसान और कर्ज के बोझ से पलायन कर जीते जी मार डाला। क्या अब लौटेगा विजय? 

लौट भी तो सकता है। इसी उधेड़बुन में वह घर तक पहुँच गयी।

“अरे बहू ! सुबह-सुबह कहाँ चली गयी थी? मेरा विजय वापस आ गया बहू।”

कहती हुई नीलिमा के गले लग फूट-फूट कर रोने लगी। दोनों की आँखों से निकले ये आँसू उस उष्मा को शीतलता प्रदान कर रहे थे।।

स्वरचित एवं मौलिक रचना

पुष्पा पाण्डेय 

राँची,झारखंड। 

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