उसकी उधेड़बुन जारी रही।
यह तो वह अब समझ पाई है कि जीवन इसी उधेड़बुन का दूसरा नाम है।
” कोई कहानी , कोई वचन या कोई स्वप्न जो एक दिन बुनी जाती है उसे दूसरे ही उघेड़ दिया जा सकता है “
उसके गृहप्रवेश पर घर से पिता , विनोद भाई एवं अनुराधा नहीं आ पाए थे।
वे सब अब आना चाह रहे हैं।
इस अनुबंध के हस्ताक्षर करने के बाद उसके पास अब इतने पैसे तो आ गए हैं कि पिता की बर्षों की आकांक्षा चारों धाम दर्शन करने की जिसे मां अपने साथ लिए ही गोलोक वासनी हो गई थीं उसे पूरी कर पाए
नैना चाहती है।
कम से कम पिता की दबी लालसा तो पूरी हो जाए।
जब नैना ने फोन पर उनके सामने यह प्रस्ताव रखा वे फीकी हंसी हंस पड़े ,
” तुम्हारी मां को तो मैं उसके जीवनपर्यन्त अयोध्या जी छोड़ और कहीं नहीं ले जा पाया “
” अब मैं ?
मतलब मेरी यह साध शायद तुम्हारे भरोसे पूरी होने को है। ऐसा मालूम होता है। “
अक्सर वो मध्यरात्रि में पिता को मां की टंगी तस्वीर से बतियाते हुए सुनती है ,
” नैना की मां,
घर की स्थिति अब पहले जैसी काली और विपदा भरी नहीं रह गई है। नैना की सहायता से विनोद ने किताबों की दुकान खोल ली है।
इसने तुम्हारे पुराने घर की मरम्मत करवा कर उस पर रंग-रोगन भी करवा दिया है।
सच है कि इस लड़की ने हमारे घर में बहुत कष्ट उठाया है”
तब पिता की इस आत्मस्कवीकृति पर नैना का कलेजा छलनी हो जाया करता है।
इसके साथ ही अनुराधा का भी दिल्ली आने के टिकट बनवा दिए यह कहते हुए कि ,
” पहले तुम आ कर देख लो ,
यहां का रवैया और फिर जमने के प्रयास करो तब विनोद भाई की भी कुछ ना कुछ व्यवस्था हो जाएगी “
अनुराधा …
शादी के बाद मायके से निकल ससुराल आने के बाद से मुझको नैना के रूप में सुख-दुख बांटने वाला एक कंधा मिल गया था।
हम दोनों ने मिलकर घर के काम बांट लिए थे।
नैना हर समय मदद के लिए खड़ी रहती तो ससुराल में जमने में ज्यादा वक्त नहीं लगा था।
एकाद कड़वे अनुभवों को अगर छोड़ दूं तो ,
नैना ने दिल्ली जा कर खुद को जिस मजबूत अस्तित्व में ढ़ाला है। उससे न सिर्फ़ उसकी बल्कि हमारी भी जिंदगी का आनेवाला रास्ता तय होने वाला है।
इसके अगले हफ़्ते ही … मैं बाबूजी और विनोद दिल्ली पहुंच गए थे
आगे …
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डार्लिंग!कब मिलोगी” (भाग -93)- सीमा वर्मा : Moral stories in hindi