डार्लिंग!कब मिलोगी” (भाग -69)- सीमा वर्मा : Moral stories in hindi

बोलते हुए वे बीच में रुक गये थे। 

मेरे मन में यह आया उनकी पीठ सहला दूं पर रुक गया।

करीब दसेक मिनटों के बाद जब उनकी सांस स्थिर हुई तो उन्होंने फिर से बोलना शुरू किया।

” मुझमें और तुम्हारी मां में मौलिक अंतर था। वो बहुत पढ़ी- लिखी शहरी लड़की जबकि मैं गांव का निपट देहाती युवक।

गलती तुम्हारे नाना की थी। खामियाजा भुगतना पड़ा तुम दोनों भाई बहिनों को।

तुम्हारी मां तो आजीवन त्रस्त रहीं,

” बस सुनी- सुनाई पर बिना जांच – पड़ताल किए बिना उसके पिता ने मुझ जैसे अनपढ़ गंवार से उसका रिश्ता जोड़ दिया “

शादी की प्रथम रात्रि जब उसके सामने हीन भाव से ग्रसित मैं अपने एक पैर से दूसरे पैर को रगड़ रहा था वो हंसी ,

” बस भी करो , क्या आग जलाओगे जो लगातार घर्षण कर रहे हो ? “

उसके प्यार में वो समर्पण नहीं था जो एक पत्नी में होती है। उसे सबसे ज्यादा प्यार अपनी आजादी से था “

जबरदस्ती के जोड़े गए रिश्ते में वो अक्सर बगावती  हो जाता करती। ना वो बंधना चाहती थी और ना बांधना जानती थी “

अक्सर कहती,

” तुममे एकदम अक्ल नहीं है , अड़ियल टट्टू हो बिल्कुल “

यह सब सुनकर न जाने क्यों मुझपर एक अकारण सन्देह का पागलपन सवार रहने लगा।

मैं भलीभांति जानता था कि तुम्हारी मां में सतीत्व की भावना कूट- टूट कर भरी हुई है। फिर भी मेरे उपेक्षित मन को बदले की भावना से प्रेरित उसे असती करार देने में तनिक भी झिझक महसूस नहीं हुई।

पहले मेरे इस घृणित विचार ने मन के किसी कोने में अपना घर बनाया फिर धीरे – धीरे आग का वो छोटा सा कण हमारे जीवन पर छा गया।

मेरा ह्रदय एक विचित्र एकरसता का अनुभव करता उसमें विद्रोह का भाव भरने लगा।

“अब तुम्हें मेरी इन बातों पर विश्वास हो या ना हो ?

पर तुम्हारी मां के प्रति सन्देह पाल कर मैं स्वयं को पीड़ित और दण्डित करता “

हिमांशु एकटक उनकी ओर देखता रहा था। 

अचानक उसने अपना मौन भंग कर पिता से अविश्वास भरे स्वर में कह उठा ,

” जो भी हुआ, जिस कारण से हुआ बहुत बुरा हुआ यक़ीनन इसने मेरे व्यक्तित्व को छिन्न-भिन्न कर डाला “

पिता का मुख अत्यंत करुण छाया से म्लान हो गया। एक लंबी सांस लेकर कराहते हुए ,

” हेम! मैं तुम्हारी कसम खा कर कहता हूं, तुम्हारे जन्म से लेकर अब तक तुम्हारे लिए मेरे मन में गाढ़े स्नेह ‌‌‌‌का भाव हमेशा से रहा है “

ये शब्द मेरी बेचैनी को बढ़ाने लगे थे।

और यह बेचैनी मुझे मानसिक पीड़ा पहुंचाने लगी।

फिर भी यह सोच ,

कि जो भी हो इस परिस्थिति में उन्हें मैं अकेला नहीं छोड़ सकता।

वहीं रुक कर उनकी सेवा – टहल करने की सोच खर्चे की तनिक परवाह न करते हुए शहर से डाॅक्टर को बुलवाया।

मेरी देखभाल से वे पहले से प्रसन्न और स्वस्थ दिखाई देने लगे थे।

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