दंभ के घेरे… – शिप्पी नारंग  : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : हीथ्रो एयरपोर्ट पर बैठा मैं सोच रहा था कब फ्लाइट में बैंठू और अपने घर पहुंचूं।  मेरा घर, मेरा प्यारा आशियाना जिसकी अहमियत मुझे इन 6 महीनों में हो चुकी थी।  मैं गुलशन सूरी ,..एक मल्टीनेशनल कंपनी में सीनियर प्रोजेक्ट मैनेजर.. एक आजाद पंछी जिसे कोई रोक-टोक,  कोई बंदिश पसंद नहीं ।

एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में लंदन जाना था । हम छह लोग थे जिनमें से दो महिलाएं थी।  रहने का इंतजाम कंपनी की तरफ से था।  एक महीना हम काफी व्यस्त रहे,  टाइम जोन के हिसाब से काम करना होता था ना दिन का पता होता था ना रात 

का । फिर एक महीने के बाद काम पटरी पर आने लगा और तब वीकेंड में घूमने का प्रोग्राम बन जाता था पहले पहले तो लगता हम बस सपनों के देश में पहुंच गए हैं । सब कुछ बहुत अच्छा… नया देश, नया वातावरण,  नए लोग यानी एक स्वप्न पर यह जरूर था कि वहां कोई अपनापन नहीं,  कोई संस्कार नहीं, किसी को किसी से कोई मतलब नहीं,  बस आजादी ही आजादी। 

जिस आजादी का मैं भारत में भरपूर अंदाज से उपभोग करता था वह अब मुझे कभी कभी दिल दहलाने वाली लगने लगती थी।  याद आने लगा था अपना घर, अपने बच्चे,  मम्मी पापा और मेरे घर की जिंदगी यानि मेरी पत्नी सुरभि.. जिसने अपने प्यार से, अपने व्यवहार से, अपने संस्कारों से घर को महका दिया था,  घर की नींव को मजबूत किया था, मेरे मम्मी पापा को पूरा आदर सम्मान दिया और जिसे मैंने सिर्फ पत्नी,  एक औरत से ज्यादा कुछ समझा नहीं ।

मेरा मानना था कि पत्नी को बस दबा कर रखना,  रौब जमाना और अपनी पुरुष होने का, अपने पति होने का एहसास बार-बार दिलाना । महीने के आरंभ में ही मैं अपनी तनख्वाह का काफी अच्छा हिस्सा मां को दे देता था बस मेरा काम खत्म। मेरी पत्नी .. सुरभि भी नौकरी पेशा थी।  दो बच्चे थे हमारे 6 साल की बेटी रिद्धि का और 3 साल का बेटा श्रेय । मैंने कभी भी जानने की कोशिश ही नहीं की कि  सुरभि को क्या पसंद है, 

क्या नहीं पर यह जरूर था कि मम्मी पापा उससे बहुत खुश थे वह भी उन्हें पूरा आदर सम्मान देती थी उनका पूरा ध्यान रखती थी अगर दो दिन के लिए भी वो अपनी मम्मी के घर चली जाती थी तो मम्मी पापा हर बात में सुरभि यह… सुरभि वह… कह कर मेरा दिमाग खराब कर देते थे क्योंकि मुझे तो कोई ऐसी कमी खलती ही नहीं थी। 

मैं बस एक परिंदे की तरह उड़ना चाहता था …हां इतना जरूर होता था कि कभी जुराबें नहीं मिलती थी,  कभी रुमाल तो कभी वॉलेट ही नहीं मिलता था यानी दो दिनों में मुझे अपनी चीजें खुद ही ढूंढनी होती थी और इसकी खीझ मम्मी पर ही उतरती थी और वह कह ही देती थीं कि “बस बीवी की कद्र कभी ना करना पता चलेगा जब कभी उससे लंबे समय के लिए दूर रहना पड़ेगा”  और मैं ऐसी हंसी हंसता था कि मम्मी ही खिसिया जाती और पापा ही बोलते –

“छोड़ो समय अपने आप उसे सिखाएगा और वह सब ठीक कहते थे आज मुझे एहसास हो रहा था कि घर क्या होता है… बच्चों का प्यार क्या होता है.. यहां लंदन में जब मेरे साथी घर पर बातें करते थे तो मैं उन पर हंसता था कहता भी था कि ..”क्या बातें करते हो यार..? सबसे पूछते रहते हो क्या लाऊं ..? अरे कुछ भी ले जाओ और नहीं भी ले जाओगे तो कौन सा आसमान टूट जाएगा क्योंकि मुझे तो यह सब चौंचले  (हां मेरी नजर में चौंचले ) ही होते थे । हर रोज वीडियो कॉल करते थे । मैं भी करता था पर हफ्ते में सिर्फ एक बार,  वह भी सिर्फ मम्मी पापा से दो मिनट। 

“सब ठीक है” …यही पूछता था ।कभी बच्चों से बात नहीं की, पत्नी के बारे में तो पूछता ही नहीं था पर मम्मी पापा की आवाज से ही पता चल जाता था कि वह लोग भी वहां खुश हैं। मेरी फितरत से सब वाकिफ थे पर मुझे पता नहीं था कि कोई मुझे बहुत बारीकी से देख रहा था,  महसूस कर रहा था । मैं अपने दंभ में, अपने अहम में ही खुश था।  हमारे साथ में दो महिलाएं भी थी एक तो 30 वर्षीय कविता तो दूसरी शीला सावंत.. जो 8 महीने बाद रिटायर होने वाली थी काफी सुलझी हुई और मेहनती थी ।

काम के प्रति पूरी तरह से समर्पित और सहायता करने के लिए हमेशा तत्पर । कम बोलती थी पर जब उनका प्रेजेंटेशन होता था तो हम लोगों में ही एक कॉम्प्लेक्स सा आ जाता था । एकदम सधी और संतुलित आवाज़ और आत्मविश्वास से भरपूर उनकी शख्सियत थी।  एक दिन डिनर के बाद मैं अकेला बैठा था और कॉफी का ऑर्डर देने ही वाला था कि शीला जी वहीं आ गई और मैं उनसे पूछ कर दो कप कॉफी का आर्डर 

किया । इधर-उधर की बातें करने लगे कि अचानक शीला जी ने पूछा कि “आपकी पर्सनल लाइफ ठीक है…?”  और मैं एकदम चौंक गया।  “मतलब…?” मैंने पूछा।  “नहीं मैं नोटिस कर रही थी और कर भी रही हूं कि आप अपनी फैमिली से ज्यादा बात नहीं

 करते । आपको अपने बच्चों के लिए,  घर के लिए कुछ शॉपिंग करते नहीं देखा इसीलिए पूछा।”  “नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं है पत्नी है,  बच्चे हैं,  मम्मी पापा हैं।”  “गुड..” आवाज आई । “शायद मैं ही गलत समझी थी पर आपको ऑफिस की पार्टी वगैरा में देखा आप कभी भी अपने परिवार,  अपनी पत्नी के साथ नजर नहीं आए । यहां भी कभी आपको परिवार के साथ बात करते नहीं देखा तो मुझे लगा कि एक और केशव तो जन्म नहीं ले रहा….?”  “मतलब… मैं समझा नहीं और यह केशव कौन है …?” मैंने आश्चर्य से पूछा । “मेरे पति…”  शीला जी की आवाज आई ।  

मैंने शीला जी को आश्चर्य से देखा । “मैं कुछ समझा नहीं”  मैंने कहा । “वही तो बताने के लिए मैं यहां आई हूं दो दिन बाद तो वापस चले जाएंगे फिर मिलेंगे तो औपचारिक तौर पर इसलिए मौका मिला तो मैं आ गई।  केशव…मेरे पति हैं जिन्हें अपने परिवार, अपने बच्चों, अपने भाई बहनों  किसी से कोई लगाव नहीं था ।

आत्म केंद्रित थे वे । बस अपने से मतलब । अहम कूट-कूट कर भरा था उनमें । अपनी गलती मानना तो उन्होंने सीखा ही नहीं था और अपने इसी स्वभाव के कारण वे सबसे दूर होते गए । संयुक्त परिवार था हमारा । सब हंसी खुशी रहते थे,  हंसी ठहाके गूंजते रहते थे पर जैसे ही केशव आते सब इधर-उधर हो जाते ।

केशव को कोई फर्क ना पड़ता। सबने अपनी दुनिया अलग बना ली जिसमें केशव का कोई स्थान न था पर पिस कौन रहा था… मैं । केशव को बहुत समझाती पर उन्हें न समझना था ना वो समझे । धीरे-धीरे वक्त रेंग रहा था ।  बुढ़ापे ने आना था सो आया। दो साल हो गए हैं रिटायर हुए । घर में रहते हैं । काफी व्याधियों ने घेर लिया है ।अकेले पड़े रहते हैं । बच्चे अपने घरों में खुश हैं मुझसे मिलने आते हैं पर पापा के कमरे में जाते हैं और पांव छूकर वापस आ जाते 

हैं । बच्चों को भी समझाती हूं पर बच्चे साफ कह देते हैं जब हमें बचपन में उनकी जरूरत थी तब कहां थे वो..?  वह हमारे पी टी एम में सिर्फ आप आती थीं,  हमारे रिजल्ट आने पर सिर्फ आपको खुश होती थी, आप सबका मुंह मीठा कराती थी पापा ने कभी शाबाशी के लिए हमारी पीठ नही थपथपाई, हमने अपना जन्मदिन सिर्फ आपके साथ मनाया है तब वो कहां होते थे..?

उन्हें सिर्फ अपने आप से प्यार है हम उनके लिए फालतू थे तो आप हमें कुछ मत कहिए । हम सिर्फ आपके लिए ही उनसे मिलने जाते हैं क्योंकि हमें पता है नहीं जायेंगे तो आपको दुख होगा और आपको दुखी हम नही देख सकते । अब मैं इसके आगे उन्हें और क्या कहती।  बच्चे सच ही कहता हैं। केशव की आंखों से पता चलता है कि वह अब सबके साथ बैठना चाहते हैं,  बातें करना चाहते हैं

पर अब बच्चों ने अपनी दुनिया अलग बना ली है जिसमें उन्हें वह शामिल नहीं करना चाहते । जानती हूं , समझती भी हूं और फिर बच्चों को क्या दोष दूं बीज तो  केशव ने ही बोया था अलगाव का । मैं तो पत्नी हूं,  संस्कारों से जकड़ी हुई हूं,  साथ निभा रही हूं बाकी अब कोई भावनाएं बाकी नहीं है पर छोड़ भी नहीं सकती। तुम में मुझे अपना छोटा भाई दिखता है इसलिए मुझे लगा कि अगर तुम भी ऐसे हो तो अभी भी संभल सकते हो । याद रखना अलगाव बहुत आसान है पर यही अलगाव बुढ़ापे में बहुत 

कष्टदायक होता है । जवानी तो बहुत अच्छे से निकल जाती है पर बुढ़ापा अपने आसपास सबको चाहता है कोई बात करने वाला, कोई हाथ पकड़ने वाला,  कोई ऐसा कंधा जिस पर बुढ़ापा अपना कांपता हाथ रख सके,  कोई सहारा दे सके । हम बच्चों को बहुत आराम से दोषी बना देते हैं पर हम बड़े भी तो कहीं गलत होते हैं । ये बीज भी तो हम ही बोते हैं । ये संस्कार क्या करेंगे जब हम ही जाने-अनजाने उन्हें इन सब चीजों से दूर रखते हैं। 

कहने को सब कहते हैं मां-बाप ने संस्कार नहीं दिए लेकिन बच्चों ने तो वही सीखा ना जो उन्होंने देखा । मैं बहुत कुछ कह गई बुरा लगे तो माफ करना भाई.. शायद मैं बहुत जज्बाती हो गई ” कहते हुए शीला जी आंसू छुपाते हुए वहां से चली गई और मैं एयरपोर्ट पर बैठा सोच रहा था कि ऐसा क्यों होता है कि कई बार आपको कितनी बार समझाया जाता है पर समझ नहीं आता और कोई सिर्फ एक बार ऐसी चोट मारता है कि  जिंदगी का सफ़ा ही बदल जाता है। ओफ्फो …यह मेरी घड़ी बंद क्यों हो गई है…?

शिप्पी नारंग

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