चांदी के सिक्के – बालेश्वर गुप्ता   : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : देखो भैय्या बुरा मत मानना, आज तुम्हारी भांजी का जन्मदिन है तुम्हे कोई ना कोई गिफ्ट तो देना ही है।मैं जानती हूं तुम्हारी माली हालत अच्छी नही है, इसलिये ये 21000 हजार रुपये रख लो,सबके सामने गिफ्ट में इन्हें दे देना।तुम्हारी और मेरी इज्जत रह जायेगी।और हाँ उस कमरे में एक सूट भी टंगा है,वो भी पहन लेना।

      अवाक सा अवधेश अपनी छोटी बहन सुम्मी का चेहरा देखता रह गया।कभी उसे गोद खिलाया करता था,स्कूल,कालेज में दाखिला भी कराया करता था।कितनी बड़ी हो गयी सुम्मी,अपनी और मेरी इज्जत रखने की बड़ी बात कर रही है।अपने बड़े भाई के पुराने कपड़ो के स्थान पर नये सूट पहनने का आग्रह कर रही है।इससे उसकी और उसके भाई की इज्जत सबके सामने रह जायेगी।

       एक बड़ी फैक्टरी के मालिक रामकिशोर जी के दो बेटे अवधेश तथा सुरेश और एक बेटी सुम्मी थे।अवधेश तीनो में बड़ा और सुम्मी सबसे छोटी थी।बड़ी सी कोठी में तीनों भाई बहन के अलग अलग कमरे थे।कार थी नौकर चाकर थे।ऐशो आराम में कोई कमी नही थी। अवधेश की पढ़ाई लिखाई में रुचि थी,सो अपनी उच्च शिक्षा के लिये  अवधेश अपने नगर से बाहर बड़े शहर में पढ़ने चला गया।

बेटी सुम्मी की रामकिशोर जी ने एक धनाढ्य परिवार में शादी कर दी।छोटे बेटे सुरेश की पढ़ने लिखने में कोई रुचि नही थी,इस कारण रामकिशोर जी ने उसे अपने साथ कारोबार में लगा लिया।पैकेजिंग मैटीरियल की एक बड़ी फैक्टरी का संचालन रामकिशोर जी व छोटा बेटा सुरेश दोनो करने लगे।सब साम्राज्य इसी फैक्ट्री की बदौलत ही रामकिशोर जी ने खड़ा किया था।रामकिशोर जी सहृदय तो थे पर फैक्ट्री के काम मे लापरवाही वे बर्दास्त नही करते थे।इसी अनुशासन के कारण उन्हें कभी भी नुकसान का मुँह नही देखना पड़ा था।

         पर जबसे सुरेश ने उनका हाथ बटाना शुरू किया पता नही क्यों फेक्ट्री लॉस में जाने लगी?रामकिशोर जी समझ ही नही पा रहे थे कि ये क्या गुथ्थी है?इसी बीच रामकिशोर जी बीमार पड़ गये, डॉक्टर्स ने उन्हें 15-20 दिनों के लिये पूर्ण विश्राम की सलाह दे दी।रामकिशोर जी निश्चिन्त थे कि उनका बेटा सुरेश तो हैं ना फैक्टरी संभालने को।

     स्वस्थ हो रामकिशोर जी फैक्टरी पहुंचे तो सब कुछ अव्यवस्थित पाया।जिनसे रॉ मैटीरियल वाले तकादे को आ रहे थे जबकि पहले ऐसा कभी नही हुआ था,उनका समय से भुगतान हो जाता था,इसी कारण रामकिशोर जी की बाजार में जबरदस्त शाख थी,लेकिन आज वह शाख मिट्टी में मिलती दिखायी दे रही थी।हिसाब किताब में भी हेरा फेरी साफ नजर आ रही थी।

यह सब देख रामकिशोर जी ने अपने बेटे सुरेश से इस सबका उत्तर मांगा तो सुरेश अपने पिता से बहुत ही रूखे स्वर में बोला यह सब मैं खा गया हूँ।भौचक्के से रामकिशोर सुरेश का मुँह देखते रह गये।उस समय चुप रह कर उन्होंने अपने तरीके व अनुभव से जांच की तो पाया यह सब सुरेश का ही करा धरा है।उसकी जुए की लत ने  फेक्ट्री को तबाह कर दिया है।अपनी ही फैक्टरी से वह कोरचा करने लगा है।पिता का सम्मान करना उसने छोड़ दिया था।

इससे रामकिशोर जी को गहरा सदमा पहुंचा, उन्हें अब अपना जीवन ही बोझ लगने लगा था,उनकी सेहत दिन प्रतिदिन गिरती जा रही थी।सुरेश पर इसका कोई असर नही था,वह पूरी तरह विद्रोही हो गया था और घर की संपत्ति तक बेचने का दवाब रामकिशोर जी पर बनाने लगा था।रामकिशोर जी ने बिस्तर पकड़ लिया उन्हें महसूस होने लगा था कि वह अब अधिक नही जी पायेंगे।

उन्होंने अपने बड़े बेटे अवधेश को बुलाकर सब स्थिती समझा कर फैक्टरी संभालने का आग्रह किया।पिता की तथा कारोबार की स्थिति तथा सुरेश के  व्यवहार को देख अवधेश शहर से वापस आ गया।सुरेश को ये अच्छा नही लगा पर कुछ कह नही सकता था।इसी कारण उसने अवधेश के साथ भी वही नीति अपनायी जो पिता के साथ अपनायी थी जिससे उसके पिता टूट गये थे,दुर्व्यवहार की नीति।बड़े भाई से भी सुरेश ने बदतमीजी से पेश आना शुरू कर दिया।

         अवधेश सब कुछ समझ चुका था,सुरेश ने फैक्टरी को दिवालिया स्तर तक पंहुचा दिया था।धैर्य से काम लेते उसने दृढ़ता से फैक्टरी के कार्य को पूर्वस्थिति लाने का प्रयास प्रारम्भ कर दिया।सुरेश को भी अवधेश ने संदेश दे दिया कि यदि उसने गड़बड़ी करने की कोशिश की तो वह उसे पुलिस को सौप देगा।

इससे सुरेश बेबस हो गया।चूंकि फैक्टरी काफी लॉस में आ चुकी थी,उधार माल मिलने में भी कठिनाई आने लगी थी,लेकिन अवधेश ने हिम्मत नही हारी, फैक्टरी और घर के फालतू खर्च बंद कर दिये गये,सीमित साधनों से ही काम चलाया जाने लगा।रामकिशोर जी   अपनी बीमारी की अवस्था मे ही चल बसे।अवधेश अकेला पड़ गया था।भाई सुरेश का सहयोग न तो व्यापार में और न ही पारिवारिक सम्बन्धो के निर्वहन में मिल रहा था।परिवार के अस्तित्व का ध्यान रखते हुए अवधेश ने धैर्य न खोते हुए अपने प्रयास जारी रखे।

       इन खराब दिनों में अवधेश ने महसूस किया कि मित्रो और रिश्तेदारों की दृष्टि में अंतर आ गया है,जो पहले रामकिशोर परिवार से संबंध या रिश्तेदारी बताने में गर्व करते थे अब कतराने लगे थे।शहद में डूबी उन सबकी जबान अब खामोश हो चुकी थी।ओह तो वह प्यार स्नेह अपना पन सब दिखावा था।अवधेश ने सबकुछ समझ खुद सबसे दूरी बना ली और जीवन संघर्ष में अपने को झोंक दिया।

      इसी बीच बहन सुम्मी की बच्ची के जन्म दिन का आमंत्रण अवधेश को मिला,बड़े स्तर पर मना रहे थे।अवधेश अब किसी फंक्शन में नही जाता था,पर ये आमंत्रण तो उसकी बहन का था, तो वहाँ तो जाना ही था।

      यहां आकर और अपनी ही बहन के शब्द सुनकर अवधेश को अपने अंदर कुछ टूटता सा महसूस हुआ।दुनिया की बदलती  नजरों से नही वो बहन के शब्दों से घायल हो गया।अपनी फकीरी का अहसास उसकी अपनी बहन ही करा गयी थी।पता नही उसकी इज्जत रखने को या अपनी इज्जत रखने को कितनी आसानी से सुम्मी 21000रुपये देने और नया सूट पहनने को कह कर उसके स्वाभिमान को खंडित कर दिया था।

        अवधेश घर मे कभी के रखे चांदी के पाँच सिक्के अपनी भांजी को देने के लिये लाया था, पर वे तो अब बेमानी हो गये थे,उनमें छुपी उसकी भावना 21000 रुपयो के ऑफर के नीचे दफन हो चुकी थी।

       आंखों में आँसुओ को रोक अवधेश जेब मे पड़े लाल रंग के छोटे से पर्स को जिसमे पांच चांदी के सिक्के रखे थे,सुम्मी के कमरे की टेबल पर रख कर चुपके से सुम्मी की कोठी से निकल गया—!

 बालेश्वर गुप्ता, नोयडा

मौलिक एवं अप्रकाशित।

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