“प्रायश्चित ” – सीमा प्रियदर्शिनी सहाय : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi  : “पंचम कुटीर…!!” पंचम मेरे दादाजी का नाम था। अपने नाम पर उन्होंने इस कोठी का नाम रखा था।

दादाजी के पास संपत्ति के नाम पर यही एक कोठी थी इसके साथ लगा हुआ बड़ा सा दलान, कुछ पेड़ पौधे और विशाल बरगद का पेड़।

दादाजी के बाद काका, ताऊ और पापा के बीच इस कोठी और जमीन का बंटवारा हो गया। हमारे हिस्से में भी इस कोठी का एक हिस्सा आया।

बरगद का पेड़ कॉमन था। वह किसी के भी हिस्से में नहीं गया।उस पर तीनों भाइयों यानी मेरे पापा, ताऊ और काका तीनों का हिस्सा था। सभी ने यह डिसाइड किया था कि उस बरगद के पेड़ को कभी भी नहीं हटाया जाएगा।

मेरा बचपन इन्हीं घर की चार दीवारों में बीता था। कभी इधर कभी उधर भागते -दौड़ते हुए…!

जमीन का बंटवारा हो चुका था लेकिन कभी भी किसी के दिल में खाई नहीं आई थी, कोई दीवार नहीं थी।

बड़ी मां, ताई जी,मां तीनों सगी बहनों की तरह रहती थीं।

लेकिन धीरे-धीरे घर- दरवाजा खाली होता गया। सभी के बच्चे बाहर पढ़ने के लिए चले गए और बेटियों की शादियां हो गई।

फिर घर में बुजुर्ग शेष रह गए।धीरे-धीरे बड़े पापा, ताऊजी, ताई जी सभी गुजरते चले गए।

सभी के बच्चे बाहर नौकरी कर रहे थे अब किसी को गांव का आंगन अच्छा नहीं लगता था ।

अब शहर में रहने की आदत हो गई है गांव में कौन जाए…! भैया लोग कहते थे।

कुछ महीने पहले मेरी मां गुजर गई थी। मां का कहना था “घर आंगन को महकाकर रखना चाहिए ।बगिया में फूल खिले रहते हैं तो घर आंगन की शोभा बढ़ती है!” पर बीते कुछ दिनों से यह शोभा कहां थी?

 मैं जब भी अपने घर जाती घर की सुनसान खिड़की, दरवाजे अपनी व्यथा सुनाते रहते थे !

पर बरगद अपनी डालियां फैलाए अभी खड़ा था लेकिन जो खो गया था वह हमारी चहचहाहट,हमारी किलकारियां…!

बरगद का पेड़ गवाह था हमारे निश्चल प्रेम का….!, उसके नीचे कितने बार हम लड़े..झगड़े,खेले कूदे…!  छुपन छुपाई, कित कित और सालों भर बरगद की डालियों का झूला! 

मोटी मोटी रस्सियों को बांधकर झूला ,जिसमें झूलकर हमारे तनमन खुशी से झूल जाते थे।

मां बाप से मायका होता है लेकिन अब ना पापा रहे और ना मां..!  तीनो भाई  शहरों के ही होकर रह गए।

एक अनजाना सा डर बार-बार मुझे डरा रहा था।वैसे भी लड़कियों को अपने मायके से ज्यादा ही प्रेम होता है क्योंकि वह सपने की तरह हो जाते हैं!

लड़कों को इससे कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता…!

सुबह-सुबह मैं चाय का कप लेकर अपने कमरे में आई हुई थी, तभी मोहित भैया का फोन बजने लगा।

 ” मानवी !,कैसी हो ?”

“भैया प्रणाम!, बस ठीक हूं ।आप बताइए.?”

 “मैं भी ठीक हूं। सुनो तुमसे कुछ कहना था।

हम सबने मिलकर यह फैसला किया है कि हम गांव की कोठी को बेच दें…!”

 “अच्छा …!, …यही बात मुझे डरा रही थी….अब जब मायके जाना होगा तो मैं कहां जाऊंगी? बड़े भैया के पास, मंझले भैया के पास या छोटे भैया के पास?

… वहां वह बात नहीं जो बात पंचम कुटीर में थी…!”

  मुझे चुप देखकर मंझले भैया ने कहा 

क्या बात है?तुम चुप क्यों हो? तुम्हें कुछ प्रॉब्लम है?”

” नहीं भैया..मुझे कोई प्रॉब्लम नहीं है! मुझे क्या प्रॉब्लम होगी!”

“अच्छा, उन्होंने आगे कहा ..ऐसा करो तुम गांव आ जाओ। एक बहुत अच्छा ग्राहक मिल गया है। अच्छा दाम दे रहा है…!घर बेचने से पहले कुछ दिन वहां रह लेते हैं।”

मेरे गले में कुछ अटक गया।

“जी भैया!” 

दूसरे दिन मैं प्रयाग को बोलकर अपने गृहनगर के लिए निकल गई।

 शाम तक मैं दादाजी के पंचम कुटीर में थी ।

सन्नाटा पसरा हुआ था। घर में सिर्फ एक केयरटेकर था जो घर की देखरेख कर रहा था।

दरवाजा खोल कर मैं अंदर गई। सूना सूना सा घर मुझे डरा रहा था।

मां की कमरे में मां की तस्वीर, पापा की कमरे में पापा की फोटो।

तीनों भैया का कमरा वैसे ही खाली… बाहर निकल कर ताऊजी और चाचा के घर में पहुंची वहां भी बड़े-बड़े ताले लटके हुए थे।

 मोबाइल निकाल कर मैंने ताऊजी और चाचा के बेटों से बात किया। सब की एक ही बात थी अब इस घर को बेच देना है।

उन्होंने कहा 

“मानवी ,हम सब मिलकर एक साथ पूरे घर को बेच रहे हैं। बस कल पहुंच रहे हैं। तब तक तुम तकलीफ झेल ले।”

“भैया, मुझे यहां कोई तकलीफ नहीं!” मेरा स्वर भर्रा गया।

दूसरे दिन, मेरे चचेरे ,अपने भाई सब घर पहुंच गए।

घर खरीदने वाले खरीदार भी धीरे-धीरे आ गए और घर बिक गया।

 एक ठंडी से आह मेरे अंदर से निकली।

“अच्छा ही हुआ यह घर बिक गया। बहुत ही भूतिया कोठी थी।यह घर ,यहां का आंगन,यहां की यादें सब बस डराती रहतीं थीं।

भैया, बस इन डरावनी यादों से बाहर निकलना जरूरी था…!”

बाहर बारिश हो रही थी और सामने खड़ा बरगद भी रो रहा था…मेरी तरह…!!!

न घर रहा न आंगन…सबकुछ खत्म हो गया…!!!

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सीमा प्रियदर्शिनी सहाय

©®

#घर आंगन

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