भैरवी (भाग 1 ) – अंशु श्री सक्सेना : Moral Stories in Hindi

कमरे में पंखा फुलस्पीड पर चल रहा था. लखनऊ में वैसे भी अप्रैल आते आते अच्छी ख़ासी गर्मी पड़ने लगती है.

मेज़ पर रखी “मिस भैरवी सिंह, ज़िलाधिकारी” की नेमप्लेट के नीचे दबे लिफ़ाफ़े से झाँकते फड़फड़ाते गुलाबी काग़ज़ पर भैरवी की नज़रें टिकी थीं. कागज़ पर लिखे सुनहरे रंग के शब्द दूर से ही चमक रहे थे,

“सुप्रसिद्ध लोक गायक ‘श्री मल्हार वेद’ के सुरों से सजी संध्या में आप सादर आमंत्रित हैं”

‘मल्हार’ यह नाम पढ़ते ही भैरवी का दिल डूबने सा लगा. उसने अपनी कुर्सी की पीठ पर सिर टिका कर आँखें बंद कर लीं. पलकों के पीछे एक जाना पहचाना सा दृश्य उभरने लगा. दूर दूर तक फैला गंगा का कछार और किनारे बसा प्रयाग के नज़दीक ही कहीं छोटा सा उसका गाँव. मल्हार….यही तो नाम था उसका, नौ दस बरस का लड़का आकर ज़ोर से भैरवी के कंधों पर धौल जमाता और उसके कानों में चिल्लाता “धप्पा”

भैरवी ने अचकचाकर आँखें खोल दीं, सामने उसकी सेक्रेटरी मोहना खड़ी थी.

“मैडम, आपका कल के लिए शेडू्यूल बनाना था…कल सुबह आपकी मंत्री महोदय के साथ मीटिंग है, फिर दोपहर में एक आर्ट गैलरी के उद्घाटन में जाना है और फिर कल शाम सात बजे से फ़ोक सिंगर मल्हार के कार्यक्रम में आप आमन्त्रित हैं…आयोजकों ने डिनर के लिए भी रिक्वेस्ट की है, क्या कह दूँ मैडम उनसे?”

“ठीक है मोहना…हम कार्यक्रम में तो जाएँगे परन्तु डिनर तक रुकेंगे या नहीं यह मैं बाद में देख लूँगी”

भैरवी ने अनमने ढंग से कहा.

“चल न…तेरे बाग़ से आम की कच्ची कैरियाँ तोड़ें”

पैंतीस साल पुराना समय और फिर वही नौ दस बरस का लड़का सामने आ खड़ा हुआ.

“मैं नहीं खाती कच्ची कैरियाँ, माँ कहती है कच्ची कैरियाँ खाने से गला ख़राब हो जाता है और बता…मेरा गला ख़राब हो गया तो? मैं गाना कैसे गाऊँगी?”

सात आठ साल की नन्हीं भैरवी तुनक कर जवाब देती.

“तेरी माँ को कैसे पता? क्या वो भी गाना गाती हैं?”

वह उत्सुकता से पूछता.

“गाती है न…पर पापा से छुप कर, जब पापा दूसरे गाँवों के दौरे पर जाते हैं तब…पता है मेरी माँ बहुत सुरीला गाती है, कोयल की तरह”

भैरवी हाथ और आँखें नचा नचा कर उत्तर देती.

“तुझे भी गाना पसंद है न?”

वह पूछता.

“हाँ, बहोत…माँ कहती है कि मेरी तो साँसों में भी लय है, मेरी बातों में राग और मेरी आवाज़ में संगीत, इसीलिए तो उन्होंने मेरा नाम भैरवी रखा है, तुझे तो गाने के बारे में सब बातें पता होंगी, तेरे पिताजी तो गायक हैं न?”

भैरवी की प्रश्नसूचक निगाहें मल्हार के चेहरे पर टिक जातीं.

“हाँ, मेरे तो ख़ानदान में सभी को संगीत से बहुत लगाव है, मेरे पिताजी और बड़े चाचा चैती, फाग, कजरी जैसे लोकगीत गाते हैं, माँ तानपुरा बजाती हैं और छोटे चाचा पखावज बजाते हैं”

 

वह बताता तो भैरवी की आँखें आश्चर्य से फैल जातीं,

“बाप रे…इत्ते बड़े बड़े नाम…तुम कैसे याद रखते हो?”

फिर दोनों खिलखिला पड़ते और गंगा के कछार पर दौड़ लगाते, एक दूसरे पर रेत उछालते या कभी उसी रेत पर नन्हा सा घरौंदा बनाते. उस घरौंदे में एक कमरा संगीत के रियाज़ के लिए भी होता.

भैरवी के पिता ठाकुर बलदेव सिंह गाँव के ज़मींदार थे और सारे गाँव में उनका बहुत रुतबा था. घर में सात लोगों का परिवार साथ रहता था. बलदेव सिंह, उनकी पत्नी राजरानी, उनकी माँ श्यामा देवी तथा चार बच्चे, भैरवी, उसकी छोटी बहन सोनी, मँझला भाई राजू और छोटा दीपू.

भैरवी सबसे बड़ी होने के कारण अपनी उम्र से अधिक समझदार थी और माता पिता और दादी की सबसे अधिक लाडली भी.

माँ राजरानी ने भैरवी को मल्हार के पिता सोमेश्वर वेद जी के पास संगीत सीखने के लिए भेजना आरम्भ कर दिया था. थोड़ी ना-नुकुर के बाद बलदेव सिंह ने भी हामी भर दी थी क्योंकि राजरानी ने उन्हें यह समझाया था कि यदि भैरवी भजन वग़ैरह गाना सीख लेगी तो उसका विवाह करने में आसानी होगी.

अब सप्ताह में तीन दिन गाँव की पाठशाला से लौटकर भैरवी मल्हार के घर संगीत सीखने जाती. मल्हार की झोपड़ी के सामने बड़े से नीम के पेड़ के नीचे गोबर से लिपे पुते चबूतरे पर उनकी संगीत की पाठशाला लगती. मल्हार के पिता सोमेश्वर वेद वहीं छोटे छोटे बच्चों को संगीत की शिक्षा देते, सुर साधना सिखाते. एक बार उन्होंने भैरवी की माँ से कहा था,

“आपकी बिटिया के गले में तो सरस्वती माई का वास है, ठकुराइन…इसका संगीत का रियाज़ कभी मत छुड़वाइएगा, एक दिन यह संगीत की दुनिया का चमकता सितारा बनेगी”

समय पंख लगाकर उड़ रहा था. अब भैरवी बारह तेरह बरस की हो चली थी. राजरानी अक्सर उसे समझातीं,

“अब तू बड़ी हो रही है बिटिया, यह लड़कों के संग खेलना कूदना तुझे शोभा नहीं देता, पाठशाला से सीधे घर आया कर, थोड़ा चूल्हे चौके का काम भी सीख”

परन्तु भैरवी तो भैरवी थी, हवा में गूँजती स्वर लहरियों जैसी उन्मुक्त, गंगा नदी की लहरों जैसी उच्शृंखल. उसका मन कभी अपनी कोठी में लगता ही नहीं था. बस पलक झपकते ही उड़न छू हो जाती, फिर तो वह आम के बग़ीचे में दिखती या नीम के नीचे निंबोरियाँ बीनती दिखती या गंगा के कछार में गीली रेत पर घरौंदा बनाते हुए.

वह एक गर्मी की दुपहरी थी. आम के बग़ीचे में मल्हार ने हमेशा की तरह भैरवी की पीठ पर धौल जमाते हुए कहा,

“धप्पा” और फिर अचानक ही उसने भैरवी के कंधे पर अपना चेहरा झुका दिया. भैरवी के सारे शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गई और साँसें धौंकनी सी चलने लगीं. वह तुरन्त भाग कर अपनी कोठी के भीतर चली गई. 

उस दिन के बाद भैरवी और मल्हार के बीच प्रेम के बीज से नवांकुर फूट कर पल्लवित होने लगा.

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भैरवी (भाग 2 ) – अंशु श्री सक्सेना : Moral Stories in Hindi

 

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