बेटियॉं बोझ नहीं होती – गणेश पुरोहित

“दोनो की विचारों की श्रृंखला यकायक टूटी, क्योंकि एयर हॉस्टेट उनकी सीट के समीप ट्राली ले कर आई थी और टी-कॉफी सर्व करते हुए आवाज़ लगा रही थी।“ टू कप टी प्लीज !” नीरा ने एयर हॉस्टेट की और देखते हुए आर्ड़र दिया। 

     “क्या सोच रहे थे, शिखर..?”…नीरा ने चाय की चुस्की भरते हुए प्रश्न किया। 

     “कुछ नहीं, यूं ही रिलेक्श हो कर बैठा था। ….दरअसल, आज मैं अपने आपको बहुत थका-थका महसूस कर रहा था।” 

     “ नये शहर के नये मकान में तसल्ली से सो जाना….थकान मिट जायेगी।” नीरा ने उसे छेड़ते हुए कहा। 

     “ क्या करें….शादी के बंधनो में बंधे होते तो काम का बंटवारा हो जाता।” शिखर ने उसके ही अंदाज में जवाब दिया। 




     “ इस विषय में ज्यादा चिंतित होने की जरुरत नहीं हैं… होने वाली बीवी उसी अपार्टमेंट के अलग फ्लेट में अकेली रहेगी…जब कभी हुजूर को मदद की जरुरत होगी, बंदी हाजिर हो जायेगी….वैसे भी एक वर्ष की 

सीमा रेखा आपने खींची है…चाहो तो अवधि घटा सकते हो।” 

     “मेहरबानी के लिए शुक्रिया !……एक वर्ष ज्यादा नहीं होता है, समय ऐसे ही फुर्र से उड़ जायेगा।…तब तक आप अपने घर में और मैं मेरे घर में रहेंगे, फिर हम दोनो अपने घर में रहेंगे। अभी हमने जो घर लिए हैं, वे छोटे हैं, पर पूरे फर्निशड़ हैं। पास में ही एक बिल्ड़ नये घर बना रहा है, उसमे मैंने हमारा घर बुक करा लिया है, जो एक साल के भीतर मिल जायेगा। उस घर को हम अच्छी तरह सजायेंगे- सवारेंगे। तुम्हारे सहयोग से उसे पूरा फर्निशड़ करेंगे और शादी के बाद उसी घर में गृहप्रवेश करेंगे।” 

     उसकी बात सुन कर नीरा चौंक गई । “ इतना बड़ा निर्णय मेरे पूछे बिना ही ले लिया.”…उसने आश्चर्य व्यक्त करते हुए उससे प्रश्न किया। 

     “ सब कुछ अचानक ही हुआ, इसलिए तुम्हें बता नहीं पाया। मेरे एक मित्र ने वहां मकान बुक कराया है, उसने ही मुझे सजेस्ट किया और मैं मान गया, क्योंकि मुझे लोकेशन और घर दोनो अच्छे लगे थे। पर जानती हो, सबसे बड़ी बात क्या है….तुम्हारा ऑफिस वहां से आधा किलोमीटर ही दूर है।…..सम्भवत: इसीलिए मैंने निर्णय जल्दी लिया।”    




     नीरा सुनते ही खुशी से गदगद हो गई। वह उसकी और थोड़ी देर यू ही देखती रही। इच्छा हो रही थी-उसके कंधे पर सिर टिका दें और नि:श्वास भर कर कहे-तुम सचमुच बहुत प्यारे इंसान हो, शिखर ! मैं स्वयं अपने भाग्य से ईष्या करने लगी हूं। पर नहीं कह पाई। उसकी आंखें यकायक भर आई थी। उसने आंखें झुका ली। आंखों की कोर से एक आंसू की बूंद निकल कर गाल पर लुढ़क गई। वह समझ नहीं पाई कि यकायक उसकी आंखें क्यों भर आई। पर यह शिखर है बड़ा निष्ठुर, ख्वामख्वाह एक साल के लिए तड़फा रहा है। जब इतना कुछ हो जाता है, तब दूर रहना अखरता है। पर एक बात सुकून दे रही है कि दोनो साथ-साथ रहेंगे, घर अलग-अलग होंगे, पर दोनो के बीच दूरीयां कम होगी।

     उसकी स्मृति पटल पर मम्मी-पापा का एक वार्तालाप उभरा। मम्मी कह रही थी- क्यों लड़की को बाहर पढ़ने भेज रहे हो ? जानते नही, जमाना कितना खराब है। लड़किया घर में, मोहल्ले में और अपने शहर में सुरक्षित नहीं है, फिर पराये शहर में बिना मां-बाप के साये के कैसे रहेगी ? मेरा मन नहीं कर रहा है… इसे इंजीनियरिंग के बजाय बीएससी करवा लीजिये…कम से कम लड़की निगाहों में तो रहेगी। वैसे भी ज्यादा पढ़ा लेंगे तो इतना पढ़ा लिखा लड़का कहां से लायेंगे ? तब पापा ने मम्मी को झिड़कते हुए कहा था-जमाना खराब है यह मान कर यदि सभी लड़की का भाग्य मां-बाप अपनी मुट्ठी में बंद करके रखेंगे तो कोई भी बेटी जमाने की रफ्तार के साथ दौड़ नहीं पायेगी। हम उसे पैसे के बल पर जबरन पढ़ने के लिए बड़े शहर में थोड़े ही भेज रहे हैं, वरन उसमें काबलियत हैं, इसलिए भेज रहे हैं। जब बीटेक फाइनल में उसका अच्छी कम्पनी में प्लेसमेंट हो गया तो मां क्रोध से बिफरते हुए बोली-मुझे नहीं भेजना बेटी को महानगर में नौकरी करने…बेटी कमा कर लायेगी और हम खायेंगे, ऐसे संस्कार नहीं हैं हमारे।…. आपने पढ़ाई करवा दी, अब शादी करवा दो।…. सामने वाला चाहेगा तो उसे नौकरी करायेगा… हम क्यों करवायें ? जवाब में पापा बोले, हम उसे नौकरी इसलिए नहीं करवा रहें कि उसकी कमाई खाना चाहते हैं। हम नौकरी इसलिए करवा रहे हैं, क्योंकि उसका सुनहरा भविष्य सामने खड़ा है और हम जानबूझ कर उसे अंधेरे कमरे में बंद कर रहे हैं। लड़की जात है, इसका मतलब यह नहीं होता कि उसके आगे बढ़ने और उज्जवल भविष्य बनाने का अधिकार नहीं है। तुम्हें मालूम है पैंतिस वर्ष से नौकरी कर रहा हूं, पर मेरी सेलेरी मेरी बेटी की पहली सेलेरी से कम है।  पापा की जिद के आगे अंतत: मां को झुकना पड़ा और सीने पर पत्थर रख कर उसने दुखी मन से बेटी को नौकरी करने की अनुमति दे दी। 

     दो साल से वह घर से दूर बड़े शहर में नौकरी कर रही है। घर वालों को उसकी योग्यता के अनुसार वर ढूंढ़ने में पसीना रहा है। जहां भी पापा बात करते हैं, उसकी नौकरी अवरोध खड़ा कर देती है। चाहे हम अपने आपको कितना ही आधुनिक और प्रगतिशील मान ले, परन्तु मध्यमवर्गीय परिवार की लड़कियां अब भी मां-बाप पर बोझ ही बनी हुई है। पापा की मन:स्थिति भी मम्मी की तरह होती तो उसकी सारी महत्वकांक्षाएं दब कर रह जाती और वह किसी परिवार की बहू बन कर कम्पयूटर पर उंगलियां चलाने के बजाय किचन में रोटियां बेल रही होती। उसने एक बार फिर जी भर कर शिखर को देखा। सचमुच शिखर ने उसके माता-पिता के साथ-साथ उसका भी टेंशन दूर कर दिया था। उसकी दृष्टि में प्रेम के साथ-साथ कृतज्ञता भी थी, जिसे महसूस कर शिखर मुस्करा रहा था।

स्वरचित  मौलिक रचना  

गणेश पुरोहित    

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