बेसहारा – रश्मि स्थापक

“अरे! भानू… यह वही हाथ-गाड़ी है न जिसमें जगन को ले जाते थे तुम …।” मोहल्ले की सोसाइटी के अध्यक्ष नरेश ने पूछा।

“हाँ साब…अस्सी से ऊपर के हो गए थे चाचा… दिखता बिल्कुल नहीं था उन्हें इसीलिए मैंने खुद ये गाड़ी उनके लिए बनाई थी…  उन्होंनें काम करना कभी नही छोड़ा … मैं उन्हें ले जाकर कारखाने पर छोड़ देता था.. जहाँ वह कुर्सी बुनते थे… और वहीं दूसरे कारखाने में मेरा फर्नीचर का काम है। शाम को हम वापस आ जाते थे… साब हमेशा इज्ज़त की रोटी खाई हम दोनों ने।”

” वही तो… पूरे मोहल्ले में तुम दोनों के नाम की बहुत तारीफ है… जगन के बाद बिल्कुल अकेले रह गए हो तुम… सोसाइटी की तरफ से ही आया हूँ … किसी चीज़ की जरूरत हो तो बताओ।”

” अरे … आप कमरे में तो आइए… ।”

झोपड़ी की जगह धीरे-धीरे करके उन लोगों ने एक पक्का कमरा बनवा लिया था।

नरेश ने कमरे में कदम रखा… साफ सुथरा कमरा…जिसमें मूलभूत ज़रूरत की वस्तुओं के अलावा कुछ न था।

“आप ही देखिए साब… क्या नहीं है हमारे घर में?”


नरेश उसकी संतुष्टि को देखकर दंग रह गया।

“अब ये हाथ गाड़ी बेच दो… दो ढाई हजार रुपए आ जाएँगे।”

” ये तो जगन चाचा की निशानी है… इसे तो बेचने की सोच भी नहीं सकता

उनकी यादें हैं इसमें साब… रोज इसी गाड़ी को सर झुका कर निकलता हूँ घर से।”

” ओ..हो…ठीक है।”

कुछ देर ख़ामोशी के बाद नरेश ने फिर समझाने के लहज़े में कहा,

“देखो मेरा मतलब है… अब अकेले हो तुम… और तुम भी साठ के ऊपर तो हो चले हो… तुम चाहो तो बेसहारा पेंशन का फार्म भरवा सकता हूँ तुम्हारा…।”

“अरे! साब… बेसहारा तो कभी कहना ही मत… नहीं तो वह बुरा मान जाएगा।”

” वह… कौन?”

” ऊपरवाला ….साब ऊपरवाले ने कभी बेसहारा नहीं रहने दिया… कदम कदम पर सहारा दिया। तभी तो झोपड़ी से पक्का कमरा बनवा लिया।उसने अकेला नहीं छोड़ा … खुद को बेसहारा कह कर मुझे उसका अपमान नहीं करना है साब।”

और उसने कृतज्ञता से हाथ जोड़ लिए।

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