बेरोजगारी – माता प्रसाद दुबे

बेकारी की दौड़ में जीत हासिल करना आसान नहीं होता। ना जाने कितने लोगों का पूरा जीवन इस दौड़ को पूरा करने में समाप्त हो जाता है।

रविवार का दिन था,रेलवे स्टेशन की बेंच पर बैठा हुआ प्रकाश हजारों की संख्या में रेलवे की भर्ती की परीक्षा देने आए नौजवानों की भीड़ देखकर वह चिंता में डूब गया था।

अभी दो दिन पहले ही वह बनारस में अपने मामा के घर आया था। दो दिन तक काशी के मंदिरों के दर्शन के उपरांत आज उसे वापस अपने घर लखनऊ जाना था।

उसके पिता की असमय मृत्यु के कारण उसकी मां पिछले दस वर्षों से उसके पिता की छोटी सी किराने की दुकान चलाती थी। जिसने कठिन परिश्रम करके उसे व उसकी छोटी बहन पूजा को पाल-पोस कर बड़ा किया था। और उन्हें अच्छी शिक्षा देने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था।

वाराणसी रेलवे स्टेशन परीक्षार्थियों से खचाखच भरा हुआ था। कहीं भी तिल रखने की जगह नहीं बची थी। जिसे देखकर ऐसा महसूस हो रहा था, कि किसी राजनीतिक दल की रैली का आयोजन स्टेशन परिसर में ही किया जा रहा है।

प्रकाश बार-बार अपनी कलाई पर बंधी घड़ी की ओर देख रहा था।बेचैनी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। प्लेटफार्म पर लगे लाउडस्पीकर में ट्रेन आने की सूचना प्रसारित हो रही थी। प्रकाश ध्यान से सुन रहा था,हावड़ा से चलकर लखनऊ होकर दिल्ली जाने वाली ट्रेन प्लेटफार्म पर पहुंचने वाली थी।

इंतजार की घड़ियां खत्म हो चुकी थी, ट्रेन प्लेटफॉर्म पर पहुंच चुकी थी। ट्रेन रुक चुकी थी, प्रकाश अपना बैग लेकर तेजी से ट्रेन के दरवाजे की ओर बढ़ने लगा। “अरे हटो निकलने दो” डिब्बे के अंदर के यात्री चिल्लाते हुए नीचे की ओर आने की कोशिश कर रहे थे। कुछ अपने सामान के साथ बीच में फंसे हुए गिड़गिड़ा रहे थे। उनकी गुहार सुनने वाला वहां कोई नहीं था। दोनों तरफ के दरवाजों से भीड़ अंदर घुसने लगी, छोटे बच्चे चीख-चीख कर रोने लगे,भीड़ में फंसी महिलाओं से छेड़छाड़ करते हुए कुछ नौजवान पढ़े-लिखे होकर गंवारो जैसी हरकत कर रहे थे।


प्रकाश अपनी पूरी ताकत लगाकर ट्रेन के दरवाजे की राड पकड़कर अंदर की ओर खिसकने लगा,उसके पीछे एक अधेड़ महिला अपने दस वर्ष के लड़के को साथ लिए भीड़ में दबी जा रही थी। अचानक भीड़ उत्तेजित होने लगी, वह महिला भीड़ के धक्के से खुद को संभाल ना सकी उसका बाया पैर प्लेटफार्म और ट्रेन के बीच में सरक गया,”हे भगवान मर गई,कोई बचाओ” महिला चीखने लगी,प्रकाश एक झटके से पीछे की ओर पलटा,वह महिला उसकी कमर पकड़े लटक रही थी। भीड़ में दबा उसका लड़का “मम्मी मम्मी” चिल्ला रहा था। “आंटी आप घबराएं नहीं हाथ मत छोड़िएगा” प्रकाश चीखते हुए बोला। पीछे से धकेल रहे नवयुवक के सिर पर जोरदार धक्का देते हुए प्रकाश चीखते हुए बोला।”रुक जाओ नहीं तो ठीक नहीं होगा” वह गुस्से से लाल हो रहा था। अपनी जान की परवाह न करते हुए प्रकाश ने उस महिला को खींच कर बाहर निकाल लिया, भीड़ से उसके लड़के को खींचते हुए प्रकाश भीड़ से बाहर आ गया। उसकी शर्ट के बटन टूट कर बिखर गए,बाल उलझ गए, उसने पलट कर डिब्बे की ओर देखा,दोबारा अंदर जाने की कोशिश करना उसे एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ने जैसा महसूस हो रहा था।

ट्रेन का सिग्नल डाउन हो चुका था, वह धीरे-धीरे सरकते हुए प्रकाश की आंखों से ओझल हो चुकी थी। प्रकाश उसी बेंच पर जाकर चुपचाप बैठ गया,वह अधेड़ महिला प्रकाश के पास आकर उसे दुआएं दे रही थी, उसकी आंखों से आंसू टपक रहे थे। उस महिला की मदद करने में प्रकाश को ट्रेन छूट जाने का कोई अफसोस नहीं था। चलते वक्त उसे मामाजी के कहे शब्द अच्छी तरह याद थे, उसे कोई खतरा मोल नहीं लेना था,वह अपनी मां का एकमात्र जीने का सहारा था। इस बात से वह भली भांति परिचित था। पांच घंटे बीत चुके थे प्रकाश बेंच पर लेटा झपकियां ले रहा था। ट्रेन के आने की सूचना सुनते ही उसका चेहरा चमक उठा,वह बेंच से उठकर प्लेटफार्म पर टहलने लगा,ट्रेन प्लेटफॉर्म पर पहुंच चुकी थी। भीड़ पहले से कुछ कम थी, डिब्बे के अंदर पहुंचते ही प्रकाश विचलित होने लगा,सभी सीटों पर लोग बैठे हुए थे। कुछ नीचे की फर्श पर फैले हुए नजर आ रहे थे। “बेकारो के लिए नौकरी में जगह नहीं, ट्रेन में बैठने की जगह नहीं,हर जगह इसी जगह की लड़ाई है” प्रकाश बड़बड़ा रहा था। तभी एक सीट पर प्रकाश की नजर पड़ी जिस पर सिर्फ दो लोग बैठे थे। एक सत्ताइस अट्ठाइस वर्ष की युवती उस पर लेटी हुई थी। एक व्यक्ति उसके पास बैठा था। प्रकाश ने उस युवती से कहा” बहन जी जरा उठ कर बैठ जाइए” वह युवती अपनी आंख बंद करके लेटी रही,जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं “सुन भाई आगे बैठ जा,इनकी तबीयत खराब है” युवती के पास बैठा व्यक्ति बोला। “आगे जगह नहीं है,आप थोड़ी सी जगह दे दीजिए” प्रकाश बोला।” जगह नहीं है यहां” वह व्यक्ति बोला। “कैसे जगह नहीं है “प्रकाश उस युवती का पैर खिसकाते हुए बैठ गया।”अरे तुम्हें समझ में नहीं आ रहा है” वह व्यक्ति बोला।” नहीं समझ आ रहा है,बताओ क्या करोगे” प्रकाश गुस्साते हुए बोला।

“रहने दीजिए बैठ जाने दीजिए मुझे दिक्कत नहीं है” वह युवती लेटे-लेटे बोली। प्रकाश ने चैन की सांस ली, ट्रेन चल चुकी थी प्रकाश बैठे-बैठे थकान होने के कारण झपकियां ले रहा था।


ट्रेन जौनपुर स्टेशन पर पहुंचकर रुक चुकी थी। ट्रेन के अंदर परीक्षार्थियों का मेला प्रवेश कर रहा था। सैकड़ों लोग डिब्बे के अंदर पहुंच चुके थे।” अरे उठो इस सीट पर तीन लोग बैठे हैं” सामने छह सात लड़के उस युवती को उठाने लगे।” यह नहीं उठेगी” वह व्यक्ति बोला। “कैसे नहीं उठेगी” कहते हुए वे लोग उस युवती को उठा कर बैठ गए।” गुंडागर्दी कर रहे हो तुम लोग” वह व्यक्ति गालियां बकने लगा। कुछ ही देर में मामला बढ़ गया, आठ दस लड़के युवती के साथ बैठे व्यक्ति की पिटाई करने लगे। “अरे छोड़ दो,मत मारो” वह युवती चिल्ला-चिल्ला कर मदद मांग रही थी।”अरे रुक जाओ भाई, जो बैठ सकता है बैठ जाओ” प्रकाश मारपीट कर रहे लड़कों से बोला। कुछ देर में सब शांत हो चुका था।

सुबह के सात बज रहे थे। ट्रेन लखनऊ पहुंच रही थी। प्रकाश ट्रेन से निकलकर अपने घर पहुंच चुका था। उसे देखते ही उसकी बहन पूजा चिल्लाने लगी।” मम्मी-मम्मी भैया आ गए” प्रकाश के हाथ पांव फूल चुके थे। वह चुपचाप बिस्तर पर जाकर लेट गया। प्रकाश शाम तक सोता रहा,”अरे प्रकाश उठो बेटा, क्या हुआ” प्रकाश की मां बोली। कुछ नहीं मां बस थकान थी इसलिए सो गया था।” ठीक है बेटा मैं दुकान जा रही हूं,तू आराम कर” कह कर उसकी मां जाने लगी।” रुको मम्मी” प्रकाश बोला।”क्या हुआ बेटा” प्रकाश की मां बोली। “मां तुम घर पर रहो,अब दुकान पर मैं ही बैठूंगा” प्रकाश बोला। “तुझे तो दुकान में बैठना पसंद नहीं था, क्या हुआ” प्रकाश की मां बोली। “कुछ नहीं मम्मी,अब मैं दुकान पर बैठकर तुम्हारी मदद करूंगा” वह उठकर तैयार होने लगा। प्रकाश की मां अपने बेटे को हैरान होकर देख रही थी। प्रकाश यह जान चुका था,कि वर्तमान समय में बेरोजगारी का कोई अंत नही है। नौकरी मिलना कुएं में सुई खोजने जैसा है। जिसका आज उसे एहसास हो चुका था।

माता प्रसाद दुबे

मौलिक एवं स्वरचित

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