बन्धन (भाग 4)- नीलम सौरभ

मेरे बाबूजी ने तुरन्त उसे डाँटते हुए कहा था, “ख़बरदार जो ऐसी मनहूस बात मुँह से निकाली तो! अरे हम मर गये हैं क्या..जो तू जहर खाएगी, मासूम बच्चियों को जहर खिलाएगी? वो तो बिटिया, मैं इसलिए पूछ रहा था कि अभी तेरी उम्र ही क्या हुई है, तेरे कितने अरमान होंगे, कितने सपने होंगे। ललित के यूँ चले जाने के बाद क्या ऐसे ही…!”

लीला ने तुरन्त बाबूजी का हाथ पकड़ अपने सर पर रख उनकी बात काट दी थी, “मेरे हर सपने अब आप लोगों से हैं बब्बाजी, आप ही हम अभागिनों का सहारा हैं। …बस मुझे डर लग रहा है कि कहीं मैं और मेरी बच्चियाँ आप लोगों पर बोझ…!”


“अरे पगली, तू तो पिछले किसी जनम की हमारी माँ है रे!..अब इस जीवन में तुम लोगों के बिना जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं हम!” बाबूजी उसे और बच्चियों को अंक में समेट खुद भी रो पड़े थे।

अपने मन को मजबूत करके थोड़े दिनों में लीला फिर से सामान्य हो चली थी या फिर नन्हीं बेटियों और हम लोगों को ख़ुश देखने की खातिर खुद भी ख़ुश रहने का दिखावा करने लगी थी। जीवन एक बार फिर से निश्चित ढर्रे पर चल पड़ा था।

कुछ समय बाद एक दिन लीला मुझसे कहने लगी थी, “बाऊजी, मैं कुछ करना चाहती हूँ…मतलब कुछ काम-धंधा, रोजगार ..कि समय भी कट जाये और बेटियों के भविष्य के लिए भी कुछ…!”

“इतना काम तो करती ही हो, अपने घर का, बच्चियों का…हमारा इतना बड़ा घर सँभालती हो..थक नहीं जाती? और बच्चियों के भविष्य की चिन्ता क्यों करती हो? हमने उनके लिए बड़ी रकम एफडी कर रखी है, उनकी ऊँचे दर्जे की पढ़ाई या फिर उनके शादी-ब्याह के काम में कोई आर्थिक रुकावट नहीं आयेगी कभी!”

“बाऊजी, आप लोग फैक्ट्री चले जाते हैं..बच्चियाँ स्कूल। …फिर पूरा घर मुझे काटने दौड़ता है। ‘क्या करूँ, क्या न करूँ’ की उधेड़-बुन में सर दुखने लगता है। फालतू की पुरानी बातें दिमाग में आती रहती हैं, कई बार लगता है कि काश बीते समय को वापस मोड़ पाती तो जो गलती की थी ललित के भरोसे घर से पाँव बाहर निकालने की…उसे सुधार लेती..!”

लीला की आवाज़ भर्रा गयी थी लेकिन वह रुकी नहीं, बोलती चली गयी।

“…घर से बेटी भाग गयी है, आन जात के छोरे के संग, पता चलते ही..मेरी माई बहुत रोयी होगी बाऊजी। मेरा बापू भी दिल ही दिल में रोया होगा। उसने मार-मार के माँ के पीठ की चमड़ी उधेड़ दी होगी दुःख, बेइज्जती और गुस्से के मारे, कि बेटी को सँभाल कर रख नहीं सकी। …और कितनी भारी विडम्बना कि जिसके लिए इतना सब कुछ मोल लिया…अपने और अपने परिवार के माथे पर कलंक लगाया…वह ऐसा नपुंसक निकला, बीच मझधार में दो-दो नादान बच्चियों के साथ अकेली छोड़ गया।”

उसकी आवाज़ सिसकियों में बदल गयी थी और मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे उसे सांत्वना दूँ, तभी मेरे बाबूजी सामने आ खड़े हुए थे। वे हमारी सारी बातें सुन चुके थे। आगे बढ़ कर वे पिछले आँगन में बिछी चौकी पर बैठ गये थे। फिर उन्होंने लीला और मुझे अपने सामने बैठने का इशारा किया और बोलने लगे।

“मैंने इंजीनियर से बात कर ली है और एक कॉन्ट्रैक्टर से भी…नक्शा पास हो चुका है और पूरा ख़ाका भी तैयार है। कल से फैक्ट्री के बगल में खाली पड़े अपने प्लॉट पर काम शुरू हो जायेगा। तुम लोगों को सरप्राइज़ देना चाहता था लेकिन…चलो छोड़ो!”

“उस प्लॉट पर क्या बनने वाला है बब्बा जी!” भोली लीला सब कुछ भूल कर आतुरता से पूछ रही थी।

“उस पर बनेगी लीला की रसोई, यानी कि एक बढ़िया कैन्टीन!..अभी तक खाली हम लोगों को स्नेह से खिलाती रही है, अब तुझे बहुतों की अम्माँ बनना है लीला।”

“मुझे तो अभी भी कुछ समझ में नहीं आ रहा है…कैंटीन?..मैं कैसे..?” बेचारी मेरे बाबूजी के इस सरप्राइज़ से हतप्रभ रह गयी थी।

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 बन्धन (भाग 3)

 बन्धन (भाग 3)- नीलम सौरभ

(स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित)

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

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