“मैं समझाता हूँ न मेरी माँ तुझे! …देख, हमारी फैक्ट्री में काम करने वाले बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो बाहर से यहाँ मेहनत करने आये हैं, परिवार साथ नहीं है और या तो ख़ुद किसी तरह से खाना बना कर खाते हैं या फिर होटल या ढाबों में…और इन सबको अपने घर के, अपनी माँ के हाथ के खाने की बहुत याद सताती है। इन सबके लिए हम खोल रहे हैं एक बड़ी सी रसोई यानी कि कैंटीन…जिसकी मालकिन होगी हमारी लीला। सारी व्यवस्था हो जायेगी, बस तुमको ख़ूब मेहनत करनी है और घबरा कर पीठ नहीं दिखाना है!”
बाबूजी जब उसके सर पर हाथ रख कर बोल रहे थे, मैं देख रहा था, लीला के चेहरे पर एक चमक सी आ गयी थी। आत्मविश्वास की, नयी पहल की, अँधेरों से आगे निकलने के लिए पहले कदम की।
“और यह देखो, ‘घर जैसा भोजन, माँ के हाथ का खाना यहाँ मिलता है’, यह साइनबोर्ड तो बन कर तैयार भी हो चुका है।” बाबूजी ने वहीं एक कोने में रखे एक बोर्ड पर से जब कपड़ा उठाते हुए कहा, देख कर लीला के साथ भावनाओं के ज्वार से मेरी भी आँखें नम हो आयी थीं।
“बब्बा जी’ इस बोर्ड पर सबसे ऊपर बड़े-बड़े अक्षरों में ‘अम्माँ की थाली’ भी लिखवा दीजिएगा न!” जैसे एक साथ सैकड़ों गुलाब खिल उठे थे और चटकीली धूप चारों ओर फैल गयी थी एकाएक। लीला की उदास आँखें नयी आशाओं से रौशन हो चली थीं।
और वह दिन है और आज का दिन, लीला ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अपने परिश्रम, लगन और मन में भरी हर क्षुधित के लिए अथाह ममता के बल पर उसने उस छोटे से कदम को बहुत बड़े उपक्रम में बदल डाला है। आज हमारे शहर में बहुत बड़ा नाम है ‘अम्माँ की थाली’ यानी कि एक बड़ा रेस्टोरेंट जिसकी मालकिन है हमारी लीला, जो माँ के हाथ का खाना ढूँढ़ने वालों को उचित मूल्य पर, सही समय पर, साफ-सुथरा, स्वास्थयकर और स्वादिष्ट भोजन तो परोसती ही है, साथ ही उसने पचासों लोगों को आजीविका का साधन भी दे दिया है। बेसहारा लेकिन मेहनती लोगों को चुन-चुन कर, सही प्रशिक्षण देकर उसने रेस्टोरेंट में असली हीरों की फौज खड़ी कर ली है। रसोईये, बैरे और सहायकों के साथ कई डिलीवरी-बॉयज़ को भी उसने नौकरी उपलब्ध करवा दी है जो इस बड़े शहर में गरीब घरों से ऊँची शिक्षा के उद्देश्य से आये हैं। निःशुल्क भोजन के साथ वेतन की व्यवस्था है उन सबके लिए।
और हाँ, इसी बीच एक बार बीते दिनों का एक स्याह साया फिर से लौट कर आया था हमारे पास। बिखरे बाल, बढ़ी दाढ़ी और गन्दे कपड़ों में ललित वापस आया था। दर-ब-दर हो चुका था फिर से। पछताता हुआ सर झुकाये अपनी आपबीती बता रहा था। उस तितली रीमा को जब एक अमीर प्रेमी मिल गया था, उसने ललित जैसी कमजोर पार्टी को लात मार दी थी और उसे वहाँ की नौकरी से भी निकलवा दिया था।
ललित ने लाख हाथ-पैर जोड़े, कितनी ही दुहाइयाँ दीं, दोबारा गलती न करने की कसमें खायीं, मगर लीला नहीं पिघली तो नहीं पिघली। उसने साफ कह दिया था तब,
“जो अग्नि को साक्षी मान विवाह बन्धन में बंधने के बाद, दो-दो बेटियों का पिता बनने के बाद भी मझधार में अकेली छोड़ कर भाग सकता है, उसका भरोसा इस जन्म में तो नहीं कर सकती। इतने बड़े धोखे के लिए पुलिस केस केवल इसलिए नहीं कर रही कि तुम्हारे इस ओछेपन ने ही मुझसे मेरी क्षमताओं की पहचान करवायी है।…अगर तुम हाथ छुड़ा कर भागे न होते तो दुनिया कहाँ जान पाती इस गाँव की गँवारन को। आज जो लैपटॉप लेकर सैकड़ों हाथों से इतना बड़ा उपक्रम चला रही हूँ न, सब तुम्हारी बदौलत है। पर हमारी जिंदगी में अब तुम्हारी कोई जगह नहीं है। हाँ अगर तुम्हारे पास अभी रोजी-रोटी न हो, खाने से भी लाचार हो, तो अम्माँ की थाली में दो वक्त का खाना जब तक चाहो, खा सकते हो। …पर इससे ज्यादा कुछ ना..!”
अपने कर्मों पर शर्मिन्दा ललित सिर झुकाये चला गया था फिर। न दोबारा लौटा, न लीला या बेटियों ने उस धोखेबाज को याद किया। और हमारे लिए हमारी लीला का फैसला ही सर्वोपरि था और है सदा।
आज सोचता हूँ, हमने तो केवल तेज हवाओं से लपलपाते एक दीये को बस अपने हाथों की ओट दी थी जो आज प्रकाशस्तंभ बन चुका है, अनगिनत लोगों को रौशनी लुटा रहा है और जिसने प्रतिदान में हमारा नाम, हमारा जीवन सब रौशन कर दिया है।
तालियों की गड़गड़ाहट से चौंक कर लौटा हूँ वापस वर्तमान में। हमारी लीला उस पुरस्कार को ग्रहण करने के लिए बाबूजी और मुझे मंच पर बुला रही है। अपने बाबूजी को गर्वोंन्नत ग्रीवा के साथ मंच की ओर बढ़ते और भीड़ के साथ कलेक्टर महोदय को भी उनके लिए करतल ध्वनि करते देख कर मुझे सब कुछ मिल गया है, सब कुछ। भावनाओं का अतिरेक मुझ पर आरूढ़ हो चला है। नयन सजल हो उठे हैं, गला भर आया है। बहुत कुछ कहना शेष रह गया…अब कुछ नहीं कह पाऊँगा मैं..कुछ भी नहीं!
_________________समाप्त_________________
बन्धन (भाग 4)
बन्धन (भाग 4)- नीलम सौरभ
(स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित)
नीलम सौरभ
रायपुर, छत्तीसगढ़
बहुत अच्छी व प्रेरणाप्रद कहानी।आपको साधुवाद।