बन्धन (भाग 3)- नीलम सौरभ

मेरे खुर्राट बाबूजी जिनके सामने मैं अपनी आधी उम्र पार कर चुकने के बाद भी ऊँची आवाज में बोल नहीं पाता था, फैक्ट्री के कर्मचारी और लेबर भी जिनके गुस्से से खौफ खाते थे, वे उस समय भीगी बिल्ली बन लीला की उस झिड़की को चुपचाप सुन रहे थे। तत्क्षण मुझे अपनी स्वर्गवासी अम्माँ याद आ गयी थीं। वे भी नियम-कायदों की पक्की होने के साथ बेहद सफाई पसन्द थीं। तेईस साल से ऊपर हो चुके उन्हें गये किन्तु मुझे अभी तक स्मरण है कि बाबूजी घर के बाहर चाहे जितने भी शेर हों, घर में अम्माँ की ही चलती थी और उनके रहते मजाल है जो कोई थोड़ी सी भी अव्यवस्था फैला सके। उनके जाने के बाद जब कोई डाँटने वाला न रहा, हम लोग सभी चीजों के प्रति उदासीन होते चले गये थे। चन्दू के आने से पहले तक खाना एक टिफिन सेंटर में खाते रहे थे।

फिर धीरे-धीरे कब 20-22 साल की लीला हम दोनों पिता-पुत्र की माँ बन कर हमें छोटे बच्चों की तरह सँभालने लगी, पता ही नहीं चला था। उसकी नाराजगी और डाँट-फटकार में भी हमें बेहद अपनापन महसूस होता।

थोड़े दिनों बाद ललित हमसे अनुमति लेकर हमारे एक बेहद रईस पड़ोसी मधुरम अय्यर और उनके भाई कृष्णन अय्यर की गाड़ियाँ भी चलाने लगा था।

3-4 साल बीतते न बीतते लीला की गोद में दो प्यारी-प्यारी बेटियाँ आ गयी थीं और वह मातृत्व की गरिमा से परिपूर्ण हम दोनों पिता-पुत्र के प्रति और अधिक ममतामयी हो गयी थी। समय से नाश्ता-खाना, दवाइयाँ या फिर व्यायाम आदि में कोताही करने पर पहले तो जी-भर फटकारती, फिर गुस्से से अबोला कर लेती। उसकी इस एक बात से हम बहुत डरते थे, क्योंकि उसके न बोलने से पूरी दुनिया उदास और सूनी लगने लगती थी।

और फिर एक दिन वह हुआ जो नहीं होना चाहिए था। लीला की खुशनुमा जिंदगी में गम के काले बादल ऐसे चुपचाप उमड़ आये कि हम में से कोई कुछ नहीं कर सका।

ललित को अय्यर परिवार में नयी-नयी काम पर लगी एक चंचल तितली रीमा पसन्द आ गयी थी जिसके भड़काने पर वह अपने घरवालों से रिश्ते टूटने का कारण अब लीला को मानने लगा था। फिर उसे एक के बाद एक, दो-दो बेटियाँ पैदा करने का दोषी करार करके उससे ख़ूब झगड़ने लगा था।

कुछ समय तक तो लीला ने किसी को कुछ नहीं बताया, अपने स्तर पर समस्या का समाधान करने की सोचती रही मगर जब पानी सर के ऊपर से गुजरने लगा, उसने बाबूजी के सामने रोते हुए सब कुछ कह दिया था।

बाबूजी ने मुझसे चर्चा की और अगले दिन जब मैंने ललित को फटकारते हुए कायदे से रहने और बीवी-बच्चों का ध्यान ठीक से रखने को कहा, वह सर झुकाये चुपचाप सुनता रहा। मुझे लगा कि इसे अपनी गलती का अंदाज़ा हो गया है, अब यह सुधर जायेगा। लेकिन नहीं, अगले दिन ललित हमें फैक्ट्री छोड़ कर आया और शाम को लेने नहीं गया। हम टैक्सी करके घर आये तो पता चला, ललित तो वापस लौटा ही नहीं।

बहुत पता करने पर भी उसका कोई पता-ठिकाना नहीं मिला। तीसरे-चौथे दिन जब मधुरम अय्यर हमसे ललित के बारे में पूछने आये और उन्होंने रीमा के भी तीन-चार दिनों से काम पर न आने की सूचना दी, कहानी बहुत हद तक साफ हो गयी थी। ये दोनों प्रेम के पंछी अलग नया घोंसला बनाने को फुर्र हो गये थे।

लीला और बच्चियों का रोना देख कर हमने अपने सूत्रों द्वारा उनके गाँव में भी ललित के बारे में खोजबीन करवायी। वह वहाँ भी नहीं पहुँचा था।

फिर एक दिन बाबूजी ने लीला से पूछा था, “अकेले छोटी-छोटी बच्चियों के साथ इस बड़े शहर में कैसे जीवन बिताएगी बेटी?…तेरे गाँव-घर में बात करें क्या कि तुझे वापस बुला लें?”

लीला दृढ़ता से बोली थी, “नहीं बब्बाजी, मेरे घरवालों ने तो मेरा पिण्डदान तक कर दिया होगा, हमारे गाँव-समाज की रीत के हिसाब से। अब उनके लिए मैं मर चुकी हूँ। हमारे उधर ऐसा ही होता है। अगर वापस गयी तो वे लोग मुझे जिन्दा नहीं छोड़ेंगे। मैं यहीं रहूँगी। इन लइकियों का बाप इनको छोड़, पीठ दिखा कर भाग गया है तो क्या हुआ, मैं..इनकी माँ तो सलामत हूँ न! इन्हें भरसक पालूँगी…और..और जिस दिन लगेगा, नहीं पाल सकती…बच्चियों के साथ जहर खा लूँगी।”

आखिरी शब्द बोलते हुए लीला सुबक पड़ी थी।

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 बन्धन (भाग 2)- नीलम सौरभ

 

(स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित)

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

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