बन्धन (भाग 2)- नीलम सौरभ

मैं उसकी जगह अपने जीवन में किसी को दे नहीं पाऊँगा, यह मुझे अच्छे से पता था अतः मैंने किसी की भी बेटी का जीवन न बिगाड़ते हुए कभी ब्याह न करने का निश्चय कर लिया था। अम्माँ-बाबूजी के लाख बोलने, समझाने, दबाव डालने के बाद भी इस मामले में मैंने चुप्पी साधे रखी। फिर जब अम्माँ भी चली गयीं, सब और बुरी तरह से पीछे पड़ गये थे पर मैं अपने निश्चय पर अड़ा रहा था।

एक समय के बाद थक कर बाबूजी और रिश्तेदारों ने बोलना छोड़ दिया था।

अब तो चन्दू ही पूरा घर सँभालता था, खाना भी बना कर खिलाया करता था। बाहर का भोजन यानी कि होटल आदि में खाना अब लम्बे समय से हमने छोड़ दिया था क्योंकि उससे दोनों पिता-पुत्र की तबीयत खराब हो जाती थी। चन्दू अच्छा-भला खाना बना लेता था और हमें खिलाने के बाद खुद भी हमारे पास ही खाता था। अपने घर के गरीबी-गुजारा वाले भोजन की तुलना में हमारे घर का बढ़िया खाना आखिर उसे भाता क्यों नहीं। हमें भी इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी। इसी बहाने वह अच्छा और साफ-सुथरा खाना तो बनाएगा, हमने सोच लिया था।

हाँ तो मैं बता रहा था कि जब लीला खुद को भी नौकरी में रख लेने को कहने लगी थी तो एकबारगी मुझे बड़ा अटपटा लगा था। जिस घर में किसी स्त्री का रहना तो क्या आना-जाना भी न हो, जहाँ अधिकतर समय तीन पुरुष ही अपने मस्तमौला अंदाज़ में रहते हों, वहाँ एक कमउम्र की नयी-नवेली ब्याहता को रखना मुझे सही नहीं लग रहा था लेकिन जैसे ही यह बात मेरे बाबूजी के कानों में पड़ी, उन्होंने बिना मुझसे कुछ कहे-सुने सीधे लीला से अगले दिन सुबह से काम पर आ जाने को कह दिया। वह सन्तुष्ट होकर अपने क्वार्टर की ओर चली गयी थी।

लीला के जाने के बाद जब मैं बाबूजी के सामने अपना प्रतिरोध जता रहा था कि क्या जरूरत थी, उसे काम में रखने की, चन्दन भी मेरे समर्थन में खड़ा था।

मेरे अनुभवी बाबूजी ने उत्तर दिया था,

“चन्दू अब से फैक्ट्री के काम देखा करेगा क्योंकि अब इसकी ब्याह की उमर हो गयी है, इसके लिए कोई लायक लड़की देखेंगे।…यहाँ रहते कहीं तुम्हारा रंग चढ़ गया तो ये भी ऐसे ही कँवारा रह जायेगा।

चन्दन जो घर से हटाये जाने की बात पर दुःखी था, ब्याह की बात पर एकदम से शरमा कर मुस्कुरा उठा था। अगले दिन से वह हमारी लोहे के कृषि उपकरण बनाने वाली फैक्ट्री में सारे दिन के छोटे-मोटे दौड़भाग वाले काम देखने लगा।

लीला अगली सुबह ललित के साथ ही काम पर आ गयी। ललित जहाँ हम पिता-पुत्र की दोनों कारों को अन्दर-बाहर से धो-पोंछ कर साफ करने में जुट गया था, लीला घर के भीतर कामों की शुरुआत करने जा रही थी। बाबूजी व मुझे जैसे ही ध्यान आया कि चन्दन तो ट्रेंड हो चुका था तो उसे कुछ बताने की जरूरत नहीं पड़ती थी कि क्या कैसे क्या करना है लेकिन लीला को तो अभी शुरू में समझाना पड़ेगा न, अतः हम दोनों घर की रसोई में पहुँचे। देखा लीला अपना सर पकड़े परेशान-सी खड़ी थी।

यूँ तो सारा घर ही वर्षों से स्त्री की अनुपस्थिति के कारण उथल-पुथल पड़ा हुआ था, लेकिन रसोई की हालत सबसे खराब थी। कहाँ तो मैं और बाबूजी उसे बोलने गये थे कि किसी चीज की जरूरत हो तो ललित से ही बोल कर मँगवा लेना, अब रसोई का बदला हुआ रूप और लीला की मुखमुद्रा देख कर अवाक् रह गये थे। दोनों ही अपने कल के रूप से कतई मेल नहीं खा रहे थे।

पूरी रसोई साफ-सुथरी होकर एकदम करीने से जमी हुई थी। देख कर लग ही नहीं रहा था कि यह वही जगह है और लीला जो कल सौम्यता और विनम्रता की मूर्ति लग रही थी, अभी रणचंडी का अवतार बनी हुई थी।

“बाऊजी और बब्बाजी, आप लोग उस पहले वाले छोकरे को कुछ बोलते नहीं थे क्या?…पूरी रंधनी उसने कूड़े का ढेर बना रखी है। सारे डब्बे गन्दे, सारे बर्तनों में कालिख जमी…दाल, अनाज और मसालों में कीड़े!…मकड़ियों और कॉकरोचों को पाल के रखा है क्या आप लोगों ने? पक्का रात के अँधेरे में यहाँ भूत-प्रेत आ जमते होंगे मीटिंग करने को!”

कल तक जो लीला मुझे ‘साहब जी’ और बाबूजी को ‘बड़े साहब जी’ कह रही थी, आज उसने अपने से सम्बोधन बदल कर मानों हमें एक बन्धन में बाँध लिया था। बड़ा विचित्र-सा किन्तु सुखद अनुभव था यह।

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 बन्धन (भाग 3)- नीलम सौरभ

 बन्धन (भाग 1)

 बन्धन (भाग 1)- नीलम सौरभ

(स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित)

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

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