बन्धन (भाग 1)- नीलम सौरभ

सम्मानित अतिथियों के लिए आरक्षित सबसे सामने की पंक्ति में बैठे मैं और बाबूजी आज फूले नहीं समा रहे हैं। आखिर हमारी लीला को आज पुरस्कार जो मिलने वाला है।

नवोदित उद्यमियों को प्रोत्साहित करने के लिए हमारे जिले के माननीय जिलाधीश श्री अवनीश शरण ने पिछले साल ही यह योजना शुरू की थी, जिसमें सम्मान-पत्र के साथ पुरस्कार के रूप में दस लाख की नकद राशि भी दी जाती है जो प्रथम, द्वितीय व तृतीय स्थान के विजेताओं हेतु पाँच, तीन व दो लाख के रूप में वितरित की जाती है। हमें गर्व है कि इस साल विजेताओं में प्रथम स्थान पर हमारी लीला की ‘अम्माँ की थाली’ का नाम है।

भारी भीड़ का कोलाहल एकाएक तीव्र हो उठा तो चौंक कर देख रहा हूँ। ओह! कलेक्टर महोदय पधार चुके हैं। कार्यक्रम संचालक द्वारा मंच पर उनका स्वागत करते हुए पुष्प-माल से अभिनन्दन करने के पश्चात अब सम्मान व पुरस्कार समारोह प्रारम्भ हो चुका है। जब तक हमारी लीला के पुरस्कार ग्रहण की बारी आती है, तब तक मैं आपको अतीत में कुछ वर्ष पीछे ले चलता हूँ जहाँ इस विशेष उपलब्धि की नींव पड़ी थी। हमें जीवन भर के लिए एक प्यारा सा रिश्ता मिल गया था।

ललित और लीला दोनों एक बहुत पिछड़े पहाड़ी गाँव में पले-बढ़े थे जो प्रेमविवाह के बाद वहाँ से भाग कर हमारे इस बड़े शहर में आ गये थे। भागने का कारण उनके पिछड़े गाँव में खाप पंचायतों के कानून का चलना था, जिनके हिसाब से अंतरजातीय विवाह एक बड़ा व दण्डनीय अपराध है। ऐसा कोई काण्ड करने वाले लड़के व लड़की के परिवारों को एक बड़ी राशि अर्थदण्ड यानी कि जुर्माने के रूप में भरनी पड़ती है साथ ही अभिभावकों को अपने उन बच्चों से रिश्ता हमेशा के लिए तोड़ना पड़ता है, अन्यथा गाँव व समाज में उनका हुक्का-पानी बन्द कर दिया जाता है, अर्थात् पूर्णतः सामाजिक बहिष्कार जिसके कारण एक प्रकार से वे अछूत हो जाते हैं सबके लिए।

यह नवविवाहित जोड़ा सात-आठ साल पहले जब इधर-उधर पूछते हुए काम की तलाश में मेरे पास आया था तो उनकी रामकहानी सुन कर पहले तो मुझे विश्वास नहीं हुआ था कि आज के समय में जबकि शहरों में ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ जैसे कॉन्सेप्ट चल पड़े हैं, कहीं पर अब भी ऐसे बर्बर कानून चलते हैं।

सकुचाते हुए लीला बता रही थी तब,

“हमारे गाँव में बड़ी जातियों में तो ‘ऑनर किलिंग’ भी सुनने में आता है साहब जी और पुलिस या कानून तक बात भी नहीं पहुँच पाती।”

उसकी बोली से मुझे लगा था वह कुछ पढ़ी-लिखी अवश्य होगी। पूछने पर उसने गाँव से लगे कस्बे से इंटर तक पढ़ी होने की बात कही, जबकि ललित मैट्रिक की परीक्षा में फेल होने के बाद पढ़ाई छोड़ उसी कस्बे में ड्रायविंग सीखने लगा था।




चूँकि ललित अच्छे से गाड़ी चलाना जानता था और उसके पास लाइसेंस भी था अतः उसे हमने ड्राइवर रख लिया, साथ ही उसकी और लीला की चिरौरी पर लीला को घर के कामों के लिए भी। घर के पिछले हिस्से में बने सर्वेन्ट क्वार्टर में दोनों को रहने के लिए जगह भी हमने दे दी थी।

इससे पहले घर के काम चन्दू यानी कि चन्दन किया करता था। घर में मैं और मेरे वृद्ध पिता ही थे, चूँकि मैं अकेली सन्तान हूँ तथा माँ कई साल पहले हमें छोड़ कर चल बसी थीं, फिर मैंने शादी भी नहीं की है। क्यों? वह भी एक लम्बी कहानी है, वह फिर कभी विस्तार से। अभी संक्षेप में बस इतना ही कि नलिनी, मेरी बचपन की सखी जो युवावस्था आते तक मेरी जिंदगी बन चुकी थी, सही समय पर अपने परिवार व समाज के विरुद्ध मेरे साथ खड़ी न रह सकी और अपने माँ-पिता की पसन्द और मर्जी से उसने शादी कर ली थी। मैं उसके लिए किसी भी परेशानी का सबब नहीं बनना चाहता था तो मन की पीर मन में ही घोंट कर उसे शुभकामनाओं के साथ अपने संसार से विदा कर दिया था। इस तरह मेरे जीवन के एक अहम प्रकरण का चुपचाप पटाक्षेप हो गया था।

आगे की कहानी पढ़ने के लिए नीचे लिंक पर क्लिक करें 

 बन्धन (भाग 2)

 बन्धन (भाग 2)- नीलम सौरभ

(स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित)

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!