मम्मी ! आज फिर परम की मम्मी की पाँच- सात रिश्तेदार आकर बैठ गई और मेरी पूरी दोपहर ख़राब कर दी । सोचा था कि लंच के बाद आराम से सोऊँगी पर मेरा ऐसा नसीब कहाँ?
ऐसी कौन सी रिश्तेदारी की औरतें आ गई थी आज ? हद हो गई भई , शादी के दो महीने होने को आए पर इनका आना-जाना ही ख़त्म नहीं हो रहा ? इतना भी नहीं सोचती तेरी सास कि बहू को दो घड़ी आराम ही करने दे । ना आने वालियाँ सोचती कि किस के घर किस समय जाना चाहिए ।
मम्मी! भाई को भेज दो बस …. थक गई मैं तो इस रोज-रोज़ के दिखावे से । कुछ दिन यहाँ नहीं रहूँगी तो ये तमाशा अपने आप बंद हो जाएगा ।
हाँ- हाँ बुला तो लूँगी ही ….पर बेटा , वे तो फिर आएँगी । तू परम से कह दे कि अपनी मम्मी से बात करे । उनके डर से …. अपना घर थोड़े ही छोड़कर जाएगी ।
यह बातचीत सरलाजी की नई नवेली बहू झलक और उसकी मम्मी के बीच चल रही थी । दरअसल झलक और परम की शादी को क़रीब दो महीने हो गए थे पर बहू देखने आने वाले ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे । वैसे ऐसा नहीं था कि सरलाजी को इस बात का अहसास नहीं था कि मेहमानों का सिलसिला कुछ ज़्यादा ही खिंच गया पर घर आए मेहमानों को वे जाने को तो नहीं कह सकती थी ना ….. बहू का फूला मुँह बिना शब्दों के बहुत कुछ कह जाता था ।
आने वालों की भी गलती नहीं थी । उनकी पहचान का दायरा ही बहुत बड़ा था । पति की मृत्यु के समय बेटी श्वेता छह साल की और परम दो साल का था । सरला जी केवल दसवीं पास थी …. बैंक में चपरासी की नौकरी मिल सकती थी पर दोनों भाइयों और जेठ ने सुनते ही मना कर दिया था—
हमारे जीते- जी तू चपरासन नहीं बनेगी । देख सरला , पहले तेरे जेठ- जेठानी हैं … और पीछे हम खड़े हैं । किसी चीज़ की कोई कमी थोड़े ही है । इस नौकरी को परम के लिए सुरक्षित रख । अरे …. तेरा भी तो हिस्सा है खेतीबाड़ी में ।
और सचमुच ना तो कभी जेठ- जेठानी ने और ना भाई- भाभियों ने , कोई कमी नहीं खलने दी । ये तो अच्छा था कि सिर पर अपनी छत थी ……पति ने जल्दी ही यह सोचकर शहर में मकान बना लिया था कि दिन पर दिन महँगाई बढ़ रही है । जेठ साल भर का गेहूं , चावल , दालें और सरसों का तेल आदि डाल जाते थे…. बीच में कोई चीज ख़त्म होती तो दुबारा आ जाती थी । मायका भी पास ही था , सुबह पड़ोसियों के बच्चे शहर पढ़ने आते तो भाभियाँ दूध का डिब्बा , छाछ और ताज़ी सब्जियाँ भेज देती थी ।
जेठ के बच्चे और भतीजे- भतीजियाँ ही नहीं बल्कि गाँव- मोहल्ले के बच्चे भी सरलाजी के घर को अपना ही घर समझने लगे थे । रिश्तेदारी में जो भी बच्चे घर पर रहकर पढ़ाई करते , परीक्षा- सेंटर हमेशा सरलाजी के शहर का भरते , विशेष रूप से लड़कियाँ । दोनों भाभियों और जेठानी की भतीजियाँ तो जब भी परीक्षा देने आती …. सरला बुआ के पास ठहरना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती थी । इसी वजह से मेलजोल का दायरा बढ़ता गया ।
श्वेता की शादी उसके ससुराल वालों ने बेहद साधारण रूप से की थी इसलिए चाहते हुए भी सरलाजी ने किसी को नहीं बुलाया पर जब वह बेटी- दामाद के साथ मायके और ससुराल गई तो शायद ही कोई घर बचा हो जो बच्चों को आशीर्वाद रुप में अपनी हैसियत से बढ़कर शगुन ना दे गया हो । सरलाजी को अक्सर चिंता रहती थी कि बेटी के विवाह के हज़ारों खर्च कैसे पूरे करेंगी पर कपड़ा- गहना कैसे और कब उनकी दोनों भाभियों ने जोड़ा था , उसे खुद पता नहीं चला ।
जब परम की नौकरी लगने के बाद विवाह तय हुआ तो जेठानी ने कहा था—-
सरला ! अब सबको प्यार से निमंत्रण देना । जो भी तेरे दुख के समय तेरे साथ खड़ा था …. सुख आते ही भुला मत देना ।
नहीं जीजी …. काँटों भरा दुर्गम मार्ग था पर मेरा तो सबने साथ दिया । चाहे आप लोगों को किसी ने किसी काम के लिए मना कर दिया हो पर मेरे लिए तो रात में भी पूरा मोहल्ला साथ देने को तैयार खड़ा रहता था । सगी तो दो भाभियाँ थी पर गाँव की एक भी औरत ऐसी ना थी जिसने कभी अपने बच्चों को मेरा दूध- दही लाने से रोका हो । आप बेफ़िक्र रहो …. सबको पूरा मान- सम्मान दूँगी ।
अब शादी की गहमागहमी में तो नई बहू से कोई कुछ बात नहीं कर पाया था तो गाँव- मोहल्ले की औरतें अपने- अपने समय के अनुसार झलक को मुँह दिखाई का शगुन देने और दो घड़ी उसके पास बैठने आ रही थी ।
अपनी मम्मी के कहे अनुसार झलक ने परम को कहा —-
परम ! तुम्हारे घर में तो पूरा दिन मेला लगा रहता है । कहने के लिए केवल तीन प्राणी है पर यहाँ तो चुल्हे को शांति ही नहीं मिलती ।
यार ! ये सब तो हमारे जीवन का हिस्सा बन चुका है । अगर मामा-मामी , ताऊ- ताई और गाँव के दूसरे परिवार हमारा सहयोग ना करते तो मम्मी के लिए हमें पालना मुश्किल हो जाता । तुम भी इन सबके साथ घुला- मिला करो ना , तुम्हें अच्छा लगेगा ।
परम की बात सुनकर झलक मन ही मन चिढ़ गई । वह कभी सरलाजी को कभी परम को कुछ न कुछ सुनाती रहती थी । सरला जी ने बहू को समझाने की बहुत कोशिश की—-
अरे बेटा ! दो- चार सालों की बात है । धीरे-धीरे सब बच्चे पढ़ लिखकर नौकरी पर चले जाएँगे । फिर किसके पास समय होता है । देखो , सब प्यार- मोहब्बत के कारण आते हैं….. किस पर क्या वक़्त पड़ जाए …. कोई नहीं जानता ? फिर क्या उठाकर ले जाते हैं यहाँ से…. कुछ न कुछ लेकर ही आते हैं ।
मम्मी जी! आपको आदत है लोगों से लेकर खाने की…. मुझे नहीं…. मैं अपनी आमदनी के हिसाब से देख लूँगी । पर्सनल लाइफ़ तो ख़त्म हो चुकी है मेरी ….
उस दिन झलक ने सास के साथ काफ़ी बहस की । सरला जी ने सोचा था कि शाम को बेटे के आने पर शांतिपूर्वक कोई न कोई हल निकालने के बारे में बात करेंगी पर संयोग की बात ….. शाम होते- होते उनकी तबीयत ख़राब होने लगी । मन में अजीब सी बेचैनी हो रही थी , बार-बार पसीने से बदन भीग रहा था, वे अपनी बहू को आवाज़ लगाने की कोशिश कर रही थी पर मुँह से आवाज़ नहीं निकल रही थी । इतने में दरवाज़े की घंटी सुनकर वे लड़खड़ाती हुई दरवाज़ा खोलने के लिए उठी पर वहीं गिर गई ।
जब बार-बार घंटी बजाने पर दरवाज़ा नहीं खुला तो बाहर खड़े परम का दिल घबराने लगा था । थकहार कर परम ने पहले माँ को और फिर झलक को फ़ोन किया —-
हद है यार…. आज तुम दोनों सास- बहू अकेली घर में हो और दरवाज़ा तक नहीं खोल रही । कब से घंटी बजा रहा हूँ….
मुझे क्या पता …. मैंने सोचा कि तुम्हारी मम्मी दरवाज़ा खोल देंगी…. ठहरो …
पर दरवाज़े के ठीक अंदर सास को ज़मीन पर गिरी देख उसका चेहरा पीला पड़ गया । झलक ने जल्दी से दरवाज़ा खोला …. इससे पहले वह कुछ कहती , परम चीखता सा बोला —-
मम्मी….मम्मी…. ये कैसे गिरी ? कब से पड़ी है… अब तो पड़ जाएगी न , तुम्हारे कलेजे में ठंडक…
परम की आवाज़ सुनकर मोहल्ले के लोग जमा हो गए और सरला ज़ी को तुरंत अस्पताल ले ज़ाया गया । देखते ही देखते दोनों तरफ़ के परिवार के सदस्य अस्पताल में पहुँच गए । जब देर रात डॉक्टर ने कहा कि ज़्यादा लोगों के रुकने की मनाही है तो सरला जी के बड़े भाई- भाभी ने स्वयं रुकने का फ़ैसला करते हुए कहा—-
मैं और सरला की भाभी अस्पताल में रुकेंगे । बाक़ी गाँव में लौट जाओ । कल सुबह जैसी हालत होगी , उसके अनुसार फ़ोन कर दूँगा तब आ जाना । परम बेटा ! तू अपने ताऊ- ताई को लेकर घर चला जा …. वहाँ बहू भी अकेली घबरा रही होगी । पूरे दिन का थका हारा है….
नहीं मामाजी… आपकी उम्र नहीं है अस्पताल में रुकने की… आप घर चलो … मामी जी तो है ही, मैं आपको और ताऊ- ताईजी को घर छोड़ आता हूँ ।
सरला जी के बड़े भाई बहुत ज़िद करने पर ही परम के साथ जाने को तैयार हुए । परम ने सोचा था कि मामीजी के लिए कुछ खाने का ले आऊँगा और बाक़ी को घर में छोड़ दूँगा ।
घर पहुँचकर देखा कि रात के साढ़े ग्यारह बजे मोहल्ले की औरतें झलक के पास बैठी थी और काफ़ी लोग घर के बाहर वाले बरामदे में थे ।
जैसे ही परम की गाड़ी घर के गेट पर जाकर रुकी … झलक अंदर से दौड़ती हुई आई —-
परम , मम्मी जी कैसी हैं ?
आई० सी० यू० में हैं । अगर मेरी मम्मी को कुछ हो गया ना , मैं तुम्हें कभी माफ़ नहीं करूँगा…
परम के मुँह से इतना निकला ही था कि उसके ताऊ कड़कते हुए बोले —-
अरे बावला हो गया छोरे , काया के कष्ट को कौन बुलाकर लाता है । चल बहू , भीतर चल बेटा …. हो जाएगी ठीक तेरी सास । अस्पताल में तेरी बड़ी मामी हैं , थोड़ा बहुत उनके लिए कुछ खाने का दे दे , परम ले जाएगा ।
झलक तो एकदम सुन्न हो गई । उसने कहाँ कुछ बनाया था और परम को फ़ोन करने की हिम्मत नहीं हुई थी । उसका चेहरा देखकर ताई ने बात सँभालते हुए कहा—-
चार दिन तो ब्याह को हुए । बिना कहे भला इतनी सुध थोड़े ही होती है इस उम्र में….. झलक ! चल लाल मसूर की दाल चढ़ा दें …. एक- आध रोटी सभी खा लेंगे । परम , चल तब तक मुँह- हाथ धोकर कपड़े बदल ले ।
अभी ये लोग बातचीत कर ही रहे थे कि पड़ोस में रहने वाली रमा चाची और उनका बेटा हाथ में दो कैसरोल पकड़े हुए आए । रमा चाची ने ताईजी को पकड़ाते हुए कहा—
जीजी ! खाना तो मैंने बना लिया था । झलक से कहकर मामी की दो रोटियाँ पैक करवा दो और बाक़ी को परोस दो । अभी थोड़ी देर पहले ही सेंकी थी ।
सरला जी तीन दिन अस्पताल में रही । कैसे ताऊ- ताईजी, मामा- मामियों , देवर- ननदों और पड़ोसियों ने सारी ज़िम्मेदारी ले ली, झलक तो देखती रह गई । परम भी केवल एक रात अस्पताल में रहा … उसके बाद कभी कोई तो कभी कोई, खुद ड्यूटी ले लेता था । ननदों ने उसे रसोई में घुसने तक नहीं दिया —-
ना झलक , अभी तो तेरे हाथों की मेंहदी भी ना छूटी … बुआ घर आकर कहेंगी कि मेरी नई नवेली बहू को चूल्हे में झोंक दिया ।
यहाँ तक कि जब अस्पताल से सरला जी को छुट्टी मिली तो मामाजी ने परम को यह कहते हुए बिल देने से रोक दिया—
तू अपनी माँ को लेकर चल … . कल सुबह आऊँगा , ये हिसाब- किताब तब कर लेना ।
सरला जी के घर जाने के बाद शाम तक केवल ताऊ- ताईजी को छोड़कर सब चले गए क्योंकि डॉक्टर ने ज़्यादा बोलने को मना किया था और सरला जी को शांत वातावरण की ज़रूरत थी । आज झलक सबको रोकना चाहती थी, घर के काम- काज के कारण नहीं बल्कि वह समझ गई थी कि जब एक छोटी सी बीमारी में वह इतना हिल गई तो सास ने पति की असमय मृत्यु का कष्ट कैसे झेला होगा । सचमुच अगर परिवार का इतना सहयोग ना मिलता तो क्या पता , वे दो बच्चों को कैसे सँभालती ?
झलक के मन में बेचैनी थी । वह इस ऊहापोह में थी कि ताईजी के सामने ही मम्मी जी से अपने बुरे व्यवहार की माफ़ी माँगें या उनके जाने के बाद… पर आज ताईजी के जाने से पहले मामीजी आने वाली है तो उसे कैसे टाइम मिलेगा पर झलक ने सोच लिया कि आज वह माफ़ी माँग कर ही रहेगी । दोपहर के बाद ताईजी और सरलाजी लेटी हुई थी तभी झलक ने सास का हाथ अपने हाथों में पकड़ते हुए कहा—-
मम्मी जी…. मुझे माफ़ कर दीजिए । शायद मेरे कहे शब्दों से आपको इतनी ठेस पहुँची कि आप सहन नहीं कर पाई और उस दिन ……
नहीं झलक , खुद को दोषी मत समझो । भाग्य के कष्ट तो भोगने ही पड़ते हैं । चल थोड़ी देर आराम कर ले फिर तेरी ताईजी को लेने राकेश आएगा, चाय- पानी बनाना पड़ेगा तुझे उठकर ।
बनाना पड़ेगा ? नहीं मम्मी जी…, मैं ख़ुशी से अपने देवर के लिए चाय बनाऊँगी और सबके साथ खुद भी पिऊँगी ।
करुणा मलिक
# अब तो पड़ जाएगी ना , तुम्हारे कलेजे में ठंडक