बुनियाद – ऋतु अग्रवाल 

आज गंगा बहुत बेचैन थी। ना जाने, मन में कैसे-कैसे भाव आ रहे थे। इन्हीं भावों की परिलक्षितता उसके उठान में दिख रही थी। बड़ी ही तीव्रता से लहरें उठती और उसी वेग में गिरकर वापस लौट जाती। गंगा से जब रहा नहीं गया तो वह सरस्वती को पुकारने लगी,” सरस्वती! छोटी! कहाँ हो तुम? एक तो तुम दिखाई नहीं देती हो, उस पर नटखट इतनी कि बार-बार स्थान बदलती रहती हो।”

       “दीदी! मेरी प्यारी गंगा दीदी! लो, मैं आ गई। आप नाराज मत हो, मेरी प्यारी दीदी। मैं कहीं नहीं गई थी, यहीं थी, बस जरा रसातल का भ्रमण करने गई थी पर आज आप इतनी व्याकुल क्यों हो? मुख पर मलिनता, वेग में उद्विग्नता! आपके मुख मंडल पर निराशा एवं विषाद के भाव शोभा नहीं देते।” सरस्वती हँस-हँसकर गंगा के चारों ओर चक्कर लगाने लगी।

       “रुक! रुक जा शैतान! एक तो मैं वैसे ही बहुत परेशान हूँ,उस पर तू मुझे सता रही है।”कहकर गंगा ने सरस्वती को एक चपत लगा दी।

      “क्या बात है दीदी? मुझे बताइए ना! ऐसी क्या बात है जो आप इतना चिंतित हैं? सरस्वती की लहरें शांत हो गयीं।

       “सरस्वती! मैं पिछले कुछ समय से अनुभव कर रही हूँ कि यमुना कुछ गंभीर एवं चुपचाप रहने लगी है। मुझे लगातार अनुभव होता है कि जैसे वह मुझसे कुछ नाराज सी है।” गंगा खिन्न स्वर में बोली।

         “हाँ,दीदी! लगता तो मुझे भी है पर मैंने ज्यादा गौर नहीं किया और फिर आप तो मेरा स्वभाव जानती ही हैं कि मैं एक स्थान पर बैठ नहीं सकती तो गंभीरतापूर्वक विचार ही नहीं किया पर अगर आपको ऐसा लग रहा है तो क्यों ना हम खुलकर यमुना दीदी से बात कर लें। मन के भाव मन में रखने से तो कुछ होने वाला नहीं है।”

सरस्वती ने सुझाव दिया।

      “ठीक है! मुझे भी यही लगता है कि मुझे यमुना से बात कर लेनी चाहिए।” गंगा ने प्रत्युत्तर दिया।



       “यमुना दीदी! यमुना दीदी! आपको गंगा दीदी बुला रही हैं।” सरस्वती की अकुलाहट उसकी उठती लहरों में साफ दिख रही थी।

       “आती हूँ।” यमुना की उदास आवाज सुनकर गंगा और सरस्वती दुखी हो गई।

       “जी, दीदी!आप बुला रही थीं।” यमुना ने गंगा को प्रणाम किया।

      “हाँ!यमुना,आओ बैठो! मुझे तुमसे कुछ बात करनी है।” गंगा के इशारे पर यमुना और सरस्वती बैठ गईं।

       “यमुना, मेरी बहन! पिछले काफी समय से मैं महसूस कर रही हूँ कि तुम कुछ परेशान सी रहती हो। मुझ से खिंची खिंची सी रहती हो। सूखती जा रही हो। मुझे बताओ, क्या बात है। मैं तुम्हारी बड़ी बहन हूँ,शायद कुछ हल निकाल सकूँ।” गंगा की बात सुनकर यमुना की आँखें भर आईं। वह सुबक पड़ी।



           गंगा उसके पास सरक आई। उसके सिर पर प्रेम से हाथ रखा तो यमुना फूट-फूट कर रो पड़ी।

        “बताओ, मेरी बहन! क्या बात है?” गंगा ने यमुना का सिर सहलाया।

       “दीदी! मैं परम पिता परमेश्वर और पिता जी हिमालयराज से बहुत नाराज हूँ। देखो ना,उन्होंने सब नदियों को गौरवर्णा बनाया और मुझे श्यामला। साथ ही आपको पापनाशिनी, भवतारिणी की उपाधि दी और आप तो शिव शंभू के शीश पर विराजमान होने का सौभाग्य भी पाती हो, मेरे साथ ऐसा भेदभाव क्यों?” यमुना ने रोष भरे स्वर में कहा।

      “बस!इतनी सी बात! पगली कहीं की!” गंगा जमुना को गले लगा लिया,” जरा सोच तो, तू कितनी भाग्यवान है कि तुझे श्याम जैसा श्यामल रंग मिला है। हम सब नदियाँ मिल जाए तब भी गौरवर्णा ही रहेंगी पर अगर तू हम में मिल जाए तो हमारा रंग बदल सकती है पर हम सब मिलकर भी तेरा रंग नहीं बदल सकते और अगर मैं पापनाशिनी, मोक्षदायिनी हूँ तो तू भी तो भाई दूज के दिन ना जाने कितनों को भव बंधन से मुक्त कराती है और मैं तो शिव शंभू के शीश पर विराजमान हूँ पर स्वयं कान्हाजी तेरे जल में अठखेली करते हैं और तुझे उनके चरण पखारने का अवसर मिलता है। शीश पर रहने वाला अभिमानी हो सकता है पर चरणों में रहने वाला सदा विनम्र और शीलवान रहता है। बहिना! यह हमारे पिताजी हिमालयराज की ही रखी हुई बुनियाद है जिस पर हमें सदैव अडिग रहना है। एक दूसरे से नाराज होकर या ईर्ष्या भाव रखकर नहीं वरन् एक दूसरे में समाहित होकर इस संसार के कल्याणार्थ कार्य करना है।’ कह गंगा ने यमुना और सरस्वती को अपने अंक में भर लिया।

       गंगा की बात सुनकर यमुना संतुष्ट हो गई और गंगा, यमुना ओर सरस्वती ने मिलकर प्रयागराज में संगम की बुनियाद रखी जहाँ जीव भवसागर से मुक्ति हेतु गोता लगाने आते हैं। 

#प्रेम 

मौलिक सृजन 

ऋतु अग्रवाल 

मेरठ

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