औरतों की जिंदगी में इतनी विवशता क्यों होती है? – नीतू सिंह

“रहने दो अनु! अगर उसे खाना नहीं खाना, तो उसकी सिफारिश करने की जरूरत नहीं।’ सुनील की एक तेज आवाज आई।

अनु थोड़ा सहम गई। सुनील की बातों का टालना उसके बस में नहीं था फिर भी वह धीमे स्वर में बोली-लेकिन वो रात भर भूखे कैसे रहेंगी?”

 

‘रह लेगी उसे तो आदत है।’ सुनील ने वैसे ही तेजी से कहा।

 

“हां! हां! मुझे तो आदत है, तुम जाओ बहू, तुम्हें मेरे लिए परेशान होने की जरूरत नहीं है। जब मेरे अपने बेटे को ही मेरी कोई फिक्र नहीं, तो तुम अपनी नींद क्यों खराब कर रही हो? सरोज ने अपनी चादर खींचकर मुहं ढ़क लिया और सोने की कोशिश करने लगी। 

 

आज वह उसी जगह आकर खड़ी हो गई थी, जहां वह पंद्रह साल पहले थी। उसके पति अशोक ने भी उसकी कदर नहीं की और आज उसका बेटा सुनील भी उसे कोई आदर नहीं देता।

औरतों की जिंदगी में इतनी विवशता क्यों होती है? सारे फर्ज निभाते निभाते उनका खुद का अस्तित्व कहा खो जाता है?

क्यों उन्हें अपना ध्यान नहीं रहता। जिस घर को, जिस परिवार को वह अपने खून पसीने से सींचती हैं, वह घर और परिवार उन्हें मान सम्मान क्यों नहीं देता? क्यो उनकी हैसियत एक बाई जैसी हो जाती है या उससे भी बुरी।” सरोज की आंखों में आंसू छलक आए।

 




उसे याद आया अशोक भी ऐसे ही किया करते थे। सारे घर को वो संभालती, बच्चे देखती, पूरे घर का ध्यान रखती। लेकिन फिर भी जब भी कभी अशोक को अपने ऑफिस की पार्टी में जाना होता वह अकेला ही जाता।उसके हिसाब से ‘सरोज उसके दोस्तों की मॉडर्न बीबियों से बहुत हीन थी। ना तो वो उसका स्टैंडर्ड  मेंटेन कर पाती और नहीं खुद का।”

 

वह अंदर ही अंदर घुट कर रह जाती। पर पता नहीं क्यों उसने अशोक का कभी विरोध नहीं किया। क्यों? उसने कभी नहीं कहा कि ‘मुझे आपके साथ जाना है।’ पहले तो कभी ना वो जाने की जिद करती और न हीं उसे अशोक की बात बुरी लगती।

 

‘ लेकिन आज…..? लेकिन आज ही क्यों?आज क्यों उसे बुरा लगा जब सुनील ने उसे बाहर हॉल में आने से मना किया।

 

“मां! हाल में मेरी पार्टी चल रही है, तुम अंदर ही रहना।”

 

“लेकिन बेटा?”

“प्लीज मॉं, मैं अपने दोस्तों के सामने आपको नहीं ला सकता। 

 

“नहीं ला सकता? मुझे नहीं ला सकता? अरे! जिस मां की उंगली को पकड़कर तूने चलना सीखा, जिस मां के आंचल की छांव में तूं बड़ा हुआ आज उससे तुझे शर्म आती है?”

 

“मां प्लीज लेक्चर मत दो, पहले भी तो तुम पापा की पार्टी में नहीं जाती थी। तब तो तुम्हें कोई एतराज नहीं था? अब आज ऐसा क्या हो गया है कि मेरी पार्टी में तुम्हें आना ही है?




 

“हां नहीं था, मुझे पहले एतराज नहीं था। पर अब लगता है कि करना चाहिए था। आखिर क्यों यह समाज औरत की भावनाओं को नहीं समझता? अगर हम अपने परिवार के प्रति समर्पित है, तो क्यों हम समाज में रहने के काबिल नहीं, हम नान स्टैंडर्ड हो गई।” वह गुस्से में आकर अपने कमरे में लेट गई।

 

“मां उठिए! खाना खा लीजिए।” अनु धीरे से बोली।

 

“नहीं बहू! रहने दे, मुझे भूख नहीं है ।”

 

“मां प्लीज खा लीजिए, सुनील की बातों को भूल जाइए। अगर खाना नहीं खाएंगी, तो आपको कमजोरी हो जाएगी।” 

 

‘रहने दे बेटा! नहीं खाऊंगी तो मर नहीं जाऊंगी। तू भी कहती है सुनील की बातों को भूल जा। क्या-क्या भूल जाऊं मैं? सरोज ने क्रोध में कहा।

 

“भूल जाऊं कि उसे मैंने नौ महीने अपने गर्भ में पाला हैं ,भूल जाऊं कि उसके लिए रात रात भर में जगी हूं।मैने उसे उंगली पकड़कर चलना सिखाया। मैंने सोचा था कि यह मेरे बुढ़ापे का सहारा है, लेकिन मुझे नहीं पता था कि यह भी मुझे बोझ समझता है।”

 




“नहीं मां! यह सुनील का दोष नहीं है।” अनु ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।’यह दोष है समाज का, हमारी परंपरा का। लोग हमेशा पेड़ की ऊंचाई देखते हैं, लेकिन उसकी जड़ को कोई नहीं देखता,जिसके बल पर वह पेड़ खड़ा है। हमारी हालत इस पृथ्वी की तरह है,जिसे लोग अपनी उपयोगिता के अनुसार उपयोग करते हैं और फिर उसकी कदर नहीं करते।”

 

“लेकिन लोगों को हमारी कद्र करना होगा।” अनु ने कुछ सोचते हुए कहा।

 

सरोज ने उसकी तरफ देखा। 

 

“हा मां! लोगों को हमारी कद्र करनी ही होगी। सुनील भी आप की कद्र करेगा। यह घर आपका है, इस घर की एक एक दीवार आपने सजाई है, अगर आप चाहे तो उसे एक झटके में इस घर से बाहर फेंक सकती हैं,उसकी इतनी हिम्मत नहीं है कि आपको हॉल में आने से रोके, बस एक बार आगे बढ़कर आपको अपने लिए खड़ा होना होगा।” अनु ने सरोज की तरफ कठोरता से देखते हुए कहा।

 

सरोज ने उसे देखा, उसे अनु की आंखों में अपने लिए और  अपने जैसी तमाम औरतों के लिए एक स्नेह का भाव दिखाई दिया। उसे अनु की आंखों में वह सच्चाई दिखाई दी जिसे वह बहुत पहले ही भूल चुकी थी।

 

“शायद तू सही कह रही है,मुझे एक बार अपने लिए खड़ा होना ही होगा। जब यह धरती भी अपने ऊपर किसी का दबाव नहीं सह सकती, तो मैं क्यों सहूं, मैं भी तो मां हूं।” उसने मन ही मन कुछ सोचा ।

 

अनु ने उनकी आंखों में देखा। उसे एक संतोष का अनुभव हुआ। बेशक! इस लड़ाई में उसकी अपनी हार तय थी, लेकिन यह  लड़ाई उसे अपने बेटे से ना लड़नी पड़े, इसलिए इसे आज से ही शुरु करना ही था। उसने मन ही मन संतोष की सांस ली और बोली- यह सच है कि मैं एक अच्छी पत्नी नहीं बन पाई, पर एक अच्छी बेटी, एक अच्छी मां और एक अच्छी बहु जरूर बनूंगी।” 

 

                               नीतू सिंह

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