अतीत की परछाई – (भाग 4) – संगीता अग्रवाल  : Moral Stories in Hindi

अब घर मे अजीब मोहोल था अवधेश पर बस एक धुन सवार थी कि जल्द से जल्द अवंति की शादी करनी है। स्मृति खुद को बेटी का कसूरवार समझ रही थी ना वो उस वक़्त ऐसे शादी करती ना उसकी बेटी को आज ये सब झेलना पड़ता। पर क्या कुसूर केवल स्मृति का था ? भाग कर शादी तो दो लोगो ने की थी फिर उसका कुसुरवार केवल एक कैसे ?

उस शादी के परिणामस्वरूप घर मे दो बच्चो ने जन्म लिया था फिर सपनो की बलि केवल एक बच्चे की कैसे क्या केवल इसलिए क्योकि वो लड़की है या फिर इस लिए कि अवधेश के माता पिता ने उसे सहर्ष अपना लिया लेकिन स्मृति के माता पिता उसे नही अपना सके अपनाना तो छोड़ो उसके पिता तो ये सदमा ही बर्दाश्त नही कर पाये।

” अवधेश तुम क्यो नही समझ पा रहे कि उन्नीस साल पहले जो हुआ उसमे हमारी बेटी की कोई गलती नही है फिर क्यो तुम उसको सजा दे रहे हो ।” वो रोते रोते खुद से बोली क्योकि अवधेश से तो वो खुद भी कुछ बोलने की हिम्मत नही कर पा रही थी । इधर आदित ने पिता को समझाने की कोशिश की पर उसने आदित को बच्चा बोल चुप रहने को कहा।

घर मे अजीब मौहोल था जिस घर मे खुशियां बसती थी उस घर मे उदासी पसरी थी जिस घर मे जान होती थी वहाँ ऐसा सन्नाटा था मानो किसी की मौत हुई हो । मौत !! हां मौत तो हुई थी किसी इंसान की ना सही किसी के सपनो की मौत हुई थी , किसी की खुशियों की मौत हुई थी और कुछ रिश्ते भी मरने की कगार पर थे किन्तु कोई कुछ नही कर पा रहा था क्योकि अवधेश ने जो कठोरता धारण कर ली थी उससे किसी की हिम्मत नही हो रही थी उससे कोई सवाल करने की।

” कहा जा रही हो तुम ?” अगले दिन अवंति को तैयार देख अवधेश बोला।

” पापा कॉलेज !” अवंति डरते डरते बोली क्योकि अब उसे अवधेश से डर ही तो लगता था अब अवंति वो बचपन की मासूम गुड़िया तो थी नही जो पापा के चेहरे के भाव देखे समझे बिना पापा की गोद मे चढ़ने को मचले।  अब वो एक अठारह साल की युवती थी जिसके पापा अपने बीते कल के डर के कारण उसका आज और आने वाला कल नही देख रहे थे या यूँ कहो तबाह कर रहे थे।

कितने शौक से उसने कॉलेज मे कदम रखा था ढेरो सपने थे आँखों मे कि पढ़ लिखकर पैरो पर खड़ी होगी पर उसके सपनों को अभी तो उड़ान भी ना मिली थी कि उसके पंख कतरे जा रहे है।

” कही जाने की जरूरत नही है कल तुम्हे लड़के वाले देखने आ रहे है अब जो करना है अपने घर जाकर करना !” अवधेश बिना बेटी की तरफ देखे बोला।

अवंति बिना कुछ बोले रोती हुई अपने कमरे मे आ गई। बेचारी बोलती भी क्या वो तो ऐसे जुर्म की सजा पा रही थी जो उसने किया भी नही ।

जुल्म तो खुद अवधेश और स्मृति ने भी नही किया था पर हां जल्दबाज़ी जरूर की थी अगर वो लोग थोड़ा रूककर अपने माता पिता को समझाते तो शायद वो लोग मान भी जाते तब उन दोनो का अतीत सुखद होता तब अवधेश का वर्तमान एक डर मे नही बीत रहा होता ना ही तब अवंति का भविष्य अन्धकारमय होता। अवधेश और स्मृति की एक नासमझी ने उनसे जुड़े रिश्तो का कल आज और कल बिगाड़ दिया।

स्मृति तो गूंगी गुड़िया बन गई थी जिस प्यार पर वो उन्नीस साल से गुमान कर रही थी वो प्यार आज उसे अपनी बेटी का सबसे बड़ा दुश्मन नज़र आ रहा था । बेटी को सब बात मालूम हो जाने के बाद तो वो उससे नज़र मिलाने से भी बच रही थी। अवंति के दादा भी बेटे के आगे खामोश थे या यूँ कहो उनकी खामोशी मौन स्वीकृति थी।

” देखिये आप एक बार फिर से अपने फैसले के बारे मे सोच लीजिये ये हमारी बेटी के भविष्य का सवाल है !” रात को किसी तरह हिम्मत कर स्मृति अवधेश से बोली।

” मैने जो फैसला किया है वो हमारी बेटी और इस घर दोनो के लिए उचित है अब सो जाओ सुबह तैयारी भी करनी है सारी !” अवधेश ये बोल मुंह फेरकर सो गया पर स्मृति को सारी रात नींद नही आई। काश कोई ऐसी शक्ति होती जिससे वो अपना अतीत बदल पाती पर ऐसा मुमकिन कहाँ होता है।

वो तो अपनी बेटी के लिए कोई ठोस कदम उठाने की हालत मे भी नही है क्योंकि ना तो उसका मायका उसका है ना वो इतनी पढ़ी हुई कि खुद के पैरों पर खड़ी हो सके । अवधेश की बात चुपचाप मान लेने के सिवा कोई चारा नही था पर इसके लिए वो खुद को कभी माफ़ नही कर पायेगी। और ना ही अवधेश को ।

जारी है …..

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