अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 14) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

“संपदा कुछ बोलोगी।” संपदा बिना कुछ उत्तर दिए अपने कमरे की ओर बढ़ ही रही थी कि मनीष फिर से गरज उठा था।

“वो भैया भाभी ने जिद्द की थी इसीलिए”…. हड़बड़ाती हुई संपदा बोल गई।

“मैं जानता था, ये इसकी ही सिखाई–पकाई है।” उंगली से विनया की ओर प्वाइंट करता हुआ मनीष कहता है।

“मेरी, मेरी कैसे, हाॅं मैंने चलने कहा था लेकिन दीदी कोई”… विनया संपदा के जवाब को अभी सही तरीके से समझ भी नहीं पाई थी कि मनीष के आरोप से तिलमिला कर विनया चीख पड़ी थी और चीखती विनया की नजर मुॅंह दबा कर मुस्काती दोनों बुआ पर पड़ी और विनया चुप हो गई।

उसके चुप होते ही दोनों बुआ आश्चर्य से उसे देखने लगी क्योंकि अभी तो उन्होंने विनया को बुरा साबित करना था। घर में अपने वर्चस्व कायम रखना था, हर बात पर विनया का मुस्कुरा कर शांत रह जाना और शांति से परिस्थिति को समझना, संभालना उन्हें अखरने लगा था, उनका अनुभव उन्हें बता रहा था कि विनया उन सबसे अलग है और उसे अपने नियंत्रण में रखना उनके लिए आसान नहीं है। इसलिए वो मनीष को ही भड़काने का कार्य करती रहती हैं।

विनया निर्भीक मुस्कुराती रहती थी, जिससे उन्हें डर सताने लगा था कि ये परिवार उसे समर्थन ना देने लगे, उसे अपना न ले। एक तरह से उन्हें अपनी कुर्सी डोलती हुई नजर आने लगी थी तो उन्होंने मनीष को अपना अस्त्र बना लिया।

“हाॅं, हाॅं चीखो, अब यही दिन देखना रह गया था कि घर की बहू नीचा दिखाए हमें।” बड़ी बुआ ऑंचल से ऑंखें पोछती हुई कहती है।

“नहीं नहीं बुआ जी, गलती हो गई।” कहती विनया वही दोनों बुआ के बगल में बैठ गई।

“बुआ जी अब ये गलती नहीं होगी, आपकी आज्ञा सिर ऑंखों पर। अब ऐसा नहीं होगा।” विनया विनम्रता से कहती है और मुस्कुरा कर चली गई।

“बुआ, भैया, भाभी ने जिद्द नहीं की थी। उन्होंने सिर्फ पूछा था और मेरी इच्छा हो गई थी तो मैं चली गई।” संपदा विनया की विनम्रता को देख भावुक हो गई थी।

“यस, ये किला तो फतह हो गया।” विनया के कान में संपदा द्वारा कही गई बात जैसे गई वो अपने कमरे में उछल पड़ी। यही तो चाहती थी विनया कि संपदा सही बोलना सीखे, इसलिए उसने बुआ से माफी माॅंगते समय संपदा की ओर कातर निगाह से देख रही थी और उसकी वह निगाह जादू कर गई। सकुचाते हुए ही सही संपदा सच की राह तो ले सकी। इस घड़ी में, सच्चाई ने नई मित्रता की बीजें बो दीं, जो विनया और संपदा के बीच एक नये अध्याय की शुरुआत कर रही थी।

“ये क्या कर रही हो तुम।” बाहर टेबल पर गर्म रोटी देकर आई अंजना ने विनया को रोटी सेंकते देख पूछती है।

“आप अकेली रोटी सेंक रही हैं, फिर बाहर जाकर सबके प्लेट में दे रही हैं तो मैंने सोचा रोटी मैं सेंक लेती हूॅं। दोनों जन मिलकर काम करेंगे, तो शीघ्र ही सब कुछ हो जाएगा। एक से भले दो, है ना माॅं।” गोल गोल रोटियाॅं बनाती अंजना की ओर देखकर मुस्कुरा कर कहती है।

“नहीं इसकी जरूरत नहीं है, आदत है मुझे।” अंजना विनया की ओर देखे बिना कहती है।

“आदत तो बदली भी जा सकती है ना माॅं।” विनया बेलन रखकर अंजना की ओर मुड़ कर प्लेट में रोटियाॅं रखती हुई कहती है।

“आदतें, कितनी आदतें बदलूॅं मैं, आदतें बदलो, आदतें बदलो।” अंजना विनया की बात सुनते ही फट पड़ी। सच है इंसान वही फटता है जो उसे या तो अपने समकक्ष या निर्बल लगता है और विनया भी बहू ही है तो उसकी स्थिति भी अंजना से बेहतर कैसे हो सकती है, अंजना कुछ ऐसा ही सोच रही थी और बादलों की तरह फट कर विनया पर बरस पड़ी।

“मम्मी, रोटी”…अंजना और कुछ कहती लेकिन मनीष की आवाज सुनकर बाहर चली गई।

“ये क्या, ठंडी रोटी, दो दो लोग रसोई में लगी हो। फिर भी हाथ जल्दी नहीं चलते।” बड़ी बुआ गर्म रोटी को भी ठंडी कहकर अंजना को कोसने लगी थी और विनया रसोई से निकल अंजना से बिल्कुल निकट होकर खड़ी हो गई, जिससे विनया के कंधे का स्पर्श अंजना के कंधे से हो रहा था। अंजना भी विनया की छुअन महसूस कर रही थी और उस नजदीकी में उसे आत्मीयता का अनुभव हो रहा था। एक ऐसी आत्मीयता, जिसका आभास उसे एक बार और हो चुका था। यह भावनात्मक पल अस्पष्ट रूप से विनया और अंजना के बीच स्वभाविकता और समर्थन की भावना को बढ़ा रहा था।

“तुम क्या तमाशा देखने यहाॅं चली आई।” विनया को अंजना के बगल में खड़ी देख मंझली बुआ कहती हैं।

“बुआ जी जब काम हमदोंनो सास–बहू मिलकर कर रही हैं तो आपका यह प्यार सिर्फ माॅं के लिए क्यों। दोनों मिलकर इसका रसास्वादन करें तो आपको भी ज्यादा अच्छा लगेगा।” विनया अंजना के थोड़ी और करीब आती हुई कहती है।

उसकी इस बात पर संपदा धीरे–धीरे मुस्कुरा रही थी। इन कुछ क्षणों में अपनी भाभी विनया के लिए उसके विचार बिल्कुल बदल चुके थे। जिस तरह संपदा बिना जाने ही बुआ की ऑंखों से विनया को देख रही थी, उसी तरह अब वो अपनी स्वप्निल ऑंखों से विनया को देख रही थी और अब उसकी नजर में विनया बुआ के शब्दों में घर तोड़ने वाली नहीं, घर जोड़ने वाली लग रही थी और अंजना का संबल बन विनया का खड़ा उसे सुखद अहसास के साथ साथ थोड़ी ईर्ष्या का भी अनुभव करा रहा था। उसे समझ आ रहा था कि जिस माॅं की ढाल उसे और मनीष को बनना चाहिए था, जिस जगह उसे खड़ा होना चाहिए था, वहाॅं विनया खड़ी थी। इच्छा तो संपदा की भी हो रही थी कि कुर्सी खिसकाए और जाकर दोनों के बगल में खड़ी हो जाए। लेकिन हृदय के अंदर बुआ के तानों का खौफ उसे उठने नहीं दे रहा था। इस दृश्य से संपदा की दृष्टि में विनया का स्थान बदल रहा था और अब वह उसे साझा समझ रही थी। भाभी के प्रति भावना में परिवर्तन हुआ था और उसके दिल में नये संबल की ऊर्जा फूल रही थी, जिसे वो समझ रही थी, लेकिन उस ऊर्जा में अभी बुआ के विचारों के विरुद्ध जाने का साहस भरना था, जिसे केवल संपदा स्वयं के द्वारा ही कर सकती थी। संपदा के हृदय की दुविधा और भय को भी दिखाता है कि वह कैसे बुआ के तानों के बावजूद, विनया के साथ साझेदारी और समर्थन की दिशा में बढ़ रही है, लेकिन उसके अंतर्निहित डर ने उसे आगे बढ़ने से रोक रखा है।

उसका अहसास, विनया को उसके अहमियत का पूरा समर्थन दे रहा था। लेकिन अभी खुद के अस्तित्व के अहमियत को संपदा के लिए जानना समझना जरूरी था, तभी वो स्वयं के अंदर साहस जगा सकती थी।

“कल की आई लड़की मुझे ताने दे रही है। मेरे कारण ही तुम इस घर में आई हो और तुम…, मुझे खाना ही नहीं खाना है। इस लड़की के आते ही मेरा मायका खत्म हो गया”… बुआ को गुस्से में शब्द नहीं मिल रहे थे और वो कुर्सी खिसका कर खाना छोड़ उठ खड़ी हुई। एक तरह से उन्होंने ब्रह्मास्त्र दागा था, जो सीधा मनीष को बेंध गया।

“बड़ों से बात करने का ये क्या तरीका है विनया।” बुआ भक्ति में मनीष भी कुर्सी खिसका कर खड़ा हो गया था। 

“मैं समझी नहीं।” विनया मनीष के ऑंखों में ऑंखें डालकर पूछती है।

“इस तरह, ताना देकर।” मनीष विनया और अंजना के थोड़ा करीब आकर कहता है।

“क्यों इसमें ताना कैसे हो गया। मैंने क्या कोई गलत बात कह दी है मनीष। अपने मायके का हर पल ध्यान रखना, आपको और दीदी को कैसे रहना है, क्या बोलना है का सही गलत समझाना, पापा जी की सारी जिम्मेदारी अपने सिर लेकर निर्णय लेना, वो भी तब जब खुद के घर पोता हुआ हो और उसकी देखभाल के बदले हमारी देखभाल के हमेशा उपस्थित रहना, लगभग हमउम्र भाभी को उनकी गलती का अहसास करा कर सुधारते रहना, ये बुआ का प्यार ही है ना मनीष, ताना तो नहीं है ना, फिर मैंने इसे प्यार कहके क्या अपराध कर दिया, बताना जरा।” विनया मनीष के सामने सवालों के बौछार कर खड़ी थी और मनीष को उसकी इन प्रश्नों का उत्तर समझ नहीं आया। उसे समझ नहीं आया कि ये बुआ का प्यार होता है या बुआ के द्वारा दिए गए ताने होते हैं।

अभी बातें खत्म भी नहीं हुई थी कि संपदा के पापा अपना खाना खत्म कर उठे और हाथ धोकर अपने कमरे की ओर बढ़ गए। उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था मानो इस समय वहाॅं सिर्फ वही उपस्थित हो और बाकी सब नगण्य हो।

संपदा चुपचाप बारी बारी से सभी को देख रही थी और उसे इस समय कोफ्त हो रही थी तो अपने पापा को देखकर, घर के मुखिया होकर भी कैसे इतने निर्विकार रह सकते हैं। उसने जब से इस घर में बुआ का हस्तक्षेप देखा, पापा को निर्विकार ही देखा है। दफ्तर के बाद स्कूल की फीस और घर की सब्जी से ज्यादा उन्हें घर का होते उसने नहीं देखा था। कल तक तो ये उसे स्वाभाविक लग रहा था लेकिन आज उसे ये अहसास हो रहा था कि घर के मुखिया का इसके अलावा भी कई भूमिकाऍं होती हैं और जिस घर का मुखिया इस बात को समझ जाता है, उस घर में बहुत हद तक हॅंसी खुशी का माहौल रहता है। 

“कुछ बोलेगा मनीष या इसकी बकवास सुनता रहेगा।” बड़ी बुआ झल्ला उठी थी।

“बुआ, आपके इस प्यार के आगे तो मैं भी नतमस्तक हूॅं तो इसे क्या कहूं।” मनीष जो अभी विनया के सवालों में ही उलझा था, बुआ से कहता है।

अंजना अवाक सी मनीष को देख रही थी, जो लड़का बुआ के खिलाफ एक शब्द नहीं सुन सकता था, चाहे वो उसकी माॅं ने ही क्यों ना कहा हो, वो अभी विनया की बातों में उलझ गया था। अंजना एक नजर संपदा पर भी डालती है क्योंकि उसके चेहरे का इत्मीनान और मुस्कान कुछ अलग कहानी ही बयान कर रहा था। उसका चेहरा बता रहा था कि उसे मनीष का इस तरह चुप्पी धारण कर लेना बहुत ही अच्छा लग रहा था।

अंजना को एक पल के लिए विनया में खुद का अक्स दिखने लगा क्योंकि वो भी तो कभी इसी तरह स्टैंड लेना चाहती थी, अपने परिवार का बिखराव रोकना चाहती थी लेकिन पति की चुप्पी ने उसे हमेशा पराजित महसूस कराया और कालांतर में उसने चुप्पी ही धारण कर लिया था, अगर उसने सही समय पर सही शब्दों का चयन किया होता तो अपने घर को इस बिखराव से बचा सकती थी। अंजना के मन में, हृदय में उथल–पुथल सी होने लगी थी और वो इस उथल–पुथल से बचने के लिए विनया को अपने बगल से हटाती हुई रसोई में चली गई।

“आप का जवाब बचा हुआ है मनीष। जवाब जरूर दीजिएगा।” कहती हुई विनया दोनों बुआ पर दृष्टिपात करती अंजना के पीछे भागी।

आरती झा आद्या

दिल्ली

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4 thoughts on “अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 14) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi”

  1. lekhika g se mera nivedan hai ki is kahani ke anye bhag ko thoda jaldi jaldi prakashit karen kyunki isko adha adhura padh kar age padhne ki ichha ati tivr ho jati hai

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