अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 12) – आरती झा आद्या : Moral Stories in Hindi

“तो मिस संपदा, आपकी भाभी गेम में आपसे आगे चल रही हैं। क्या आप इस गेम को जीतना चाहेंगी और बताना चाहेंगी कि आपकी भाभी मिसेज विनया को खाने में क्या–क्या पसंद है।” टेबल पर रखे अखबार को रोल कर माइक की तरह बनाती दीपिका संपदा के सामने करती हुई कहती है।

“उस दिन रात में भाभी आलू परांठे बना रही थी, शायद उन्हें भी वो ही पसंद हैं।” संपदा सकुचाते हुए धीरे से कहती है।

“अच्छा, विनया दीदी आलू परांठे…इसका मतलब है कि उन्हें बहुत तेज भूख लगी थी। कोई बात नहीं, होता है, कभी कभी हम सामने वाले की पसंद–नापसंद नहीं जान पाते हैं।” दीपिका ऑंखें बड़ी करती हुई विनया के आलू परांठे के प्रकरण को सुन कर रोल किए अखबार को वापस टेबल पर रखती हुई कहती है।

“सॉरी भाभी, मुझे उनकी किसी भी पसंद का अंदाजा नहीं है।” संपदा नजरें नीची कर कहती है। उसके लिए फिलहाल ये सब चीजें गहरी खाई से निकलने वाली बातें थी। किसी की पसंद–नापसंद जानकर करना ही क्या है, संपदा का दिमाग यही प्रतिक्रिया दे रहा था। उसने तो यही देखा था कि घर की बहू का फर्ज है सबकी रुचियों को ध्यान में रखते हुए सारे कार्य करना और उसमें वह कभी ये नहीं सोच सकी कि एक दिन वो भी बहू बनेगी तो क्या अपनी सारी रुचियों की तिलांजलि दे देगी। क्या उसका हृदय अपनी इच्छाओं के लिए नहीं मचलेगा। आखिर अतीत के पूर्वाग्रह से निकलना इतना भी आसान कहाॅं होता है। उसे यह शिक्षा मिली ही नहीं कि हमें अपने पूर्वाग्रहों और सीमित सोच से बाहर निकलना होता है ताकि हम अन्य लोगों के अनुभवों को समझ सकें और एक नए दृष्टिकोण को स्वीकार कर सकें। 

संपदा को यहाॅं का माहौल अच्छा भी लग रहा था, रह–रहकर इसकी तुलना वो अपने घर के रुआंसे माहौल से भी कर रही थी लेकिन दिमाग का एक भाग उसे उसके जीवन भर के विचारों की पूंजी को छोड़ने भी नहीं दे रहा था। अब जब वो अपने घर जाएगी और वहाॅं उसका व्यवहार बताएगा कि उसने सामंजस्यबद्धता का कितना गुण आत्मसात किया है। अभी तो वो कभी इस नाव कभी उस नाव की सवारी कर रही थी।

“कहाॅं खो गईं आप, इसमें माफी वाली कोई बात नहीं है। जब जागो तभी सवेरा की तर्ज अभी हाथों हाथ जान लीजिए कि “जादू की छड़ी” अर्थात् आपकी भाभी को क्या–क्या पसंद है। आइए, किचन में ही चलते हैं।” दीपिका संध्या के निर्देशानुसार रसोई की ओर देखती संपदा से कहती हुई खड़ी हो गई।

“भाभी आप सच में चावल, दाल और सलाद खाती हैं क्या?” डाइनिंग टेबल पर हॅंसी मजाक के बीच संपदा विनया से पूछती है।

“और क्या, तभी तो दुबली पतली स्मार्ट काया की मल्लिका हैं ये। खाता–पीता शरीर देखना हो तो, मुझे देखो।” विनया के बदले दीपिका अपने गोल मटोल शरीर के बारे में कहती हुई उत्तर देती है।

“बच्चे, ये हमेशा स्वास्थ्य को लेकर सजग रही है। इसलिए हमेशा से इसका खान–पान नियमित रहा है और हम दोनों सास–बहू चटोरे किस्म की हैं। दिख ही रहा है।” संध्या दीपिका की ओर प्यार से देख कर कहती है।

“दीदी ये दोनों कुंभ के मेले में बिछड़ी माॅं–बेटी हैं। अब इस जन्म में आकर इस घर में मिली हैं।” विनया संपदा से मुस्कुरा कर कहती है।

“कहीं से जलने की बदबू आ रही है ना मम्मी। कोई तो उबाल खा रहा है।” दीपिका हॅंसने लगी थी।

“आप लोग के यहाॅं कोई बुआ नहीं हैं ना, इसलिए आपलोग”…..

“हाहाहाहा” संपदा की बात पूरी नहीं हुई थी कि संध्या के साथ साथ दीपिका और विनया भी ठहाका लगाकर हॅंस पड़ी।

“किसने कह दिया कि बुआ नहीं हैं। बुआ भी हैं, जैसी होनी चाहिए बिल्कुल वैसी ही हैं।” दीपिका ऑंखें मटका कर कहती है।

“वो भी तो आपलोग जैसी ही होंगी न, एकदम अलमस्त। हमारे यहाॅं तो।” बोलते हुए संपदा की ऑंखें पनीली हो गई थी।

“अरे दीदी, दीदी…फिकर नॉट। आप अगर मेरा साथ दीजिए तो हम दोनों मिलकर अपने घर को भी घर बना सकती हैं।” विनया झट से उठकर संपदा को बाॅंहों में भरती हुई कहती है।

दीपिका उंगली से थम्स अप का साइन बनाती हुई विनया की ओर देखती है। आखिर तीर निशाने पर लगा था। जबकि इतनी जल्दी तीर संपदा के हृदय को बेंध कर सच्चाई दिखाएगा, ये तो विनया ने भी नहीं सोचा था। 

विनया के ममतामयी आलिंगन और मुस्कान में छुपे हुए हर्ष ने संपदा के दिल को छू लिया, उसे ऐसा लगा जैसे कि एक सूरजमुखी ने अपने पेटल से मिठास को निकाल कर उसके चारों ओर छिड़का हो। समय थम गया, पर दोनों के बीच एक अजीब सी भावना बढ़ती जा रही थी, जो शब्दों से परे थी। दोनों की संवेदनाऍं एक-दूसरे से बोल रही थी जैसे सूनी रेत में छिपे हुए कई किस्से बता रही थी। एक साथ सवारी करते हुए वे अपने भविष्य की दिशा में यात्री बन रही थी, जिसकी उत्साही मुसाफिरी ने नई संभावनाओं की ओर आशाएं बढ़ा दी थी। उनकी आशाएं और सपने समान थे और दोनों की धड़कनें मिलकर एक नए क्षितिज की ओर बढ़ रही थी जैसे कि समुद्र ने अपनी लहरों से उनकी यात्रा को साकार किया और वे भी अपने सपनों की महकती हवा में तैरती जा रही थी। विनया अपने सपनों को नई ऊँचाईयों तक ले जाने के लिए प्रतिबद्ध थी और सामने बैठी दीपिका के चेहरे की चमक भी उसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर रही थी।

“भाभी, कितना अच्छा है ना आपके यहाॅं। बेधड़क बोलो, हॅंसो।” शाम में घर लौटते हुए कैब में विनया के घर पर बिताए गए पलों को जेहन में संजोए हुए बाहर की दुकानों में जलती रौशनी को देखती हुई संपदा कहती है। भाभी ये रौशनी देख रही हैं रुई के फाहों सी नर्म मुलायम लग रही है। शाम के चौखट पर उतरते अंधेरे को अपने में समेटे कितना सुकून पहुॅंचा रही है। ऐसा लग रहा था इस समय संपदा नहीं बल्कि उसकी वाणी में दिनभर के हॅंसी भरे पलों का संगीत छुपा हुआ बोल रहा था।

“और दीदी, आपकी हॅंसी कितनी सुंदर है। आज मैंने पहली बार गौर किया कि आप हॅंसती हुई कितनी हसीन हो जाती हैं। बस गड़बड़ ये हुआ कि उस समय की तस्वीर नहीं ले सकी। नहीं तो बिग पिक्चर बना कर कमरे की दीवारों की शोभा बढ़ाती।” विनया संपदा को उसकी हॅंसी की याद दिला रही थी।

“नहीं नहीं भाभी ऐसा मत करिएगा। बुआ गुस्सा हो जाएंगी। उन्हें दीवार गंदा करना बिल्कुल पसंद नहीं है और भाभी मैं आपके साथ आपके घर गई थी, उन्हें पता नहीं चलना चाहिए।” संपदा के चेहरे पर भय की छाया आ गई थी और ये कहते हुए वो झेंप भी रही थी।

भाभी आपका घर सचमुच बहुत ही मैजेस्टिक है। आपके घर की रौशनी और शांति का मिलन आश्चर्यचकित कर देने वाला है भाभी।” संपदा बाहर की दुकानों की लाइट्स को देखकर कहना जारी रखती है, “और वहाँ का सुकून भी कुछ अलग ही है। ऐसा लग रहा था जैसे दीवारें भी आप लोगों के साथ हॅंस रही हैं। भाभी, अपने घर को भी मैजेस्टिक बना दीजिए ना।” बोलती हुई संपदा भावातिरेक में विनया का हाथ पकड़ लेती है।

विनया, संपदा के हाथ को महसूस करती हुए और कस कर थाम लेती है और संपदा को विनया के हाथ का कसाव एक नया आधार सा बनता हुआ महसूस हो रहा था। उसके दिल ने अनुभव किया ये कसाव न केवल उनके घर को बल्कि उनकी दोस्ती को भी मजबूती से जोड़ रहा है।

आरती झा आद्या

दिल्ली

अंतर्मन की लक्ष्मी भाग 11

अंतर्मन की लक्ष्मी ( भाग – 13)

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