अंतर्वेदना – सरिता गर्ग ‘सरि’

    बिस्तर पर पड़ी सिलवटें  उसके मन की सिलवट बन गईं। रात भर की थकन उदासी,और शिथिलता ओढ़े , मन में हवा के टूटे पंखों की छटपटाहट लिए बेजान पैरों से चलती वो , हवा में  रात का ठहरा हुआ जहर पीती सूर्योदय से पूर्व ही सागर-तट पर चली आई। दूर समुद्री पक्षी लगातार चीख रहे थे, जाने उनका क्या खो गया था। शायद उसके अन्तर्मन को खंगाल उसके मन का शोर बाँट रहे थे।सामने  सागर की लहरों पर मचलता , कभी मंथर गति से बहता जहाज उसकी अंतर- वेदना ढ़ोता दूर होता जा रहा था।

            जब अंतर का ज्वार सैलाब बनकर विनाश पर उतर आता  वह अक्सर यहॉं चली आती । दूर तक फैली सूखी रेत के कण उसकी आँखों में बेजान सफेदी भर रहे थे। एक तरफ रेतीले कण दूसरी तरफ नीला गहरा समंदर स्याह पर्वत की तलहटी पर सिर पटक रहा था। वह सोचने लगी क्या इस भू -मंडल पर मैं ही एक अकेली तन्हा और दुखी हूँ।

आज प्रकृति की हर शय उसका दुख ओढ़े उदास प्रतीत हो रही थी। अचानक नीला आकाश श्याम वर्णी

बादलों से भरने लगा। वो सोचने लगी जाने किस दुख से व्याकुल ये एक दूसरे पर चढ़ते अपने बचाव के लिए भागे जा रहें है या जाने किसका दुख बांटने की इनमें होड़ लगी है।

      कोई जल पक्षी उसके ऊपर से चीत्कार करता गुजर गया, वह सिहर उठी,क्या यह भी कोई यातना भोग रहा है। हर पल दहकते अंगारों पर चलती आई ,जिंदगी की विसात खोले शून्य में देखती उसकी आँखें पानी में डूबकर दरिया हो गईं। तब उसने आँखों में कुछ अडोल-सा  भर कर,गहराते समंदर को अपनी पीड़ा सौंप दी । अपने हिस्से का चाँद, हवा और रोशनी लेकर ही लौटूंगी और यह

बुदबुदाते हुए धीरे -धीरे कदम बढ़ाती

वो चेतनाहीन सी गहरे सागर में उतर गई।

सरिता गर्ग ‘सरि’

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!