आप मेरे बच्चे हैं – विनय कुमार मिश्रा 

मैं बड़ा होता गया और पापा बूढ़े, ना चाहते हुए भी धीरे धीरे उनसे लगाव कम होता जा रहा है। मैं चाहता हूँ कुछ देर बैठूँ उनसे बातें करूँ पर वो एक ही बात की रट लगाने लग जाते हैं। उन्हें लगता है मैंने सुना नहीं। सुनाई उन्हें कम देता है तो मुझे भी कुछ कहने के लिए जोर से बोलना पड़ता है या एक ही बात को दस बार। मैं चिड़चिड़ा हो जाता हूँ उस वक़्त। इसलिए मैं बचने लगा हूँ उनसे। चाहता हूँ कि उनसे कम ही बात करनी पड़े। वैसे अब वो भी माँ के जाने के बाद थोड़ा गुमसुम ही रहने लगे हैं। इधर कुछ महीनों से मैं सिर्फ सुबह शाम एकबार देख आता हूँ उनके कमरे में। बीमार रहने लगे हैं अब। कमरे से बदबू भी आती है। एक लड़का रख रखा है हमने देख भाल करने के लिए। बोला है आज देर से आएगा। उसने अपने लिए एक पुरानी जैकेट मांगी है। वही ढूंढ रहा था तो आलमारी से बचपन की सुनहरी यादें गिर पड़ी, जिसे मैं पलटता चला गया..और उस एलबम का हर पन्ना मुझे कचोटता।

पापा के घर आते हीं ना जाने कितने सवाल रहते थे मेरे पास। थके रहते थे वे, पर खीजते नहीं थे। सुनते थे, जवाब देते थे। मेरे साथ खेलते थे, मुझे हँसाते थे। सुपर पापा थे तब ये मेरे।

ना जाने कितनी बार मुझे खुद से नहलाया होगा, मेरी गंदगी साफ की होगी। जब भी बीमार पड़ा मैं तो ये रात भर सो नहीं पाते थे।


जब पहली बार मेरे लिए इन्होंने बाइक लिया था और सीखते वक़्त मेरे माथे में चोट आ गई थी तो अपने सुपर पापा की आँखों में पहली बार आँसू देखा था।

आज मेरे भी आँखों में पहलीबार कुछ उतर सा आया। पूरी एलबम भी पलट ना सका मैं और तेज कदमों से पापा के कमरे में चला आया। पापा शायद बहुत देर से अपने गीले हो चुके कपड़ों के साथ उठने की कोशिश कर रहे थे। मुझे देख एक गुनहगार की तरह सहम गए। मैं जाकर उनसे लिपट गया।

“कोई बात नहीं पापा! मैं हूँ ना, अभी चेंज कर देता हूँ”

“नहीं.. नहीं तुम कैसे..करोगे..बेटे..”

“क्यूँ पापा! आप करते थे ना जब मैं बच्चा था…अब आप..मेरे बच्चे हैं..!”

 

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