hindi stories with moral : ‘
सुमन आज और दिनों की अपेक्षा और जल्दी हाथ चला रही थी। उसकी सास अलका और ननद रजनी ये देख रहे थे और बातों ही बातों में ताने भी मार रहे थे।
“इसके मां बाप ही आ रहें हैं गांव से और वो लोग भी खेती ही करते हैं, कोई गांव के जमींदार नहीं हैं जो उनके आवभगत की इतनी तैयारी की जा रही है”
“मांजी, वो लोग चारधाम की यात्रा पर जा रहें हैं बस यहां से गुजरते हुए सिर्फ मुझसे ही मिलने आ रहें हैं। कुछ ही देर में चले जायेंगे। एक रात भी यहां नहीं ठहरेंगें..!”
“हां तो कौन सी अनोखी बात है, बेटी के घर का तो पानी भी नहीं पीना चाहिए..!”
“मांजी, गांव के सरकारी विद्यालय से पढ़ाई हुई है मेरी पर इतना तो मैं भी समझती हूं कि आजकल ऐसा नहीं होता, क्या हम रजनी दीदी के घर नहीं जाते तब तो दीदी नाना प्रकार के व्यंजन बनाती हैं आप लोगों के लिए..!”
“रजनी से क्या मुकाबला कर रही है अपना, भर भर के दिया है उसकी शादी पर हमने उसके ससुराल वालों को और तू क्या लाई चार चिथड़े और सड़ा सा फर्नीचर… सुनील को क्या दिया उन लोगों ने, धागे सी चेन और पतला सा छल्ला और हम सबको तो चांदी में ही निपटा डाला..”
“उफ्फ मांजी, खेतों का अंबार नहीं है मेरे पिता के पास, ज़मीन का टुकड़ा भर है, मैं तो सोचती हूं कि ना मैं होती और ना ही मेरी वजह से बुढ़ापे में उनकी कमजोर कमर और झुकती। मेरी जगह अगर बेटा होता तो कम से कम आज अपना जीवन तो शांतिपूर्वक बिताते, यूं सब बेचबाच के सारी उमर की यात्रा पर तो नहीं निकलते..”
“भाभी को तो भईया ने ही सर चढ़ा रखा है, वरना अपनी सास से ऐसे कौन बात करता है..!”
इस कहानी को भी पढ़ें:
चंपी–नीरजा कृष्णा
“हां, रजनी मैंने ही तेरी भाभी को गलत को गलत और सही को सही बोलने की हिम्मत दी है, तू अपने घर में अविनाश को नहीं बोलने देती तो इसका मतलब ये नहीं कि सभी पति पत्नि का रिश्ता तुम लोगों जैसा हो, और मां आप ये इतनी ज्ञान की बातें जानती समझतीं हैं तो क्यूं अपनी नहीं बेटी को भी थोड़ी शिक्षा देती कि सारा दिन मायके में पड़ी लगाई भुजाई करती रहती है, इसकी जगह अपना परिवार संभाले, अपने पति को इज़्ज़त दे..!”
“अरे, अरे कैसी बातें कर रहा है, इस औरत का ऐसा जादू चला है तुझ पर की अपनी मां बहन को ही गलत कह रहा है, इस गांव की गंवारन के साथ रहकर तू भी निरा गंवार हो गया है क्या…” अलका बहुत क्रोध भरे में बोली।
“गंवार, गंवार वो नहीं होते मां जो गांव में रहते हैं, गंवार वो होते हैं तो अपनी झूठी अकड़,शान और अहंकार के चलते दूसरे को नीचा दिखाते हैं, मुझे समझ नहीं आता कि आपको सुमन से समस्या क्या है, सुघड़, सुशील लड़की है, पूरे परिवार को इज़्ज़त देती है, सभी की सुख सुविधाओं का ध्यान रखती है और क्या चाहतीं हैं आप…?”
“ये सब करती है तो कुछ अनोखा नहीं करती, शहर की लड़की से ब्याह करता तो दहेज़ भी मिलता और नौकरी करके हजारों महीना भी कमाकर देती…समझा” अलका ज़हर से सने स्वर में बोली।
सुनील व्यंगात्मक स्वर में हंस पड़ा।
“ओह मां, किसी भी इंसान का व्यवहार उसके साथ रहे बिना परखा नहीं जा सकता, और अगर ऐसा ना होता जैसा आप कह रहीं हैं तो क्या करती आप..?.. अगर वो लड़की मुझे अपने परिवार से अलग होने को कहती तो तब आप कहती कि शहर की लड़की से अच्छा था कि हम गांव की भोली भाली लड़की ले आते… मां हर पल अपने हिसाब से ज़िंदगी जीने के विचारों को बदलना नहीं चाहिए।”
“सुमन, बाबूजी और मांजी आ रहें हैं और ये घर सिर्फ मेरा नहीं तुम्हरा भी है और यहां सिर्फ उनकी बेटी ही नहीं बेटा भी रहता है तो वो लोग यहां से खाए पिए बिना नहीं जाएंगे, समझी तुम”
सुमन की रूलाई फूट पड़ी।
“मां गंवार ना वो लोग हैं ना आपकी बहू गंवार है, अपनी सोच बदलो मां, सच का आईना देखो, सोचो उन लोगों का कितना जी चाह रहा होगा कि वे भी अपनी बेटी के साथ समय गुजारें, अपने सुख दुःख सांझे करें, आप भी एक बेटी की मां हैं तो आप तो और अच्छी तरह से इन भावनाओं को समझ सकतीं हैं”
तभी दरवाज़ा खटका।
“सुमन, दरवाज़ा खोलो, समधी समधन जी आएं हैं, कुछ दिन अपने पास रोके बिना उन्हें जाने नहीं दूंगी” अलका मुस्कुराते हुए बोली।
अलका और सुनील भी एक दूजे को देखकर मुस्कुरा दिए। खोखले विचारों की धूल झड़ चुकी थी और उज्जवल विचारों का आईना सभी के समक्ष चमक रहा था।
जगनीत टंडन,