आहुति – विनोद साँखला

” भला ऐसे भी कोई अपनी जान थोड़े ना दे देता है, ज़रूर इसका शहर में किसी ना किसी के साथ कोई टांका ज़रूर भिड़ा होगा..”

मिसेज़ चौबे ने अपनी राय दी।

” हाँ-हाँ बहनजी मैंने भी सुना है की शहर में रहकर शराब भी पीने लगी थी” मिसेज़ बघेल ने भी हाँ में हाँ मिलाई।

लेकिन वो आँखें तो शून्य की भांति उसकी पार्थिव देह को घूरे जा रही थी, आँसुओं का सैलाब भरा पड़ा था उन आँखों में, लफ्ज़ जैसे हलक में जम गए हो, किंतु आस-पास पड़ोसियों और रिश्तेदारों की खुसर-पुसर उसके कानों से टकरा कर बहुत ही आहत कर रही थी..

होता भी यही है कि आत्महत्या जैसा कदम यदि कोई लड़की उठा ले तो सबसे पहली उँगली उसके चरित्र पर ही उठती है।

लेकिन आँसुओं के समंदर से भरी उन आँखों में अतीत के वो दृश्य चलचित्र की भांति विचरण करने लगे..।

कितनी खुश थी 2 महीने पहले बिटिया बरखा अपने जन्मदिन पर, झूम झूम कर नाच और गा रही थी, एक चिड़िया की तरह पूरे घर आंगन में चहक रही थी।

क्योंकि चार दिनों बाद पीएमटी का रिज़ल्ट जो आने वाला था, डॉक्टर बनने के सपने की पहली सीढ़ी जो चढ़ना थी उसे..

बेटी बरखा और उसकी बचपन की सहेली सयाली, दोनों ही बचपन से साथ पली-बढ़ी और साथ ही पढ़ाई भी पूरी की, सपने भी साथ ही देखे और दोनों साथ ही शहर जाकर तैयारी जो की थी..

फर्क सिर्फ इतना था कि बरखा ने प्रायवेट संस्थान में दाखिला लिया, और सयाली के पापा ने उसे सरकारी योजनाओं का लाभ दिलवाकर सरकारी संस्थान में दाखिला दिलवा दिया..



आखिर वो दिन भी आ गया जब परीक्षा परिणाम सामने था..!! 79 प्रतिशत नम्बर लेकर भी बरखा का चयन नहीं हुआ, और उसके मुकाबले बहुत ही कम प्रतिशत पाकर भी सयाली चयनित हो गई।

बस उसी दिन से बुरी तरह टूट गई थी बरखा, पूरे घर में चहकने वाली अब गुम सी हो गई थी, आँसू भी सूख चुके थे उसके। जैसे बरसों का सूखा पड़ा हो उसकी आँखों मे..

 

शायद खुद के दुख से ज्यादा पापा के सपनों को पूरा न कर पाने का दुख था उसे, जो उसकी पढ़ाई के लिए कर्ज़ के बोझ तले दबे हुए थे..। लेकिन बावजूद इसके वो हरदम अपनी बिटिया को हिम्मत ही बांधते और कहते..

 

” कोई बात नहीं बेटी, हिम्मत ना हार.. मैं हूँ ना..!!

” चलो-चलो..उठो अंतिम यात्रा का समय हो गया “

इन आवाज़ों से उसकी तंद्रा भंग हुई और वर्तमान में लौट आई..

सभी लोग उसकी पार्थिव देह को कांधा देने को आतुर हो रहे थे, लेकिन एक माँ की आँखें उसे जाते हुए देख फूट-फूटफूट कर दहाड़े मारने लगी..

वो देह उसकी बिटिया की नहीं बल्कि उसके परिवार के हर सदस्य के अनगिनत अरमानों की थी..

जो आज उन सबकी सिसकियों के जरिये आँखों से अविरल बह रहे थे।

वो देह उस सिस्टम की थी जो हर वर्ष ऐसे योग्य छात्रों को ऐसा कदम उठाने के लिए छात्रों को मज़बूर करता  है..!!

बरखा को अंतिम यात्रा पर जाते देख वहाँ मौजूद हर आँख से अश्रुओं की धारा बह रही थी, और बाहर मेघ भी पूरे सावन के सूखे के बाद आज जम कर बरस पड़े..

शायद यह हृदय विदारक दृश्य देख आसमान भी रो पड़ा हो..

और..

वहीं दूसरी ओर आर्थिक आधार के बजाय जातिगत और कुर्सी पाने की लालसा के कारण राजनीतिक शरण के आधार पर फ़लीभूत हुआ दानव रूपी आरक्षण, कोने में खड़ा जोरों से अट्टहास लगा रहा था..। क्योंकि उसे क्षुधा शांत करने हेतु बरखा रूपी आहुति जो मिल चुकी थी।

 

©विनोद साँखला

#कलमदार

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