याचक – डा. पारुल अग्रवाल  : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : पापा के जाने के बाद परिवार में भाइयों में संपत्ति के विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ा कि वो मां को भी तभी रखने को तैयार थे जब नूतन अपने हिस्से को भी भाइयों के नाम कर दे। नूतन को अपना हिस्सा देने में भी कोई समस्या नहीं थी पर वो तो सिर्फ मां को लेकर परेशान थी। वो तो चाहती थी कि मां उसके साथ ही रहें। वो पूरे आत्मसम्मान के साथ मां को रखना चाहती थी पर आज भी हमारी मानसिकता ऐसी है कि माता-पिता बेटी वो भी अगर विवाहित हो तो उसके साथ रहना तो दूर उसके घर खाना-पीना भी वर्जित समझते हैं।

 जब मां उसके साथ रहने को तैयार ही नहीं थी और इस उम्र में उनके लिए अकेला रहना भी संभव नहीं था। तब मां की अच्छी देखभाल के लिए नूतन ने कई नज़दीकी रिश्तेदारों की उपस्थिति में संपत्ति के सभी कागज़ात पर हस्ताक्षर कर अपना हिस्सा भी भाइयों को देने का फैसला किया। 

नूतन को अपने इस फैसले पर जरा भी दुख नहीं था पर मन ही मन उसको सिर्फ एक ही बात कटोच रही थी कि जो भाई-बहन बचपन में एक ही थाली में खाना खाने में भी नहीं हिचकते थे। अगर एक भूखा हो तो अपने हिस्से का खाना भी उसको देने में भी कोताही नहीं बरतते थे पर बड़े होने पर माता-पिता की मेहनत से कमाई संपत्ति में भी हिस्सा चाहते हैं और एक दूसरे से इतनी जलन रखते हैं कि किसी के पास ज़मीन-जायदाद का एक इंच भी अधिक ना चला जाए।

वो तो अपने हिस्सा भाइयों को देने का मन बना ही चुकी थी पर कुछ रिश्तेदारों की बातें भी उड़ती-उड़ती उसके कानों में पड़ी। नूतन ने सुना कि वो लोग कह रहे थे कि अगर वो अपना हिस्सा भाइयों को दे भी रही है तो कौन सा एहसान कर रही है क्योंकि उसकी शादी और पढ़ाने-लिखाने में भी तो माता- पिता का बहुत खर्चा आया था।

कुछ का तो ये भी कहना था कि नूतन और उसका पति तो अच्छा खासा कमाते हैं लडकियों को अगर अपना मायका माता-पिता के बाद भी बनाकर रखना है तो उसको इतना तो करना ही पड़ेगा। लोगों की इस तरह की बातें उसके दिल को दुखी कर रही थी। उसने तो कभी अपने ससुराल और मायके दोनों जगह लेने देने का कभी भी हिसाब नहीं रखा था। वो अभी ये सोच ही रही थी कि इतने में जो वकील पापा की वसीयत के सारे कागज़ात का काम देख रहे थे उन्होंने उसके सामने कुछ पेपर्स पर हस्ताक्षर करने को कहा। 

उन पेपर्स पर जो लिखा था वो पढ़कर उसके चेहरे पर एक सुकून भरी मुस्कान आ गई। असल में जहां जहां उसे हस्ताक्षर करने थे वहां दानकर्ता लिखा था और जहां भाइयों के नाम लिखा था वहां कोष्ठक में याचक का नाम लिखा था। ये देखकर आज उसे अपने पापा की एक बात याद आ गई थी।

बचपन से लेकर बड़े होने तक,यहां तक की शादी और बेटी होने के बाद भी वो ही सबके लिए उपहार खरीदती आई थी। वो किसी का जन्मदिन हो या कोई और आयोजन उसमें सबके लिए बहुत प्यार से उपहार खरीदती और देती थी पर पता नहीं क्यों जब उसका जन्मदिन या कुछ और अवसर होता तो कोई उसको उपहार देने में इतना उत्साह नहीं दिखाता था।

यहां तक कि उसकी सास भी कुछ जेवर देती तो नूतन को कहती, चाहो तो अपनी बेटी के लिए उठा कर रख दो। नूतन को मन ही मन थोड़ा अजीब लगता। कई बार उसे लगता कि सबकी नज़रों में उसकी कोई अहमियत नहीं है। इन सबके चक्कर में उसके मन में कई बार दूसरों के लिए जलन की भावना भी आ जाती क्योंकि उसको लगता कि उसके आस-पास उसे प्यार देने वाले बहुत कम लोग हैं। 

एक दिन जब वो यही सोच सोचकर बहुत परेशान थी तब उसने अपने पापा को भी अपना ये दुख कह सुनाया तब उन्होनें उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा बेटा तू तो बेशकीमती है और जो इतना कीमती हो उसको भला कोई क्या उपहार दे सकता है। तेरे को तो भगवान का शुक्रिया करना चाहिए कि तेरे हाथ हमेशा देने के लिए ऊपर होते हैं,लेने के लिए झुकते नहीं हैं। मैं तो यही प्रार्थना करूंगा कि तेरे पास किसी भी वस्तु की कमी ना हो। पूरी ज़िंदगी भगवान का आर्शीवाद तेरे ऊपर बना रहे। 

अपने पापा की बात सुनते ही नूतन के मन में सुखद अनुभूति ने जन्म ले लिया था। उस दिन के बाद उसके मन में ना तो किसी के लिए कोई जलन पैदा हुई,ना ही उसने किसी से कुछ लेने की इच्छा रखी। आज कचहरी में भी वो पेपर्स देखकर उसको पापा का आर्शीवाद याद आ गया और अभी तक नाती रिश्तेदारों की जो बातें उसके दिल और मन को चोट पहुंचा रही थी उन बातों को उसने अनसुना कर दिया।

बस वहां से चलते हुए उसने सबको इतना ज़रूर कहा कि बेटियां तो आप सबके भी हैं,पढ़ाई-लिखाई और शादी में तो बेटों की भी खर्चा होता है पर हिस्से और जायदाद की बात आते ही बेटी को बिल्कुल पराया कर देना ये ठीक नहीं है।अगर सरकार ने बेटियों की बराबरी का कानून बनाया है तो उसका पालन भी करना चाहिए।

बेटी के पैदा होने में भी बेटे के जितना ही समय लगता है फिर उसके साथ रहने में संकोच कैसा? वैसे तो संतान चाहे बेटा और बेटी कोई भी हो उसकी इतना सक्षम तो होना चाहिए कि वो माता-पिता की मेहनत की कमाई संपत्ति पर अपना अधिकार समझे बिना निस्वार्थ भाव से उनकी सेवा करें। शायद तभी वसीयत के ऊपर झगड़े कम होंगे और बड़े होने पर उनमें शायद जलन की भावना भी जन्म नहीं लेगी।

दोस्तों कैसी लगी मेरी कहानी? अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें। जलन मानव स्वभाव का एक प्राकृतिक गुण है पर कई बार समय पर मिली सीख इसको भी सकारात्मक रूप दे देती है।

 

डा. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

#जलन

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