*विश्वास का हाथ* –  नम्रता सरन “सोना”

“आशी, बेटा ,ज़रा पापाजी को चाय बना दे बेटा, मेरे पैर मे बहुत दर्द है” राजेश्वरी जी ने बहू को पुकारा।

“रहने दे बेटा, मुझे नहीं पीनी चाय” असीत जी जल्दी से बोले।

“आप नही सुधरेंगे, आपको मेरे हाथ की चाय ही पीना है, है न” राजेश्वरी जी ने तिरछी नज़रों से पूछा।

“जब मालूम है तो पूछ क्यों रही हो” असीत जी शांतिपूर्वक बोले।

“कभी तो आराम कर लेने दिया करो, ये मुआ पैर दर्द बढ गया है, इसलिए बहू से बोल रही थी” राजेश्वरी जी कराहते हुए बोलीं।

“अब ज़रा हाथ तो दो, पकड़कर उठ पाऊंगी”राजेश्वरी जी ने हाथ बढ़ाते हुए कहा।

“लीजिए जनाब, हाज़िर है हमारा हाथ, सदा तुम्हें उठाने के लिए” असीत जी ने हाथ पकड़कर उठाते हुए कहा।

“अरे, ध्यान से ,कहीं छोड़ न देना” राजेश्वरी जी घबराते हुए बोलीं।

“ये तुम्हारे विश्वास का हाथ है, इसकी पकड़ इतनी कमज़ोर नही, आंss,हाँ..शाबास” असीत जी ने राजेश्वरी जी को उठाकर खड़ा कर दिया।

“अब जाईये, अपने हाथों की कड़क चाय बनाकर पेश कीजिये”असीत जी मुस्कुराते हुए बोले।

“लाती हूँ बाबा” राजेश्वरी जी लंगड़ाते हुए किचन की ओर चलीं गई।

“पापा, क्यों माँ को परेशान करते हैं आप, मैं बना देती न चाय, आपको मेरे हाथ की चाय अच्छी नहीं लगती क्या?”बहू ने असीत जी से पूछा।

“बेटा तू तो बहुत अच्छी चाय बनाती है, पर इनसे दो कारणों से चाय बनवाता हूँ, एक तो दिन मे तीन चार बार चाय बनाने के बहाने इनका चलना फिरना हो जाता है, पैरों की कसरत हो जाती है और दूसरा कारण ये है कि बुढ़िया उठने के लिए हर बार मेरा हाथ माँगती है तो थोड़ा रोमांस भी हो जाता है, हा-हा-हा।

*नम्रता सरन “सोना”*

भोपाल मध्यप्रदेश

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