उसका जाना-शालिनी दीक्षित 

रुचिका की आँख आज सुबह जल्दी खुल गई, खिड़की के पर्दे हटा कर देखा तो मन खुश हो गया; मौसम सुहाना था, समुद्र भी उफान पर दिख रहा था। उसने तुरंत घड़ी पर नजर दौड़ाई सुबह के छः ही बजे थे और उसकी मीटिंग ग्यारह बजे है ।

चलो रुचिका जी अभी सैर कर के आते है लहरों के शोर में सैर का अपना अलग ही मजा है……

रुचिका ने खुद से कहा।

रुचिका वाक करने आई तो पूरे जोश में थी लेकिन अब मन कर रहा था कि सिर्फ चुप-चाप बैठ कर लहरों को देखे; शायद काम की अधिकता ने कुछ आलसी बना दिया था।

उफान मारती लहरे तो उसको भी बहुत पसंद थी, यही तो कहता था वो अक्सर। उसकी याद आते ही एक दुख भरी मुस्कान रुचिका के चेहरे पर आ गई । वो एक बैंच पर बैठ गई और खोई-खोई सी  इधर-उधर देखने लगी ।

कुछ दूर पर एक जोड़ा टहल रहा था, महिला लहरों की तरफ जाने लगी तो उसके साथ का युवक वही रेत पर बैठ गया। रुचिका को लगा जैसे वह युवक शैलेश ही है । उसने सिर झटक कर खुद को समझाया कि जिस को याद करो फिर हर इंसान उस जैसा ही दिखने लगता । वो यहाँ क्या करेगा, कहाँ चंडीगड़ और कहाँ चेन्नई? लेकिन वो भी तो काम के सिलसिले में प्रयागराज से चेन्नई आई है न, हो सकता है वो युवक शैलेश ही हो।

इतने में वो युवक उठ के चल दिया साथ कि महिला भी उसके साथ हो ली।

देखो तो मुझे धोखा दे कर, उस दिन अधर छोड़ कर यह गायब हो गया और अब शादी कर के ऐसे शांति से घूम रहा है जैसे कुछ हुआ ही न हो? अगर वही है तो अभी  मुझे उस से बात करनी चाहिए ।

खैर छोड़ो मुझे उस से कोई बदला नहीं लेना, मैंने सारे नाते खत्म तो कर ही लिए उसकी बेवफाई पर अब क्या सोचना ये सब?


रुचिका ने उड़ती-उड़ती दृष्टि उन दोनों पर डाली और जा पहुँची कुछ साल पहले हुई यूनिवर्सिटी की फ्रेशर पार्टी में। वो शक्ल सूरत से तो अच्छा था ही लेकिन उसके गाने ने तो रुचिका का मन ही मोह लिया था।

‘चलत मुसाफिर मोह लियो रे, पिंजरे वाली मुनियाँ’

कब और कैसे उससे अच्छी दोस्ती हो गई पता ही नहीं चला जहाँ पढ़ाई के दौरान लोग एक दूसरे से इतना कम्पटीशन रखते है शैलेश ने हमेशा उसकी मदद ही की ।

उनकी एजुकेशनल ट्रिप का ट्रैवलॉग फाइनल ईयर के वाइवा में दिखाना था; पूरे दस नंबर थे उसके लेकिन रुचिका साथ लाना ही भूल गई थी।

उसकी सहेली जूही ने कहा, “शैलेश को बोल दो, उसका वाइवा आज नही है; उसका रूम भी पास में ही है, वो अपना ट्रैवलॉग ला देगा।”

लेकिन रुचिका को सही नही लग रहा था ऐसे बोलना। उसकी तरफ से जूही ने ही बोल दिया और वो आधे घंटे में ही अपनी ट्रैवलॉग वाली फाइल ले आया ।

रुचिका ने कृतज्ञ नजरों से थैंक्यू बोलते हुए कहा कि कल उसका वाला वो सुबह दे देगी ।

दो सालों में सब कुछ अनकहा ही रहा लेकिन ऐसा लगता कहने की जरूरत थी ही नहीं।

दिल्ली में रह कर पढ़ते हुए रुचिका कभी उसके साथ घूमने नहीं गई थी लेकिन बहुत अरमान थे साथ मे कनाट प्लेस घूमने के।

रुचिका की आँखे यह सब याद करते हुए छलक आयी कि कैसा खिलवाड़ कर देते है कई बार लोग। वो उस दिन कितने जतन से तैयार हो रही थी क्योंकि परीक्षाएं भी खत्म हो चुकी थी और शैलेश ने कॉफी का निमंत्रण दिया था ।

वो अपने दिल का हाल खुद ही बयान कर देगी इसी सोच के साथ हॉस्टल रूम से निकली थी लेकिन ईश्वर को शायद कुछ और ही मंजूर था उस दिन वो आया ही नहीं न उसका फोन ही लगा। तीन घण्टे इंतजार करने के बाद रुचिका भी वापस आ गई।

वो बहुत दुखी थी उसे समझ नहीं आ रहा था कि आखिर ऐसा क्यों किया था शैलेश ने? लेकिन उसका बांवरा मन शैलेश को बेवफा मानने को तैयार न था। उसने शैलेश को उन सब जगहों पर ढूँढा जहाँ वो मिल सकता था लेकिन शैलेश उसे कहीं न मिला न उसका फोन आया न कोई मैसेज।


दिन हफ्तों में बदले  लेकिन न शैलेश आया न उसका फोन न उसका मैसेज । एक खूबसूरत रिश्ते के इस अजीब अंत से रुचिका दुखी थी उसने अपना फ़ोन नंबर बदल दिया और हर उस चीज से दूर हो गई जो उसको शैलेश की याद दिला सके।

आज तीन साल बाद….वो युवक इस तरफ आ रहा था रुचिका को साफ दिख रहा था कि वो शैलेश ही है। वो किंकर्तव्यविमूढ़ सी बेंच पर बैठी रही उसने अपनी नजरे नीचे कर ली जैसे कि ये तूफान गुजर जाए।

“हेलो…”

आवाज सुन उसने गर्दन ऊपर उठाई

“हैल्लो!!!” उस ने गुस्से को दबाते हुए जवाब दिया।

शैलेश के साथ आई महिला ने एक नजर रुचिका पर डाली और शैलेश को कहा, “आप दोनों बात करो मैं थोड़ा आगे तक घूम कर आती हूँ……”

वो महिला इतना बोल कर आगे चली गई।

शैलेश बैंच पर बैठ गया और बोला, “उस दिन ..”

रुचिका ने उसे बीच में रोक दिया और बोली,  “अब पुरानी बात मत छेड़ो…….”

“उस दिन जो हुआ उसे बदला नहीं जा सकता लेकिन मै तुमसे बिछड़ कर एक दिन भी खुश न रह सका। तुमसे मिलने की आस लिए बस किसी तरह जिन्दा हूँ, आज तुम्हें यहाँ समुंद्र तट पर देख कर पहले तो तुम्हारे होने का विश्वास नहीं हुआ लेकिन डरता-डरता तुम्हारे पास चला ही आया।” शैलश बिना रुके बोलता ही चला गया।

“क्यों चले आए?” रुचिका रूखे स्वर में बोली।

“पता नहीं क्यों चला आया? आज भी तुम्हारी जरूरत है……..तुमने शादी की?” शैलेश बोला।

“अभी तक कोई ऐसा मिला ही नहीं जो शादी के लायक लगता, अब ये झंझट अपने माता-पिता पर छोड़ दिया है, जहाँ उनका मन होगा वहीँ शादी कर लूँगी।” रुचिका थके सी आवाज में बोली।

“क्या मेरे लिए भी कुछ जगह है तुम्हारे दिल में? शादी करोगी मुझसे? उस दिन तुमसे यही कहने आया था लेकिन आ न सका।” शैलश उम्मीद भरी आवाज में बोला।

“ये क्या कह रहे हो?  तुम्हारी पत्नी है?” रुचिका बैंच पर शैलेश से दूर खिसकते हुए बोली।



“पत्नी नहीं ये तो मेरी भाभी है; इनका अपोलो में इलाज चल रहा है,  सुबह की हवा में सैर करना जरूरी है तभी मैं इन्हें यहाँ ले आया। भैया को अपनी छुट्टी रिनिवल कराने चंडीगढ़ जाना पड़ा तो उन्होंने मुझे रोक लिया नहीं तो मैं तो बस दो दिन के लिए ही आया था।” शैलश रुचिका को समझाते हुए बोला।

“क्या कहूँ; कुछ समझ नहीं आ रहा।” रुचिका सोच में डूबे हुए बोली।

“कुछ मत सोचो रुचिका, बस अब ये पहन लो।” कहते हुए शैलेश बैंच से उतर कर अपने घुटनो के बल बैठ गया और अपने गले से एक चैन निकाली जिसमें लॉकेट की जगह एक  लेडीज अँगूठी लटक रही थी। उसने अँगूठी चेन से निकाल कर अपने हाथ में लेकर रुचिका की तरफ बढ़ा दी।

“छी, पता नहीं कब से गले में लटकाए घूम रहे हो? जाओ इसे समुंद्र के पानी से धोकर, साफ़ करके लाओ।” रुचिका हँसते हुए बोली।

“बिलकुल सही कह रही हो।” कहते हुए शैलेश अँगूठी लेकर समुंद्र की तरफ भागा।

दो मिनट बाद वो दोबारा धुली अँगूठी लिए रुचिका के कदमों में बैठा था।

रुचिका सोच ही रही थी अपना हाथ आगे कर दे तब तक शैलेश की भाभी आ गई उसके हाथ में अंगूठी देख के प्रश्न भारी आवाज में बोली, “रुचिका?”

“हाँ भाभी ये ही रुचिका है, मैंने इसे खो दिया था लेकिन तकदीर देखिये आज फिर मिल गई।”

“मिल गई है तो अब खो मत देना।” भाभी हँसते हुए बोली।

बाद में शैलेश ने बताया कि उस दिन घर से फोन आ गया कि पिता जी को हार्ट अटैक हुआ है तो मैं चंडीगढ़ भागा। पिता जी तो बच न सके मै इस हादसे से उबर न सका न तुम्हे कुछ बता सका न मैसेज कर सका। बाद में जब होश आया तो तुम्हारा फोन कभी लगा ही नहीं, तुम्हारा एड्रेस मेरे पास था ही नहीं इसलिए तुम्हें कहीं ढूँढ भी न सका।

रुचिका सिर्फ सोचती रह गई काश उसने गुस्से और जल्दबाजी में वो सब न किया होता, निर्णय लेने से पहले एक बार उसकी बात सुन ली होती।

“रुचिका तुम्हारे मेरे दुख-सुख अब एक है, एक बार खो चुका हूँ तुम्हें दोबारा खो देने का हौसला नहीं है।” कहते हुए शैलेश ने रुचिका के हाथ थाम लिए।

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