कहते हैं जिंदगी और कुछ नहीं बस यादों का कारवाँ है.खट्टी मीठी भूली बिसरी यादों का कारवाँ…फिर चाहें यादें क्यूँ न हमारे भूले बिसरे दोस्तों की हो.. रिश्तेदारों की हो..हमारी हो…आपकी हो या किसी और की..यादें हर घड़ी हमारे इर्दगिर्द हमारे जेहन में मंडराती रहती हैं..
आज भी अच्छी तरह से याद है मुझे….
मैं और वो पहले पहल एक रेडिमेड गार्मेंट्स की दुकान में मिले थे…ठंड आ गई थी इसलिए मैं माँ को ले उसके लिए..एक शॉल लेने गया था वहाँ… जहाँ वह भी अपने लिए शॉल ही खरीदने आई थी…..और संयोग वश उसने वही शॉल दो दिन पहले पसंद कर गई थी जिसे मैनें आज माँ के लिए खरीदा था…….
सेल्समैन कह रहा था..
मैडम एक ही बचा है .
एक था जिसे माता जी ने खरीद लिया…
आप दूसरा ले लें प्लीज
ओहहहहह मुझे वो ही लेनी थी….दो दिन पहले ही पसंद कर गई थी..दादा और दादी के लिए
खैर कोई बात नहीं…
माँ ने उसे शॉल के लिए उदास देखा तो उसे दे दिया…
बेटी इसे तुम ही रख लो मैं दूसरी ले लेती हूँ…
तुम ये दो शॉल अपने दादा दादी को दे देना
लेकिन माँ….मैंने रोकना चाहा..
माँ ने आँखें दिखाई.
मैं चुप हो गया..
उसे भी कुछ आभास हो गया था शायद…
नहीं माँ जी….ऐसे कैसे..???
आपने भी तो पसंद किया..फिर आपने खरीद भी लिया है…इसलिए आप रखिए मैं दूसरी देख लूँगी…
माँ जी भी कह रही और…..
कहते हुए शॉल उसके हाँथों पर रख दिया….
नाम क्या है तुम्हारा…
जी …ऊषा…
सुंदर नाम है..बिल्कुल तुम्हारी तरह…..
माँ का व्यवहार देख उसने भी कुछ न कहना ही बेहतर समझा शायद…या मन ही मन सोच रही हो..चलो अच्छा हुआ…यूँ ही बिन पैसे खर्च किए शॉल मिल गया.
पर शायद मैं गलत था….
माँ को दूसरी शॉल दिलवा… दुकान से बाहर आया ही था..कि वो हमारे पीछे पीछे आई..माँ को प्रणाम किया,शॉल के लिए धन्यवाद कहा..और शॉल के पैसे देने लगी…
लेकिन माँ ने लेने से मना कर दिया….
रहने दो…..
माँ का उपहार समझ रख लो…
पररररर….
पर वर कुछ नहीं….
बस रख लो कहते हुए..पूछा
कहाँ रहती हो माता पिता….क्या करते हैं
उसने थोडा मायूसी भरा जवाब दिया
जाने क्यूँ सुनकर मुझे भी दुख हुआ..
जी वो…मेरे माता पिता जिंदा नहीं..बचपन में ही गुजर गए..
बस दादा दादी हैं उन्हीं के साथ रहती हूँ…
ओहहहहहहहहह
.माँ ने उसके सर पर आशीर्वाद स्वरूप अपने हाँथ फेर दिए…
और तुम क्या करती हो…
जी मैं Helpage India NGO में काम करती हूँ जो elderly sineor citizen की देख भाल करती है..
अरे वाहहहहह……ये तो बहुत सुंदर बात है…और बड़े पुण्य की काम करती हो…
तभी इतनी शालीनता भरी है तुममें… खुश रहो..
और….माँ जी….आप कहाँ रहती हैं…
बस यहीं पास में ही …हमारा घर है..
माँ ने पता बता दिया…
अगर मन करे तो कभी आना…कुछ मेरी भी सेवा कर देना..
माँ ने हँसकर कहा…
जी…माँ जी..जरूर…
रास्ते में मैंने माँ से कहा…..क्या जरूरत थी…नाहक तीन हजार का फटका लगवा दिया…
लड़की देखी नहीं कि…शुरू हो जाती हो
तू नहीं समझेगा….दुनियादारी..
मुझे अच्छी लगी मैंने दे दी बस..उपर से बिन माँ बाप की बच्ची..और दादा दादी व बुजुर्गों के प्रति इतनी सेवा भाव..
हम्म्म्म ्
मेरी माँ दिखने में बिल्कुल… पुराने जमाने की अदाकारा लीला चिटनिस सी लगती थी..काफी खुले विचार की भी थी…और मिलनसार भी..लेकिन बहुत भोली व सीधी….भावनाओं में जल्दी बह जाने वाली…उससे किसी का दुख देखा ही नहीं जाता….उसके आँखों पे लटकता चश्मा.. चेहरे पर हर समय मुस्कुराहट…इक पवित्र सी आभा छाई रहती चेहरे पर हरपल..उसके…कोई देख ले तो कह नहीं सकता कितने दुखों को अपने सीने में दबाए फिर रही…
मेरे लिए तो मानों मेरी शक्ति थी मेरी माँ…अगर वो नहीं होती तो शायद कबका टूट बिखर गया होता….मेरे माँ को सँभालने के बजाए माँ ने मुझे सँभाला..बड़े से बड़े तूफान में भी मुझे उसने अपनी ममतामयी आँचल में छुपा कर रखा…लाख विपदाओं के बाद भी हिम्मत नहीं हारी माँ ने…इस लिए मैं
माँ को किसी भी हाल में उदास नहीं होने देता..वो जो कहती जो करती खुशी खुशी मान लेता…कभी कोई विरोध नहीं..कभी किसी तरह की कोई बहस नहीं..
खैर..
मैं माँ को लेकर घर आ गया….
लेकिन जेहन में अब भी उस लड़की का ही चेहरा घूम रहा था….
हालांकि हमारी वो पहली मुलाकात अनिमंत्रित ..अप्रत्याशित एवं अनपेक्षित थी..न इससे पहले मैं उसे जानता था और न ही वो मुझे…दोनों एक दूसरे से पूरी तरह अंजान एवं बेखबर थे..लेकिन संयोगवश हमारे इस अंजाने मुलाकात ने हमें एक दूसरे के काफी करीब ले आई थी..
हुआ यूँ कि एक दिन सच में खोजते खोजते वो मेरी माँ से मिलने घर तक आ गई…
मैं उस दिन घर पे ही था…
उसे घर आया देख मन थोड़ी देर के लिए अचंभित हुआ….
और अपने चिरपरचित अंदाज में आश्चर्यचकित हो प्रश्न कर बैठा
त्््््तूम….य््हाँ????
क्यूँ नहीं आ सकती…..???
मेरा मतलब वो नहीं था….
जी इधर से गुजर रही थी…सोचा माँ जी से मिल लूँ..
ओहहहहहह……
मैंने माँ को आवाज दी…
उसने माँ को प्रणाम किया..
माँ ने भी खुलकर स्वागत किया…
बड़ा अच्छा किया जो आ गई…
वो थोड़ी देर मेरे घर रही…माँ से थोड़ी बहुत बातें हुई…फिर चली गई…
माँ के बहाने सही उसका मेरे घर आना जाना लगा रहा…कभी कभार माँ भी उसके साथ बाजार हो आती थी…यहाँ तक एक दिन ऊषा जिद्द कर माँ को अपने दादा दादी से मिलवाने अपने घर भी ले चली गई…
फिर यदा कदा यूँ ही आपस में कहीं न कहीं हमारी मुलकात होने लगी …धीरे धीरे हमारी मुलाकात दोस्ती में बदल गई…लेकिन हमारी दोस्ती सिर्फ़ दोस्ती तक ही समीति रही…हम बस एक दूसरे के अच्छे दोस्त बनकर ही रहें..सदा..कभी अपनी मर्यादा लांघने की कोशिश नहीं की हमने…
लेकिन मन तो मन है….
एक समान कब रहता है आखिर..
सुना था बढती उम्र का आकर्षण और बढती उम्र का प्रेम बड़ा घातक होता है…..लेकिन इस उम्र में आकर मैं उसके प्रेम बंधन में बंध जाऊँगा कभी सोचा नहीं था…
सच कहूँ तो धीरे धीरे मुझे उसका साथ बड़ा अच्छा लगने लगा था……वह मन ही मन प्रेम की उन गहराइयों को छू रही थी जिसकी कभी आशा ही नही थी मुझे.उसे लेकर मन में कई भावनाएँ एक साथ अंकुरित हो उठती…गलती से भी कभी अगर वो मुझे छू जाती तो एक सिहरन सी दौड़ जाती मन में लेकिन.मैं अपने मन की भावनाओं को ज्यादा उद्धेलित नहीं होने देता और न ही मन में उठती तरंगो को कभी कह पाता था उससे…
हाँ यह अलग बात थी कि उसे पसंद करता था…लेकिन वो भी मुझे पसंद करती है या नहीं…..मैं यह नहीं जानता था.
शायद इसलिए कि न हमें एक दूसरे की प्रतिक्रिया की चाह रहती थी न मन दुखाने की लालसा..न एकाकार होने की मृगतृष्णा न कुछ खोने और पाने की आशा..जो कुछ भी होता साफ शब्दों या सीधे सपाट लहजे में एक दूसरे से कह देते…
अब यह उसके प्रति मन में उपजा प्रेम था या कुछ और कह नहीं सकता लेकिन कुछ था जो मुझे कुछ कहने से रोक देता था..
इसलिए मैंने भी कभी अपने मन की व्यथा जाहिर ही नहीं की उससे…न ही कभी कोशिश की…कहने की..बस मित्रता को मित्रता तक सीमित रखा…
हाँ मन ही मन प्रेम करता रहा उसे….
इस बीच कई बार वो मेरे घर भी आई…
माँ भी उसे काफी पसंद करने लगी थी…
माँ ने कितनी दफा कहा भी
अच्छी लड़की है..सुशील है शांत स्वभाव की है…
मैं उससे अपने मन की बात कह दूँ..
पर जाने क्यूँ कभी मेरी हिम्मत ही नहीं हुई…
सोचता क्या सोचेगी भला…
अच्छा मानेगी बुरा मानेगी क्या पता…
और मन की बात मन में ही दबी रह जाती
माँ के कहने पर मैं अंजान बना कहता
क्या कह दूँ…माँ..
भोंदू अपने मन की बात कह दे और क्या..???
कह दे उसे कि तू उससे प्रेम करता है…
प्….प््््््प्रेम….नहीं तो..
पागल मत समझ…माँ हूँ तेरी सब समझती हूँ…
व््््वो्््््
हकला क्या रहा….सीधे सीधे कह….दे उससे
सिर्फ डायरी के पन्ने भरने से जीवन नहीं चलता..और न ही प्रेम सफल होता है..
मेरी माँ मेरे लिखने की आदत से भलीभांति वाकिफ थी इसलिए कटाक्ष मारने लगी..
माँ मेरी लिखी कविताओं एवं अन्य रचनाओं को बड़े दिल से पढती थी…मुझे लिखने को प्रोत्साहित भी करती थी…..कई बार तो माँ पर लिखी कई कविताओं को पढ़ रो भी देती थी…
खैर मैने माँ से कहा…
माँ अब मैं तुमसे कैसे कहूँ….
मेरा प्रेम वो प्रेम नहीं…
मेरा प्रेम एक समुद्र है, जहाँ ठहराव है,जिसके साथ
मद्धम संगीत की धुनें हैं,जिस पर मेरा हृदय कई गीत रचता है और मन का सुकून अपने आप बोल गढ़ता है..लेकिन उस बोल को सुनने समझने वाला कोई नहीं है..
माँ…प्रेम अब वो प्रेम नहीं रह गया…हुआ और जाहिर कर दिया…
प्रेम अब ओसबिंदू की तरह हो गया है…जो बरसता तो है बूंदों में पर जब बिखरता है तो पानी बन जाता है…सामने वाले को पता भी नहीं होता कि उसके मन का प्रेम कितने हिस्सों में बँट गया है….
जा जा…..बड़ा आया प्रेम की परिभाषा समझाने वाला..
बात तो ऐसे कर रहा मानों लाखों लड़कियों से दोस्ती कर रखी हो…गिन चुन के पहली लड़की से तो दोस्ती हुई है तुम्हारी..
नहीं तो तुम तो लड़कियों के नाम से ऐसे भागा करते थे मानों…बिच्छुओं से कोई भागता हो..
मैंने हँस दिया
माँ भी मुस्कुराने लगी.
तू कहे तो मैं ही बात करती हूँ ऊषा से…लगा फोन..
नहीं माँ रहने दो…
ये सही नहीं होगा…
अरे….. क्यूँ सही नहीं होगा भला…
अभी उम्र ही क्या हुई है तुम्हारी..
चालीस पैंतालीस में तो कितनों की शादी होती है….
दूसरी वो भी कोई बच्ची नहीं दिखती…
परिपक्वता भरी है उसमें….
बीच उम्र की ज्यादा अंतर भी नहीं दिखती
माँ बात मेरी उम्र या उसकी उम्र की नहीं..
विश्वास और भरोसे की है…
तुम ही सोचो…जब उसे मेरे सच का पता चलेगा तो जाने क्या सोचेगी…हो सकता है उसका मन दुख से भर जाए कि मैंने उससे अभी तक सच क्यूँ छुपा रखा..
तो अब बता दे…हर्ज क्या है…
चार साल हुए…निशा को तुम्हें छोड़ गए…
कब तक यूँ हीं मन को दुखी किए बैठा रहेगा…
क्या कोई दुबारा शादी नहीं करता.
अभी पूरी जिंदगी पड़ी है तुम्हारी
कह दे उससे कि तेरी शादी पहले हो चुकी थी..परंतु शादी के एक साल बाद ही. तुम्हारी पत्नी और तुम्हारे पापा की एक एक्सिडेंट में मृत्यु हो गई..मैं और तुम तो बच गए लेकिन लाख कोशिशों के वावजूद उन दोनों को नहीं बचाया जा सका..
कहकर माँ रूआंसी हो चली..
मैंने माँ को सँभला..
माँ ने अपनी गीली पलकें पोछते हुए कहा..
पहले बात तो कर..खुद ही..सबकुछ सोचे बैठा है…
और हाँ प्यार करने के लिए कोई उम्र की सीमा नहीं होती समझा…
माहौल गमगीन होता देख…
मैंने भी माँ के सामने हथियार डालते हुए कहा….
अच्छा ठीक है मेरी माँ…किसी दिन सही समय देख बात कर लूँगा…..अभी एक कप चाय पिलो दो…सर दर्द से फटा जा रहा…
इसलिए कह रही ….बात कर…मेरे जीवन का क्या भरोसा…
ऐसा मत कहो माँ…..मैं माँ के गले लग कहा..
अच्छा बैठ मैं चाय लाती हूँ…
माँ चाय बना लाई….
मैं चाय पीते हुए माँ की कही बातों पर सोच में डूब गया…
देखते देखते दिन सप्ताह महीना बीत गया…लेकिन मेरी ऊषा से इस संदर्भ में कोई बात नहीं हुई…क्योंकि मैं जानता था,जिस चीज पर हम भरोसा करते हैं , उससे उलट काम करना पड़ता है, तो मन को खुशी नहीं मिल सकती…
लेकिन उस रात…मैंने अभी चाय की पहली घूँट ली ही थी कि मोबाईल गनगनाने गा देखा ऊषा का फोन था…
फोन उठाते ही पहला सवाल…..
चाय पी ली…..???
उसे पता था कि मैं रात को चाय पिता हूँ…
हाँ अभी माँ ने बना कर दी है…
क्यूँ माँ को इस उम्र में इतना परेशान करते हैं आप…
तो…..किसे कहूँ…
घर में कोई और है भी तो नहीं…चाय बनाने वाली
तो खुद बना लिया कीजिए… या..फिर.
या फिर….क्या…???
मुझे लगा वो कुछ और कहेगी लेकिन…
हाय रे मेरी किस्मत..
उधर से उसने हल्की हँसी के साथ कहा..
या फिर अपनी आदत बदल लिजिए…
अब तो जाने से रही…मैने कहा..
तो फिर……
तो फिर क्या….???
श्््शादी कर लीजिए….
पत्नी आ जाएगी तो बना कर देगी..
माँ जी को भी थोड़ा आराम मिलेगा……
मैंने मजाक के मूड में कहा…
कितना अच्छा तो हूँ…
इर्दगिर्द आज़ादी के इत्र की खुशबू है चारों ओर,शांति की मंद-मंद हवाएं भी चलती है हर रोज़..फिर कौन नाहक…
फिर जाने क्या लगा पूछ बैठा
अच्छा कहो कैसे फोन किया….
जी वो. माँ जी से कुछ बात करनी थी…
अच्छा……देता हूँ…शायद सो गई हो..
ठीक है फिर रहने दीजिए मैं कल घर पर आकर ही बात कर लूँगी….कार्ड भी देनी है….
कार्ड कैसा कार्ड…
वो कल पता चलेगा…
कह कर फोन काट दिया..
मैं मानों…प्रश्नों के जाल में उलझता गया….
रात काटे नहीं कट रही थी…मन में कई तरह के खयाल आ और जा रहें थे..शंका के बादल मुझे चारों ओर से घेरे खड़े थे..
मेरा शक सही निकला..।।।।
अगले दिन जब वो घर आई तो उसके हाँथ में उसकी शादी का कार्ड था..
ऊषा अपनी शादी में माँ और मुझे आमंत्रित करने आई थी…
माँ स्तब्ध खड़ी कभी मुझे देखती तो कभी ऊषा और उसके दिए शादी के कार्ड को..
मैं भी शांत भाव से माँ को देख रहा था…
यहाँ तक मैंने कार्ड एक नजर देखा भी नहीं…
जानता था उस समय क्या बीत रही थी माँ पर..लेकिन कुछ कह नहीं पा रही थी…
हाँ उसकी उसकी आँखें जरूर कह रही थी….
मैंने देर कर दी शायद…
और अब कुछ नहीं हो सकता था….
माँ ने बताया आर्थिक स्थिति सही न होने के कारण ऊषा की शादी मंदिर से हो रही…माता पिता हैं नहीं इसलिए दादा दादी ही ऊषा का कन्यादान करेंगे..
मन तो दुखी था…फिर भी..शादी के दिन मैं माँ को लेकर….ऊषा के बताए मंदिर चला गया….वहाँ जाकर पता चला जिंदगी में कुछ भी अचानक नहीं होता…सबकुछ पहले से ही लिखा होता है..और यह सच भी था..
मेरे लाख मना करने पर भी मुझे माँ को अपने साथ लेकर ऊषा की शादी में मंदिर आना पड़़ा. ऊपर से जिद्द कि मेरे लिए नया कुर्ता पैजामा लाई वो ही पहनना है…लिटरली माँ की जिद्द के आगे झुकना पड़ा था मुझे..और पैंट सर्ट के बजाए कुर्ता पैजामा पहना पड़ा मुझे…
लेकिन मंदिर मे विवाह वेदी के पास ऊषा को अकेली बैठी देख मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा…
उसके दादा दादी उसके पास खड़े थे….लेकिन चिंतित दिख रहें थे..
पता चला दुल्हा अभी तक नहीं आया था..
मैं बेचैन भाव से ऊषा को देखने लगा…वो चुप चाप नजरे झुकाए शांत बैठी थी..
मैं सोच रहा था …कोई ऐसा कैसे कर सकता है…आखिर
मैंने माँ को देखा…माँ भी शांत मन से ऊषा को देख रही थी..
बाकी हमारे अलावा कोई और था ही नहीं…वहाँ..तो फिर ऊषा की शादी किससे होनी है…मैं अभी सोच ही रहा था कि
तभी मेरे मोबाईल पर ऊषा का मैसेज आया…
अब चुप चाप आकर मेरे दाहिने बगल खाली स्थान पर बैठ जाईए….और हाँ मुझे सब पता है..और मुझे आपके बीते कल से कोई परेशानी नहीं….माँ जी ने मुझे सबकुछ पहले ही बतला दिया है….और मैंने आपसे शादी के लिए स्वयं ही रजामंदी दी है…अतः परेशान न हो…मैं इस शादी से खुश हूँ
मैं भौचक्का… कभी माँ तो कभी ऊषा तो कभी उसके दादा दादी का चेहरा देख रहा था….सभी मंद मंद कुटिल मुस्कान मुस्कुरा रहें थे…
जाने कब माँ ने मुझे बताए बिन ऊषा के दादा दादी से मिल लिया..कब ऊषा को शादी के लिए राजी किया…कब ये प्लान बनाया…मुझे पता भी नहीं चला….
और मै भोंदू…. अब भी मुर्ख सा खड़ा…आगे क्या कदम उठाऊँ सोच रहा था…
तभी मेरी माँ ने मुझे मेरी बाँह पकड़ ऊषा के बगल में बिठा दिया…
मेरे बैठते हीं ….जाने किस भरोसे से ऊषा ने अपना हाँथ मेरे हाँथ पर रख दिया…मैंने भी भरे विश्वास के साथ सहमति में अपना दूसरा हाँथ उसके रखे हाँथ पर रखा और कहा दरअसल, मेरी शादी हो चुकी थी. इस विषय में मैं तुम्हें कह नहीं पाया था….मैं नहीं चाहता था कि हमारी मित्रता पे किया तुम्हारा भरोसा टूटे…लेकिन चिंता मत करना मैं इस भरोसे की बंधन को पूरी निष्ठा के साथ प्रतिपालन करूँगा….
प्रतिक्रिया स्वरूप ऊषा ने हाँथ का दबाव बढाते हुए अपना सर मेरे काँधे पर टिका दिया…
आज वर्षों बाद मैं फिर जी उठा था, ऊषा की एक छुअन से. जिंदगी पुनः खूबसूरत और रंगीन नजर आ रही थी..
ऊषा को शादी में माँ ने मुझसे छुपा लाया अपने हाँथों का पुराना कंगन आशीर्वाद स्वरूप दे दिया…
ऊषा विदा होकर मेरे साथ अपने ससुराल चली आई…
मैं और माँ अपने घर आ गए…
और हाँ मैं दहेज स्वरूप काफी मान मनौव्वल के बाद उसके दादा दादी को भी अपने घर ले आया….
ऊषा को पत्नि के रूप में पाकर ऐसा लग रहा था जैसे बाद निशा के वो मेरी अंधेरी ज़िंदगी में ऊषा की किरण बनकर आई हो…
और मेरा मन मानों कह रहा हो……
तुम आ गए हो…तो नूर आ गया है…
विनोद सिन्हा “सुदामा”