यादों के सहारे जीवन नहीं कटता –   शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’

उमा अपने कमरे की खिड़की  से क्षितिज को निहार रही है । भास्कर अस्ताचल की ओर डग भर रहे हैं साँझ की लालिमा अपने यौवन पर है रात की अगवानी के लिए।

उमा को अपना जीवन भी इस डूबते सूरज-सा लगने लगा।

जयंत के जाने के बाद से उसकी हालत भी तो कुछ ऐसी ही है। शनै- शनै उसका अतीत चलचित्र की भाँति उसके सम्मुख उभरने लगा।

जब जयंत उसको देखने आया था तब उसका बस एक ही सवाल था।

“उमा! मैं एक फौजी हूँ, मेरा जीवन मेरा नहीं , मातृभूमि का है। मेरा पहला कर्तव्य देश की रक्षा करना है। यदि कभी मेरे प्राण देश के लिए उत्सर्ग हो गए तो क्या तुम मेरे माता- पिता की जिम्मेदारी निभा पाओगी?”

यह सवाल सुनकर एक बार तो उमा सोच में पड़ गई, लेकिन उसके अंतर्मन को तो जयंत भा गया तो उसने हाँमी भर दी। 

धूमधाम से दोनों की शादी हो गई।

उमा जयंत की अर्धांगनी बनकर उनके आँगन को महकाने लगी।

खुशियों- भरे दो साल न जाने कब पंख लगाकर उड़ गए। इन दो वर्षों में जब भी अवकाश मिलता जयंत घर आ जाता। उमा के लिए कुछ न कुछ जरूर लेकर आता। ओर इतनी खुशियाँ देता की उमा को अपने भाग्य पर गर्व होने लगता।

इस बार जब जयंत आया तो छुट्टियाँ खत्म होने से पहले ही हेड़-‌क्वार्टर से बुलावा आ गया, क्योंकि पडौसी देश ने सीमा पर गोलीबारी कर दी, अत: युद्ध की पूर्ण संभावना है।




जब जयंत जाने लगा तो उमा का धैर्य टूटने लगा, तब दर्द आँखों से बहने लगा।

“उमा! यदि इस तरह कमजोर पड़ोगी तो मुझे भी तुम्हारी चिंता सताती रहेगी, तब शायद मैं भी, अपना कर्तव्य सही से नहीं निभा पाऊँ।”

“आप इन आँखों की तरफ ध्यान मत दीजिए, आप जाइए आपको भारत माँ की रक्षा करनी है।” 

जयंत चला गया। वहाँ पहुँचते ही, जयंत को सीमा पर भेज दिया गया। जहाँ दुश्मन से लड़ते हुए वह शहीद हो गया।

जब जयंत का पार्थिव शरीर तिरंगे में लिपटा हुआ आया, तो उमा उसको देख कर बेहोश हो गई। उसका तो जीवन वीरान हो गया, साथ ही माता- पिता के ऊपर भी दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। 

लेकिन कहते हैं कि समय हर घाव को भर देता है।

जैसे- तैसे छ: महीने निकल गए उमा भी कुछ नॉर्मल रहने लगी एक दिन…..

“हैलो, मैं रविकांत बोल रहा हूँ ” 

“जी! नमस्कार, कैसे हैं आप?”

“जी! ठीक हूँ,आपसे एक बात कहनी है।” रविकांत झिझकते हुए बोले।

भाई साहब! आप निसंकोच बोलिए, मैं आपके कोई काम आ सका तो यह मेरा सौभाग्य होगा।” श्याम लाल जी बोले।

“आप यहीं आकर बात करें तो ज्यादा अच्छा रहेगा।” 

“जी! कल आता हूँ।”




श्यामलाल जी दूसरे दिन समधी से मिलने आ गए।

“कहिए, ऐसा कौनसा जरूरी काम है जो फोन पर नहीं बता सकते थे?”

“मैंने एक निर्णय किया है, यदि आपकी सहमति हो तो उमा का पुन: विवाह कर दिया जाए।” रविकान्त जी ने कहा।

“जैसा आप उचित समझें, आप जो भी करेंगे उमा की हित के लिए ही करेंगे। मुझे कोई एतराज नहीं लेकिन उमा से अवश्य पूछ लीजिये ।”

तभी उमा चाय लेकर आ जाती है। श्यामलाल जी मौका देखकर…..।

उमा! भाईसाहब तुम्हारा पुन: विवाह करना चाहते हैं।

“लेकिन!…..”

“लेकिन मत लगाओ उमा! अभी तुम्हारा पूरा जीवन पड़ा है, अकेले कैसे जी पाओगी?”

तभी उसके कानों में जयंत के शब्द गूँजने लगे।

“उमा! मेरा जीवन मातृभूमि का है। कभी अपना फर्ज निभाते हुए मेरे प्राण उत्सर्ग हो गए तो, क्या तुम मेरे माता-पिता को सँभाल सकोगी?”

“मैं अकेली कहाँ हूँ? आप और माँ है मेरे साथ, और उनकी यादें भी तो हैं।”

“बेटा! यादों के सहारे जीवन नहीं कटता। और दुनिया में अकेले जीना कोई आसान नहीं है। औरत को किसी सहारे की जरूरत तो होती ही है। अनगिनत भेड़िए घूमते है। खुद को कैसे सुरक्षित रख पाओगी? रही हमारी बात, हम तो साँझ की बेला हैं। कितना साथ निभा पाएँगे?”

“बाबू जी! इस साँझ की बेला कि सिन्दूरी आभा से मुझे अलग नहीं होना है। मैं इसको  अपने आलिंगन में समेट कर खुश हूँ। रही भेड़ियों की बात, क्या गारन्टी है जो सहारा बनेगा वो मेरी रक्षा कर पाएगा? इसलिए मैं अपना सहारा खुद ही बनूँगी।”

✍स्व रचित व मौलिक

  शकुंतला अग्रवाल ‘शकुन’

     भीलवाड़ा राजस्थान

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