तू इस तरह मेरी जिन्दगी में शामिल है (भाग -2)- दिव्या शर्मा : Moral stories in hindi

पहले भाग में आपने पढ़ा कि गुझिया अचानक शेखर से मिलती है जो आत्महत्या करने जा रहा था।किसी तरह गुझिया उसे बचा लेती है लेकिन शेखर अपने दर्द में इस कदर डूबा है कि उसे आत्महत्या ही एक आखिरी रास्ता दिखाई देता है।

दूसरे भाग में पढिए कि शेखर और गुझिया की अचानक यूँ मुलाकात किसी कहानी की शुरुआत है या अंत।)

शेखर बार बार आसमान की ओर देखता फिर कुछ बुदबुदाता।गुझिया उसके बुदबुदाते होंठों को सुनने की कोशिश कर रही थी लेकिन नाकाम कोशिश।अचानक शेखर अपनी जगह से उठ खड़ा होता है और चल पड़ता है।दिल में अनजानी आशंका से गुझिया घबरा जाती है और उसके पीछे चल पड़ती है।शेखर के कदमों की तेजी गुझिया को दौड़ने पर मजबूर कर देती है।वह चिढ़ते हुए चिल्ला कर उसे आवाज देती है,

“अबे वो …सुन …ओ हीरो…शेखर…अरे रुक…।”

लेकिन वह अपनी धुन में चलता रहता है।गुझिया सड़क पर पड़े पत्थर को उठाती है और शेखर को ओर जोर से फेंकती है।पत्थर शेखर की पीठ पर जोर से लगता है।वह दर्द से बिलबिला कर पीछे देखता है जहाँ गुझिया कमर पर हाथ टिकाए उसे ही घूर रही थी।वह गुस्से से उसके करीब आता है और जोर से गुझिया के गाल पर थप्पड़ मारता है।गुझिया सन्न रह जाती है और वापस जाते शेखर को देखती रहती है।

बादल अब करवट लेने लगे थे।हल्की बौछारें नीचे गिरने लगी।शेखर की आँखों में कुछ ऐसा था जो आसमान से गिरती बौछारों से भी ज्यादा पानी गिरा रही थी।हवा भी उसके चेहरे को छूकर बादलों की ओर उड़ जाती।मुश्किल से पचास मीटर चला था कि ठिठक कर रूक गया और वापस गुझिया की ओर दौड़ पड़ा।वह अब भी अपने गाल पर हाथ रखे उसे ही देख रही थी।शेखर उसके नजदीक आ पैरों के बल बैठ गया और हाथ जोड़कर झुक गया।

गुझिया अजीब हाल में थी।

“या तो तू पागल है या फिर अपनों की चोट से घायल है।तो मुझे शरीफ भी लग रहा है और धूर्त भी।समझ नहीं आ रहा कि तू क्या है!” गुझिया उसे घूरते हुए बोली।

“पागल होता तो अच्छा था न!” शेखर ने चेहरा उठाकर जवाब दिया।

“दुनियाभर को अपने पेटीकोट के नीचे देखा है लेकिन तेरे जैसा उलझा आदमी नहीं देखा।मैं हूँ तो धंधेवाली लेकिन सीने में दिल अब भी रखती हूं  बुरी नहीं हूँ मैं, तू बता मुझे कि ऐसा क्या है जो तुझे खा रहा है।'”

“किसी अनजान आदमी के लिए जिसके दिल में दर्द जाग गया वह कैसे बुरी हो सकती है! मेरी परेशानी को मेरे साथ रहने दे।तू अपने घर जा।चल मैं छोड़ आता हूँ।” शेखर ने नॉर्मल होते हुए कहा।

“खुद चली जाऊंगी।तेरी मदद की जरूरत नहीं,चलती हूँ।” उसकी आवाज़ में कुछ नाराजगी थी या फिर खुद के लिए अपमान का भाव यह तो गुझिया ही समझ सकती थी लेकिन शेखर ने उसकी आवाज़ में उदासी के स्वर सुन लिए थे।वह चुपचाप उसके साथ साथ चलने लगा।गुझिया अनमनी सी कभी उसे देखती कभी सीधी सड़क को।बारिश की बौछार अब फुहार में बदल चुकी थी जिसमें भींगते दोनों अनजान जैसे अपनी कहानियों को मुठ्ठी में भींच रहे थे।

एक गली में आकर गुझिया रूक जाती है और शेखर को कहती है,

“मेरी गली आ गई।अब मैं चली जाऊंगी।”

“मैं घर तक चलता हूँ न!” शेखर ने कहा।

“नहीं, यह जगह बदनाम इलाके में आती है और मैं बदनाम औरतों में।तेरे लिए यह जगह ठीक नहीं।” इतना कहकर गुझिया अपनी गली में समा जाती है।पीछे रह जाता है शेखर कुछ टूटा कुछ बिखरा।

“कभी किसी शरीफ घर में झांक लेती तुम..तो…नाम क्या है इसका…क्या नाम!”

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दिव्या शर्मा

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