सुख की तलाश – पुष्पा जोशी  : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi: सुनयना ने आज कई दिनों के बाद ध्यान से अपना चेहरा आइने में देखा। भागती दौड़ती दिनचर्या में उसे समय ही कहाँ मिला कि वह अपने चेहरे पर ध्यान दे। उसके कंधो पर प्रशासनिक जिम्मेदारी थी। कल वो कलेक्टर के पद से सेवानिवृत्त हुई, कल पूरे दिन  सम्मान समारोह और पार्टी का दौर चलता रहा।

आज सुबह जब वह उठी तो  उसे बहुत खालीपन लग रहा था। आशा ने आकर चाय बनाई। चाय  पीकर दैनिक कार्यो से निवृत्त होने के बाद उसने आइने में देखा, तो उसका ध्यान बालों की सफेदी की ओर गया। ऑंखों के नीचे काली झाइयॉं नजर आई और लगा कि उसकी ऑंखें अन्दर धस गई हैं ,आज उसे अपना चेहरा भी अन्जाना लग रहा था।
आइने से याद आया वह छोटा सा आइना, जिसमें चेहरा देखने के लिए कभी-कभी तीनों बहिनों में झगड़ा हो जाता था।निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मी सुनयना का बचपन अभावों में गुजरा। पिता की साधारण सी नौकरी, तीन बहिने और एक भाई  की पढ़ाई लिखाई और घर का खर्च बहुत मुश्किल से पूरा होता था। माँ दिन भर घर में काम करती।

एक छोटी सी चीज के लिए भी, उन्हें कई बार तरसना पड़ता। यह देखकर उसे बहुत दुख होता। जब वह आसपास के लोगों को देखती तो सोचती ये कितने सुखी है, इनके पास कितना पैसा है। अपने माँ पापा की मजबूरी को वह समझती थी। एक ख्वाब उसके मन पलने लगा था कि वह पढ़ लिख कर वह मुकाम हासिल करेगी, कि जीवन  में  अर्थ का अभाव कभी नहीं होगा। और वह सुख से जीवन व्यतीत करेगी।

और इस ख्वाब को पूरा करने‌ के लिए वह निरन्तर दौड़ती रही, राह में कितना कुछ छूटता चला गया, पर उसे तो मंजिल पानी थी, वह आगे बढ़ती ही रही। सुनयना की दोनों बहिनों की पढ़ाई में रूचि नहीं थी। जैसे -तैसे बी.ए. की परीक्षा पास की और उनकी शादी हो गई। भाई ने अपनी पढ़ाई पूरी कर एक विद्यालय में नौकरी कर ली। सुनयना सबसे बड़ी थी, उसने शादी नहीं की उसने अपना लक्ष्य निर्धारित कर लिया था।

स्नातक होने के बाद वह प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी में जुट गई, साथ ही बच्चों की दो शिफ्ट में ट्यूशन भी करती, ताकि माँ पापा की मदद कर सके। उसने UPSC  की परीक्षा का फार्म भरा। प्रथम प्रयास में लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण हो गई मगर साक्षात्कार में उसका चयन नहीं हुआ। अब उसने दुगने उत्साह से मेहनत की और उसकी मेहनत सफल हुई। वह परीक्षा में अव्वल आई और धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए कलेक्टर के पद पर नियुक्त हुई।

उसने पूरी निष्ठा से अपना कार्य किया और कल उस पद से सेवानिवृत्त हो गई। वह सोच रही थी, जिस सुख सुविधा के लिए वह जीवन भर भागती रही, आज सब उसके पास है। अपनी इस यात्रा में उसने अपने माता-पिता, भाई- बहिन सबके प्रति अपने फर्ज निभाए। माता- पिता दुनियाँ से चले गए।

भाई बहिन अपनी गृहस्थी में मस्त हो गए।इतनी दौलत इतनी शौहरत,सम्मान सब मिला फिर ये कैसा सन्नाटा पसरा हुआ है मेरे चारो ओर। ऐसा कोई नहीं जिसे मैं अपना कह सकूँ। अविनाश ने कितना कहा था कि, मैं उससे शादी कर लूँ। मगर उस समय तो मुझे सबकुछ व्यर्थ लग रहा था, विवाह का बन्धन मुझे बेड़ियों के समान लग रहा था, दुखदायी प्रतीत हो रहा था। आज सोच रही हूँ तो लगता है, शायद मैंने गलती की। आज ये बंगला, गाड़ी, ऐशो आराम के साधन किस काम के कोई भी तो नहीं है मेरे साथ।

मेरी सोच गलत थी, सिर्फ पैसो से सारे सुख नहीं खरीदे जा सकते। अकेले बैठे-बैठे पता नहीं कैसे-कैसे विचार उसके मन में आ रहै थे। उसका मन दु:खी हो रहा था और उसकी ऑंखों में नमी आ गई थी।
आशा ने आकर कहा- ‘मेमसाहब भोजन तैयार है, आप भोजन कर ले।’ सुनयना की इच्छा नहीं हो रही थी, फिर भी बेमन से उसने भोजन किया।  दौपहर में उसने सोने की कोशिश की मगर नींद नहीं आई।
शाम को पड़ौस में भजन संध्या का आयोजन था। ढोलक की थाप, झांझ -मंजीरे, और बांसुरी के साथ मीठे भजनों की आवाज उसके कानों में पड़ी। आज पहली बार यह आवाज उसके दिल को सुकून प्रदान कर रही थी। वह तो हमेशा इससे दूर भागती रही, उसे यह सब निरर्थक लगता था। वह भजन में कहीं जाती नहीं थी, इसलिए सबने उसे बुलाना बंद कर दिया था।

उसने हाथ मुंह धोकर एक हल्की सी साड़ी पहनी और उस भजन संध्या में पहुँच गई। सबको आश्चर्य हुआ। एक महिला ने तो पूछ भी लिया- ‘आप आज भजन में?’  ‘ हॉं! क्या मुझे नहीं आना चाहिए था।’ उस महिला को अपनी गलती का एहसास हुआ और बोली-‘ नहीं ऐसी कोई बात नहीं है, आप आती नहीं है, इसलिए गलती से मुंह से निकल गया।

क्षमा करे, आइये आपका स्वागत है।’
सुनयना ने कहा-‘ कोई बात नहीं। ‘और वह भी भजन सुनने के लिए बैठ गई उसे आनन्द आ रहा था। भजन समाप्त होने के बाद आरती हुई और प्रसाद लेने के बाद वह घर आई, तो उसे लगा अपनी जीवन यात्रा में इस सुख का अनुभव तो उसने कभी किया ही नहीं। अब कॉलोनी में कोई भी कार्यक्रम होता तो सब उन्हें बुलाते और वो भी उसमें शामिल होती।

उन्हें अच्छा लगने लगा था। एक दिन विमला और सुनिता दोनों बातें कर रही थी कि बच्चों को किसकी  कोचिंग में भर्ती करें समझ में नहीं आ रहा है, कोचिंग की फीस भी बहुत ज्यादा है। सुनयना जी ने जब यह सुना तो उनके मन में विचार आया कि वे इन बच्चों को पढ़ा सकती है। उनका समय भी अच्छा कटेगा, और बच्चों की पढ़ाई में मदद हो जाएगी।

उन्होंने विमला और सुनिता से कहा अगर आप ठीक समझे तो आपके बच्चों को मैं पढ़ा सकती हूँ। फीस का पूछने पर वे बोली बच्चे पढ़ाई करके कुछ बन जाऐंगे तो मैं समझूँगी मुझे मेरी फीस मिल गई। उन दोनों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उनके साथ और भी कुछ बच्चे पढ़ने आने लगे थे। वे बारहवीं तक की कक्षाएं पढ़ाती थी।

उन्होंने अपनी सोच को नया मोड़ दे दिया था। वे आज तक अपने सुख के लिए प्रयास करती थी। अब उनके ज्ञान से वे दूसरों का जीवन प्रकाशित कर रही थी । अब तक वे अपने भौतिक सुखो के लिए भागती रही। अब बच्चों की और जरूरतमंदों की मदद करके उन्हें आत्मिक सुख की अनुभूति हो रही थी।

उन्होंने सिर्फ अपने जरूरत पूर्ति धन को अपने पास रखा।और बाकी सारा धन अनाथाश्रम, विधवा श्रम और जनकल्याण में लगा दिया। एक दिन आशा ने कहा- ‘मेमसाहब बेटी की शादी है, आप कुछ मदद कर दे। सुनयना ने कहा तू चिन्ता न कर मेरे पास बहुत सारी साड़ियां ऐसी रखी है जो मैंने पहनी ही नहीं, अगर तुझे पसन्द आए तो ले ले।

बहुत सारे नये बर्तन भी हैं उन्हें भी देख ले। और जितना राशन पानी लगे मुझे बता देना मैं मंगवा दूंगी। इसके अलावा सुनयना ने उसे दस हजार रूपये दिए।आशा बहुत खुश हुई और उसने सुनयना को बहुत दुआएँ दी। सुनयना को उसकी मदद करने पर बहुत खुशी हुई। सुनयना विचारधारा में परिवर्तन आ गया था, अब उसे लगने लगा था कि वह अकेली नहीं है।उसके साथ कई लोगों का प्यार है, आशीर्वाद है दुआएँ है। उसने अपने सुखी रहने का मार्ग तलाश लिया था और दु:ख और निराशा के भाव को अपने जीवन से निकाल दिया था।

प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

#सुख-दुख

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