स्तर – नीलम सौरभ

अपने सुयोग्य बेटे संकेत के रिश्ते के लिए लड़की और उसका घर-बार देख कर घर वापस आने के बाद से ही कल्याणी कुछ अनमनी सी थीं। उनका मस्तिष्क स्वीकृति-अस्वीकृति की दुविधा में हिचकोले खा रहा था। बेटे के हावभाव से न जाने क्यों उन्हें आभास हो रहा था कि उसे इस बार वाली लड़की मेधा पसन्द आ गयी है। और यह बात उन्हें ख़ुश करने के बजाय परेशान कर रही थी।

इकलौते बेटे के प्रतियोगी परीक्षा में सफल होकर मनपसन्द नौकरी पाते ही एक माँ के रूप में कल्याणी जी के मन में कामनाओं के कई कोमल अंकुर फूट पड़े थे, जिनमें से एक सर्वश्रेष्ठ पुत्रवधू के चयन का था और थोड़े ही समय में उन्हें लगने लगा था कि इस मामले में उनका बेटा उनसे भी दो कदम आगे है।

इससे पहले उनके विचार से बहुत अच्छी कई लड़कियों को ‘मुझे ज्यादा पसन्द नहीं आयी’, तो कभी ‘कुछ ठीक नहीं लगी’ कहकर संकेत ने मना जो कर दिया था।

अपने परफेक्शनिस्ट मिज़ाज़ के बेटे से उन्हें उम्मीद थी कि यहाँ तो वह पक्का मना कर देगा, क्योंकि इस बार तो उन्हें ख़ुद ही लड़की देखने-दिखाने में नहीं जँची थी। हाँ घर-परिवार सब अच्छा था, लड़की सुशील, उच्च-शिक्षित, आत्मनिर्भर थी पर उन्हें बहू के रूप में गौरवर्ण लड़की चाहिए थी जबकि यहाँ मेधा हर तरह से सलोनी होने के बावजूद रंग से साँवली थी, संकेत की तरह ही।

“क्या बात है माँ! आप कुछ उलझन में हैं?…जब से इंदौर से लौटकर आये हैं, आप परेशान दिख रही हैं!”

शायद संकेत ने माँ का अनमनापन ताड़ लिया था।

“तुमने इस बार वाली लड़की को लेकर क्या सोचा है बेटा? …बहुत देर तक तुम दोनों बातें करते रहे थे अकेले में!”

आखिरकार बेटे द्वारा ऐसे अवसर दिये जाने पर अपने मन को भारमुक्त कर लेने की मंशा से उन्होंने बिना घुमाये-फिराये सीधे बेटे की आँखों में झाँकते हुए अपने मन की बात कह ही दी।

“सच बोलूँ तो माँ, मुझे वह सुलझी हुई-सी धीर-गम्भीर लड़की भा गयी है! उसकी ऊँची सोच, रिश्तों को लेकर उसके अच्छे विचार और सौम्य स्वभाव उसके वास्तव में सुशिक्षित होने की गवाही दे रहे थे! …जैसी लड़की मैं चाहता था, वैसी पहली बार मिली है, ऐसा मुझे अनुभव हुआ। …इसलिए मेरी तरफ से तो हाँ है।”

एक सलज्ज स्मित रेखा उसके अधरों पर खिल उठी थी।


“लेकिन बेटा मुझे खास पसन्द नहीं आयी यह मेधा। हाँ खूब पढ़ी-लिखी है, कदकाठी भी आकर्षक है, घने-लम्बे बालों की सादी चोटी उस पर बहुत जँच रही थी उस दिन, उसकी आँखों में भी एक भोला सम्मोहन-सा अपनी ओर खींच रहा था। लेकिन…सबकुछ ठीक होकर भी..उसका वह..साँवला रंग…!” कल्याणी बोलते हुए अटक रही थीं।

“तो क्या हुआ माँ? मेरा भी रंग गहरा है, उससे कहीं ज्यादा ही!… और खुद आपका भी तो…!”  संकेत ने भी उन्हें गहरी दृष्टि से देखते हुए बात अधूरी छोड़ दी।

“इसीलिए तो बेटा मुझे गोरी बहू चाहिए! इकलौती औलाद हो हमारे! …भविष्य में बच्चों के हल्के रंग के होने की संभावना तो रहेगी। जानता है, मेरे इस साँवले रंग के कारण ही मेरी शादी के लिए तेरे नाना जी को कितने पापड़ बेलने पड़े।…कितनी जूतियाँ घिस गयी होंगी उनकी, तब कहीं जाकर मेरा ब्याह हो पाया! …भुक्तभोगी हूँ न बेटा, अपने बाबूजी की बेबसी को बहुत करीब से महसूस किया है, हर बार लड़के वाले देखने आते थे और बाद में जवाब देंगे बोलकर चल देते थे, हरबार, उनके जाने के बाद निराशा में डूबती अपनी अम्माँ की कातर आँखें भूल नहीं पाती हूँ मैं!…इसीलिए तो नहीं चाहती कि आगे चलकर तुझे भी वही सब झेलना पड़े।”

माँ ने अपना अतीत खँगालते हुए अपने हिसाब से समझाने का पुनः प्रयास किया।

“यह सब बता कर आधी समस्या तो आपने ख़ुद सुलझा दी माँ! जो आपके साथ हुआ, वो किसी और लड़की के साथ हो, आप कतई नहीं चाहेंगी न? अपनी जगह मेधा को रखकर देखिए, आपको निर्णय लेने में आसानी होगी। …सबकुछ पसन्द आने के बाद केवल उसके गहरे रंग के कारण आप रिश्ते से मना कर रही हैं…आपकी अम्माँ वाली वो कातर निगाहें किसी और लायक लड़की की माँ के चेहरे पर उभरे, आपको अच्छा लगेगा क्या? …ऐसे तो कहते हैं कि सभी दुनिया में अपना-अपना भाग्य लेकर आते हैं! …फिर भी अच्छी परवरिश और अच्छे संस्कार तो हमारे हाथ में होते हैं न माँ! …और एक बात…आप इस बेतुके कारण को ध्यान में रखकर मेरे लिए गोरी-चिट्टी पत्नी ले भी आयीं मगर बच्चे कहीं मेरे ही रंग पर चले जायेंगे तो क्या कर लोगी आप? …जैसे आप नानू के रंग पर चली गयीं, नानी तो बहुत साफ रंग की हैं!”

“अरे, माँ गोरी रहेगी तो 50% सम्भावना तो रहेगी उनके गोरे होने की!…गुण तो बाद में पता चलते हैं, पहली नज़र में तो रंग-रूप ही दिखता है। …मेधा से शादी करके..कहीं लड़की हुई और वो भी काली …कौन पसन्द करेगा उसे? कौन ब्याहने आयेगा??”

माँ का स्वर अब कुछ धीमा हो चला था, बेटे के तर्कों को सुनकर, किन्तु पूर्वाग्रह थे कि पीछा छोड़ने को तैयार ही नहीं थे।


“जैसे मेरे पापा जैसे ‘आपके रीयल हीरो’ ने आपको पसन्द किया था अपनी मर्ज़ी से, आपके गुणों को पहचान कर! …जैसे मैंने मेधा को पसन्द कर लिया है अपने पूरे मन से! …वैसे ही जो कोई हमारी बराबरी की सोच का होगा, हमारे वैचारिक स्तर का होगा …वह आयेगा न माँ! …अपने बेटे के चुनाव पर भरोसा रखिए न! …जो कुछ मैं अपनी जीवनसंगिनी में चाहता था, वह मुझे पहली बार किसी लड़की में दिखा है, फिर पता नहीं मिले न मिले! मान जाओ न माँ!”

“पर..!”

“पर-वर कुछ नहीं… अगर मुझे मेधा न दिलायी न…तो..तो मैं खाना नहीं खाऊँगा अब से..अनशन पर बैठ जाऊँगा, कहे देता हूँ!”

संकेत ने मज़ाक में बचपन के दिनों की तरह हठ करते हुए कहा और लाड़ से माँ की गोद में सर रखकर लेट गया। एकाएक उसके मुखड़े की निर्दोष मुस्कान कल्याणी जी के मुखमण्डल में भी प्रतिबिंबित होने लगी और वे दुविधा के धुन्ध से बाहर निकल आयीं। कल्पना में बेटे को घोड़ी पर सवार सजीले दूल्हे के रूप में निहारते उसकी बलाएँ लेने लगी थीं अब वे।

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(सहृदय, विज्ञ पाठकों!

रचना का सही सटीक शीर्षक सूझ नहीं रहा था अतः यह दे दिया किन्तु आप सभी से विनम्र निवेदन है, कृपया विचार करके कोई सुन्दर सा उचित शीर्षक सुझाएँ, आभारी रहूँगी। 

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स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

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