सोलह श्रंगार की पहली सीढी   – स्मिता सिंह चौहान।

तुम्हे तो बहुत एक्सपीरियंस है,लगता है काॅलेज मे जिंदगी बहुत रंगीन थी क्या तुमहारी ।”यही एक बात सुरभि सोचने भर से ,ऑखो मे आंसू लिये एक नजर घुमाते हुये अपनी सुहागरात के मुरझाये फूलो को देखती है ,और यकायक उठकर एक कोना चादर पकड़कर जोर से खींचती है ,बैड की साईड टेबल पर लगा लैम्प गिर पड़ता है। “अरे बाप रे क्या तोड़ फोड़ मचा रखी है?लगता है जोश अभी खत्म नही हुआ।”कहते हुये वीणा (सुरभि की जेठानी) ने कमरे मे कदम रखा।”हाय दैया ,ये लैम्प कैसे?क्या हुआ ?ये क्या रूप बनाकर खड़ी हो अब तक।अभी रस्मे शुरू हो जायेंगी ।देवर जी कहां है?” “क्या हुआ ?क्या टूटा?”टाॅवल से बालो को पोछता हुआ बाहर आता है।

सुरभि अभी भी बुत बनी खड़ी थी। “तुम ऐसे क्यो खड़ी हो?जाओ जल्दी से नहाकर तैयार हो लो ,सब मुंह दिखाई की रस्म के लिये तैयार बैठे है।बहुत देर से मांजी कह.रही है तुम्हे बुलाने के लिये ।हम ही कान मे रुई डालकर बैठे रहे ये सोचकर रात भर देवर जी ने जगाया होगा अब हम उठायेंगे तो गाली हम को ही दोगी तुम।”कहते हुये वीणा ने सुरभि को कोहनी मारी ,तो सुरभि जैसे किसी तंद्रा से जगकर फफक फफक कर रोने लगी। “क्या हुआ ?अरे सौरभ (देवर)क्या कुछ कह दिया तुमने।सुरभि तुम बैठो पहले ।ये लो पानी पीयो।”हाथ मे पानी का ग्लास देते हुये “मांजी ,मांजी …यहा तो आइये जरा।”कहते हुये वाणी ,सुरभि को बैड पर बिठाती है।सौरभ एकटक सुरभि की तरफ देखता है”देखो ,रात गयी बात गयी।अब ये वूमेन विक्टिम कार्ड खेलने की कोशिश मत करो।निकल जाता है मुंह से कभी,वैसे भी थोड़ी पी हुई थी मैने।” “क्या हो गया पहले दिन ही?ये क्यो रो रही है?

सौरभ …”ऑख दिखाते हुये मांजी जैसे कुछ छुपाना चाह रही हो। “मै नही रह पाऊंगी ऐसी घटिया सोच के आदमी के साथ ।नही …नही …..मै पूरी जिंदगी नही बिता सकती।”बदहवासो की तरह सुरभि अपने बिखरे बालो को ठीक करते हुये उठापटक करते हुये कुछ ढूंढने लगी । “अब सबके सामने नाटक मत करो।अच्छे से जानता हू मै तुम.जैसी लड़कियो को…..।”कहते हुये ,सुरभि का हाथ पकड़कर अपना दूसरा हाथ उसकी तरफ बढाया ही था

कि एक जोरदार तमाचा सौरभ के गाल पर वाणी ने मारा।सुरभि हतप्रभ थी ,और मांजी वाणी को देखे जा रही थी “तुम.जैसी मतलब।मांजी मैने आपसे पहले ही कहा था कि सौरभ की शादी करना मतलब किसी की जिंदगी बरबाद करना।ये कभी नही सुधर सकता,क्योकि दुनिया भर की औरते खराब ,बस हमारे सौरभ बाबू अच्छे।” “उसकी बात भी तो सुनो वाणी ,तुम्हे कुछ पता भी नही और तमाचा जड़ दी।बाहर सब सुन रहे होंगे।”मांजी झिड़कते हुये बोली। “मांजी आंख बंद करने से रात नही होती।आपको नही पता क्या ?जब सौरभ की सोच से तंग आकर हमने एक ही शहर मे अलग रहने का फैसला ले लिया ।




आप नही जानती क्या? ये कल की आयी अपनी बीवी को छोड़ देगा।मेरे पति ने तो कभी मुझे नही रोका टोका ,मेरे जाॅब करने पर,किसी से बात करने पर लेकिन सौरभ के मुझ पर रोजमर्रा के कटाक्षो ने ,और आपके सौरभ प्रेम ने हमे घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया ।10साल बाहर क्या रह लिये सौरभ बाबू ?सोचते है सारी दुनिया का ज्ञान इनमे ही समाया है।या ये कह लो औरतो के प्रति इनका घटिया ज्ञान।

लेकिन आप तो सुरभि के मुंह से ही सुनकर मानोगी इनकी घटिया सोच का गंध।तुम ही बोलो सुरभि तुम.पर कौन से फूल बरसाये?”कहते हुये वाणी सुरभि की ओर बढी। “बाद मे बात करते है,बहुत तमाशा हो गया।सुरभि जल्दी से तैयार होकर आ जाओ ,पूरा श्रंगार करके।ये सब तो पति पत्नी के बीच छोटा मोटा चलता ही रहता है।”मांजी ने बात को दबाने की कोशिश की। “नही मांजी ,मुझे आपके बेटे के नाम का कोई भी श्रंगार मंजूर नही ।औरत का स्वाभिमान किसी भी श्रंगार की पहली सीढी होती है ,और आपके बेटे ने पहली रात ही मेरे चरित्र पर लांछन लगाकर उसे कुचलने की कोशिश की है।क्योकि मै पत्नी सुख का आनंद शायद बिना नशे के ले रही थी।

आप सोचिये जो आदमी पहली रात अपनी बीवी को चरित्र् प्रमाण पत्र दे सकता है ,वो खुद कितना चरित्रवान होगा?क्या यही बात मै कह.सकती थी ,या कोई औरत पूछ सकती है अपने पति को पहली रात ही ? तब तो वो बेहया हो जाती।भाभी आप शायद मेरा मन समझ पाये ,प्लीज मेरी बात मेरी मां से करवा दीजिये मै यहां नही रह पाउंगी।”कहते हुये आनन फानन मे अपना पर्स उठाकर बाहर की तरफ अपने बालो को समेटते हुये निकल पढती है।वाणी भी सुरभि का साथ निभाने बाहर की तरफ जाती है ।मांजी और सौरभ सर झुकाये एक दूसरे से आंखे भी नही मिला पा रहे थे।

दोस्तो ,यह कहानी समाज मे पुरुष मानसिकता का वो आईना है जहां औरत के स्वाभिमान को पुरुषो की खोखली मानसिकता के आगे नतमस्तक होना पड़ता है क्योकि उन्हे पुरुषो का चरित्र प्रमाण पत्र देने का हक,अधिकार परवरिश के नियमो मे भेद करके उनसे छीन लिया जाता है ।सबसे दुःखद बात यह.है कि उस परवरिश को एक औरत ही दूसरी औरत के लिये पीढी दर पीढी तैयार करती है और प्रोत्साहित करती है।इस परम्परा को खंडित करने के लिये हमे वाणी जैसी सोच,और सुरभि जैसी स्वाभिमान को अपना श्रंगार मानने वाली औरतो को प्रोत्साहित करने की आवश्यक्ता है ,आपकी इस बारे मे क्या राय है?

आपकी दोस्त

स्मिता सिंह चौहान।

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