बदायूं के सुदूर उत्तर में शेखुपुर नामक एक छोटा-सा सुंदर गांव था, जहाँ विनोद कुमार सिंह और उनकी
धर्मपत्नी अंशु अपनी बेटी आराध्या के साथ रहते थे। विनोद कुमार सिंह एक सेवानिवृत्त अध्यापक थे।
उम्र ढल चुकी थी, पर आँखों में आज भी बेटी के सुनहरे भविष्य के सपने पलते थे।
रिटायर होने के बाद उन्होंने फिर से खेती-बाड़ी शुरू की। वे अपने खेतों में हल चलाते, फसल उगाते और
बेटी को पढ़ा-लिखाकर योग्य नागरिक बनाने में लगे रहते।
विनोद कुमार सिंह शांत स्वभाव के सरल व्यक्ति थे। उनकी ममता शब्दों से नहीं, कर्मों से झलकती थी।
बेटी के स्कूल जाते समय छाँव बनकर चलते, परीक्षा के दिनों में नींद छोड़ टॉर्च की रोशनी में बेटी को दूध
गरम करके देते।
बेटी आराध्या उनकी जान थी। वे जानते थे कि एक दिन उसे ससुराल भेजना ही होगा। वर्षों से वे छोटी-
छोटी बचत करते आए थे — त्योहारों पर खर्च कम करके, मिठाइयाँ छोड़कर। हर पैसा उन्होंने बेटी की
विदाई के लिए बचाते।
आराध्या को उन्होंने आत्मनिर्भर बनाया, फिर भी मन के किसी कोने में एक चुपचाप चिंता पलती रही —
बिटिया को एक दिन विदा करना होगा।
एक दिन सौभाग्य से आराध्या की शादी तय हो गई। वर सुशिक्षित था, शहर में नौकरी करता था। पूरा
गाँव विनोद कुमार सिंह की प्रशंसा करने लगा — “बेटी को कितने अच्छे संस्कार दिए हैं!”
परंतु शादी की तैयारियों के बीच विनोद जी के चेहरे की मुस्कान में छिपा दर्द भी दिखता — वह दर्द जो हर
पिता के मन में होता है, जब उसकी बेटी किसी और के घर जाने वाली हो।
घर में चहल-पहल थी — रिश्तेदारों का आना-जाना, गीत-संगीत, हल्दी-मेहंदी की रस्में। आराध्या बार-बार
अपने पिता के पास बैठ जाती, चुपचाप उन्हें निहारती। वह समझती थी कि उनकी आंखों की चमक के
पीछे कितना कुछ छिपा है।
शादी की रात आई। आराध्या दुल्हन बनी बैठी थी — आँखों में शर्म, मन में भविष्य की अनगिनत
कल्पनाएँ।
विनोद कुमार सिंह उसे देखते रहे और मन में सोचते रहे — यही तो वही बच्ची है, जिसे गोद में खिलाया था,
जिसकी उंगली पकड़कर चलना सिखाया था। अब वह किसी और की जिम्मेदारी बनने जा रही है.
विदाई का समय आया। सारा माहौल भावुक हो उठा। ढोलक की थाप धीमी हो चुकी थी, गीतों की गूंज
दिलों में रह गई थी।
आराध्या पिता से लिपटकर बिलख पड़ी — जैसे बरसों की दूरी एक ही पल में आ गई हो।
विनोद कुमार ने उसे सीने से लगाया। उनका कंधा भीग चुका था, पर उन्होंने कुछ नहीं कहा। सिर्फ बेटी के
सिर पर हाथ फेरा और माथे को चूमा।
धीरे से बोले —
बिटिया, आज से तुम्हारा नया जीवन शुरू हो रहा है। उस घर को अपनाना, सबका आदर करना। लेकिन
ये आँगन… ये हमेशा तुम्हारा है। जब भी थक जाओ, लौट आना।
आराध्या कुछ न कह सकी। बस पिता के हाथों को अपने माथे से लगा लिया।
जब वह कार में बैठी, बार-बार मुड़कर देखती रही। दरवाज़े पर खड़े विनोद कुमार की आंखों में अब वह
नमी थी, जिसे उन्होंने बहुत देर से रोका हुआ था।
कुछ पल बाद कार चली गई — साथ ले गई बेटी को, और पीछे छोड़ गई ढेरों यादें और एक पिता का मौन
आशीर्वाद।
समय बीता। विनोद कुमार सिंह अब ज़्यादातर समय चारपाई पर बिताते थे। एक दिन आराध्या मायके
आई। विनोद जी ने उसका हाथ थामा और बोले —
“बेटी, विवाह केवल दो लोगों का नहीं, दो कुलों का मिलन है — और एक पिता के लिए यह सबसे बड़ा
यज्ञ।”
आराध्या की आंखें भर आईं।
“तुम दोनों की खुशियाँ ही मेरी सबसे बड़ी संपत्ति हैं,” उन्होंने मुस्कुराकर कहा।
उस दिन आराध्या समझ गई —
पिता के जीवन में शुभ विवाह सिर्फ बेटी की शादी नहीं होता, वह उनका सबसे बड़ा त्याग, सबसे बड़ा प्रेम
और सबसे पवित्र संस्कार होता है।
विनोद कुमार सिंह
जनपद – बदायूं (UP24)
उत्तर प्रदेश