अगले जन्म में मिलेंगे – मुकुन्द लाल

दशकों बाद जब विशाल अपने गांँव गया तो उसके कदम अनायास ही उस खंडहरनुमा भवन की ओर बढ़ गए। उसके समीप पहुंँचने पर पहले की तरह ही वह ध्वस्त  विल्डिंग जो कभी खूबसूरत इमारत हुआ करती थी के पास से गुजरने वाले सोता के जल की कल-कल ध्वनि सन्नाटे को भंग कर रही थी। वह उस पर बने अति प्राचीन पुल को पारकर खंडहर में दाखिल हो गया। इधर-उधर नजर दौड़ाने पर उसे उस कमरे का भग्नावशेष दिखलाई पड़ा जो कमरा उसके प्यार का गवाह था। जहाँ प्रेम में वह मगन होकर गप्पे करता था, दिल की बातों को साझा करता था। कैसे दिन शाम में बदल जाता था, कुछ पता ही नहीं चलता था। कभी-कभी तो रात तक हो जाती थी। मजबूरी में नास्ता-खाना वहीं हो जाया करता था।

   काॅलेज की पढ़ाई के समय जब उस साल दशहरे की लम्बी छुट्टी में ट्रेन से घर आ रहा था तो ट्रेन में ही अल्का से उसकी अचानक मुलाकात हुई थी। यह जानकर प्रसन्नता हुई थी कि उसके गांँव की भी कोई लड़की उसी शहर के काॅलेज में पढ़ रही है, जहाँ वह पढ़ रहा था।

  उस समय शायद ही कोई लड़की को काॅलेज में पढ़ाना चाहता था। लड़की के लिए चिट्ठी-पत्री लिखने पढ़ने भर की पढ़ाई यथेष्ट मानी जाती थी।

  बात-चीत का शुभारंभ तब हुआ जब रास्ते में ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी। गर्मी का मौसम था। प्यासी अल्का को प्लेटफार्म पर से पेयजल लाना था। प्लेटफार्म पर उतरकर जल लाना उसको असमंजस की स्थिति में डाल दिया था। विशाल ने उसकी मनःस्थिति को भांप लिया था। पानी की आवश्यकता उसे भी थी। ऐसी स्थिति में उसने कहा, ” लाइये बोतल आपका भी पानी लेता आऊंँगा।”

 ” आप क्यों कष्ट उठाना चाहते हैं मेरे लिए।”

  “कोई हर्ज नही है, यह बहुत ही साधारण सी बातें हैं, इसमें कष्ट जैसी कोई बातें तो है ही नहीं”




  उसका जवाब सुनकर वह खामोश हो गई। विशाल उसका भी बोतल लेकर प्लेटफार्म पर उतर गया। 

  कुछ ही मिनट में दोनों बोतलों में पेयजल भरकर लौट आया ट्रेन में। क्षण-भर बाद ही गाड़ी खुल गई। 

  अक्सर काॅलेज आते-जाते ट्रेन में मुलाकातें होने लगी। उसके साथ कभी-कभी उसके अभिभावक भी रहते थे, कभी उसका विश्वस्त नौकर या उसका परिचित व्यक्ति भी रहता था।

  परीक्षा के दौरान नोट्स लेने-देने का सिलसिला शुरू हो गया। उसी क्रम में उसकी हवेली जाने का मौका मिला था। उसकी मांँ गौरी  देवी से भी  उसकी मुलाकात हुई थी। उसके पिताजी रामाशीष बाबू अक्सर जमीन से संबंधित केस-मुकदमों के चक्कर में गांँव से बाहर ही रहते थे।

  हकीकत यह थी कि जमींदारी जाने के बाद अनाधिकृत रूप से उनके द्वारा कब्जा की गई जमीनें और गिरवी रखे गए खेतों-खलिहानों व मकानों-दुकानों से संबंधित इतनी समस्याएँ उत्पन्न हो गई थी, किसानों के हित में नये-नये नियम-कानून बनने के कारण कि उनको कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगाने के सिवाय उस समय कोई रास्ता नहीं बचा था।

  हवेली के जर्रे-जर्रे में शान-शौकत का अक्स मौजूद था। उसके कदम-कदम पर अंग्रेजी सल्तनत की निशानियाँ जमींदारी प्रथा की दास्तान सुना रही थी।

  हवेली की साज-सज्जा से परिपूर्ण खूबसूरत मेहराबों और छतों को देखकर वह भौचक्का रह गया था। किसी के भवन में ऐसी सजावट की कल्पना तक उसने  कभी नहीं की थी।

  जब भी छुट्टी में वह शहर से गांँव आता अक्सर हवेली में उसका आना-जाना लगा ही रहता था। 

  कभी-कभी हवेली के अगले हिस्से में निर्मित अतिथि कक्ष में बैठकर बातें होती थी। उसकी एक बड़ी विधवा बहन भी थी जो शादी होने के पाँच-सात महीनों के बाद ही विधवा हो गई थी, वह भी चर्चा-परिचर्चा में भाग लेती थी। इससे उसके नीरस जीवन में थोड़ी सरसता आ जाती थी। उसके चेहरे पर उदासी की जगह रौनक आ जाती थी। वाद-संवाद के विषय कभी शादी-विवाह में दहेज, कभी भ्रष्टाचार, कभी देश की स्थिति, कभी बाल-विवाह… आदि पर विशाल, अल्का और उसकी विधवा बहन अपना-अपना विचार व्यक्त करते।

  इस क्रम में कब एक दूसरे को चाहने लगे, एक-दूसरे के करीब आने लगे पता ही नहीं चला।

  परिचर्चा के बीच गौरी देवी प्रायःउन लोगों के लिए चाय-नास्ता भेज दिया करती थी।

  उसकी बड़ी बहन की उपस्थिति के कारण अंतर्मन में उठते जज्बातों को परस्पर अभिव्यक्त करना कठिन महसूस होने लगा।विशाल और अल्का मन मसोस कर रह जाते थे। आंँखों के इशारों और चेहरे के भावों को पढ़कर वे दोनों संतोष कर लिया करते थे। रिश्तों की इमारत की बुनियाद तैयार होने लगी थी। दोनों ने आपसी सहमति से निर्णय ले लिया था कि पढ़ाई समाप्त होने के बाद वे दोनों पति-पत्नी के पवित्र रिश्ते में बंध  जाएंँगे।   आपसीवार्ता में किसी प्रसंग पर हंँसी आ जाती तो वे लोग इकट्ठे हंँसने लगते। उन्मुक्त हंँसी की गूंँज बाहर तक पहुंँच जाती थी। किसी मुद्दे पर चल रही बहस और हंँसी की तेज आवाजें जब बाहर जाने लगी तो लोग आपस में खुसुर-पुसुर करने लगे। विशाल के हवेली से बाहर निकलने पर लोग  उसे सशंकित नजरों से देखने लगे।




  अतृप्त भेंट-मुलाकातें ही मुसीबत का कारण बनी। वह अकेले में एकाधिकार से बात-चीत करना चाहता था अल्का के साथ जिसमें किसी की दखलंदाजी न हो और ऐसा एकांत उसे नसीब नहीं हुआ, इसमें उसकी बड़ी दीदी राह का रोड़ा साबित हुई।

  छुट्टी समाप्त होते ही दोनों शहर चले गए, अपने-अपने काॅलेज में क्लास करने के लिए।

  गाँव से आये दो सप्ताह व्यतीत हो गये थे। इस बीच विशाल को उससे मुलाकात असंभव सा प्रतीत होने लगा। वह बेचैन हो उठा। वह छटपटा रहा था अल्का से मिलने के लिए। वह दिल का हाल बयां करना चाहता था। उसके कान उसकी आवाजें सुनने के लिए व्यग्र थे। आंँखें उसको देखने के लिए तरस गई थी। काॅलेज के होस्टल में जाकर मिलना तो अनुचित था ही किन्तु नामुमकिन भी था। जबर्दश्त पहरा रहता था लड़कियों के होस्टल में।

  विवश होकर उसने फोन डायरेक्टरी से काॅलेज के होस्टल का फोन नम्बर खोजकर फोन लगा दिया। 

” हैलो” कहते ही किसी महिला ने फोन उठाया।

  “कौन हैं?”

  “मेरा नाम विशाल है, मैं अल्का से बात करना चाहता हूँ, हम उसके गाँव के पड़ोसी हैं।”

  तब उस महिला ने कुछ मिनट ठहरने के लिए कहा था।

  दो-तीन मिनट के बाद ही उसने कहा था कि गार्जियन के लिस्ट में यह नाम दर्ज नहीं है, फिर उसने सख्त आवाज में कहा कि वह बातें नहीं कर सकता है और न मिल सकता है। इसके साथ ही फोन कट गया था।

  बात-चीत तो नहीं हुई लेकिन इसकी सूचना रामाशीष बाबू को मिल गई। 

   कुछ इधर-उधर से भी उनको उड़ती खबर मिली थी इसके पहले परन्तु उनको उस वक्त  उस पर विश्वास नहीं हुआ था।

  परीक्षा समाप्ति के उपरांत काॅलेज बन्द होने पर अल्का और विशाल जब गाँव पहुंँचे तो उसके पिताजी ने विशाल को  अपनी हवेली में बुलाने के लिए अपने आदमी को उसके घर भेजा। 

  विशाल के पिताजी उस गांँव के छोटा-मोटा व्यवसायी थे। उसने रामाशीष बाबू के नौकर को अपनी चौखट पर देखकर विशाल से पूछा कि क्या बात है, किन्तु विशाल ने कोई उत्तर नहीं दिया था वह सीधे हवेली चला गया। उसके पिताजी आश्चर्यचकित होकर अपने पुत्र के उद्विग्न चेहरे को देखते रह गए।

  विशाल के हवेली पहुंँचने पर उन्होंने उसे डाँटा, फटकारा होस्टल में बेवजह फोन करने के लिए। 

  वह मौन होकर उनकी डांँट-फटकार को झेल लिया।

  वातावरण में सन्नाटा छा गया था, जिसको भंग करते हुए, क्रोध और अहंकार से ग्रस्त होकर उन्होंने कड़कती आवाज में फिर कहा, ” अगर तुम्हारे दिल में अल्का के प्रति कोई बात है तो अपने दिल से निकाल दे, नहीं तो अंजाम बहुत बुरा होगा। उसकी मान-मर्यादा और इज्जत से खिलवाड़ करने की कोशिश भूलकर भी न करना… तुम्हारे जैसे फकीर की औकात ही क्या है, मेरी बेटी की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने का, रिश्ता जोड़ने का। एक ही बिरादरी का होने से क्या होता है?… झोपड़ी में रहकर महल का ख्वाब मत देखो, मेरी बेटी की इज्जत पर तुमने हाथ डालने की कोशिश की तो उसकी ऐसी सजा देंगे कि इस गांँव के लोग स्वप्न में भी ऐसी सजा की कल्पना नहीं की होगी। “

  विशाल अपमान का घूंट पीता रहा किन्तु कुछ नहीं बोला। 

  उसने अल्का को भी बुलाकर डांँट पिलाई और दो तमाचे भी जड़ दिये उसके गालों पर तब विशाल ने कहा,” इसका कोई दोष नहीं है अंकल!… जो सजा देनी हो मुझे दीजिए, मैंने फोन किया था। “




 ” तुम्हारी पहली गलती है, इस लिए माफ करता हूँ, तुम्हारी सजा यही है कि आइंदा तुम इस हवेली में कदम नहीं रखोगे और न अल्का से संपर्क करने की कोशिश करोगे।”

    छुट्टी समाप्त होने के बाद शहर जाने के लिए वह अपने हाथ में बैग लिये ट्रेन के इंतजार में प्लेटफार्म पर चहलकदमी कर रहा था कि उसके पास ही बने विश्रामालय में अचानक उसकी नजर  अल्का पर पड़ी। वह तेज कदमों से चलकर उसके पास पहुंँच गया। वह उदास-उदास सी बैठी हुई थी। उसका नौकर शायद टिकट लाने गया हुआ था।। उसको देखते ही वह उठकर खड़ी हो गई। हाल-समाचार पूछने के बाद उसने कहा, “कैसे हो?”

  “मैं कैसा रह सकता हूँ, तुम अच्छी तरह समझ सकती हो।”

   इधर-उधर देखते हुए अल्का ने कहा, ” मेरे पिताजी बड़े क्रूर आदमी हैं, मुझे डर लगता है कि, तुम पर हमला न करवा दें, मुझे अपनी चिंता नहीं है विशाल किन्तु तुम्हारी चिन्ता से परेशान रहती हूँ, मैं बहुत भयभीत हूँ। “

 ” तुम मेरे लिए परेशान मत हो। मुझे डर नहीं है अल्का!… मुझ पर हमला करवाकर मेरी जान ले सकते हैं लेकिन मेरे दिल में तुम्हारे प्रति जो प्रेम की लौ जल रही है, वह बुझ नहीं सकती है… मोहब्बत और इबादत में कोई फर्क नहीं होता है। हम मर सकते हैं किन्तु मेरे और तुम्हारे बीच जो रिश्ते की कड़ी जुड़ गई है, वह कभी नहीं मरेंगे। मेरे और तुम्हारे बीच के रिश्ते शारीरिक नहीं, दो आत्माओं के बीच का है। सच्चा प्यार करने वालों को कांटों पर चलना पड़ता ही है अल्का। “

 ” क्या करूँ विशाल!… मैं खुद बेचैन हूँ, मुझे हमेशा डर लगा रहता है कि मेरे कारण कहीं तुम्हारी जान खतरे में नहीं पड जाए। “

 ” तुम क्यों मेरी जान की परवाह करती हो, इस धरती पर से हर प्राणी को एक न एक दिन जाना पड़ता है ” तल्खी युक्त मुस्कुराहट के साथ उसने कहा।

 ” कहीं भोला न आ जाए, देख लेगा तो खबर कर देगा हवेली में। हमलोग अब शायद नहीं मिल सकेंगे। रिश्तों की बुनियाद पर इमारत तो नहीं बन सकी,हमलोग अगले जन्म में फिर मिलेंगे “कहते-कहते उसकी आंँखें भर आई।

  कुछ क्षण तक खामोशी छाई रही फिर अल्का ने कहा, ” तुम शादी करके घर-गृहस्थी बसा लेना विशाल, इस जन्म में हम दोनों को रिश्तों में बंधना मुमकिन नहीं है। मेरी भी शादी ठीक हो गई है, मुझे तो चाहरदीवारी में कैद रहना है, चाहे वह मायके का हो या ससुराल का।”

  “ऐसा क्यों कहती हो अल्का?”

  “मैं तो मर चुकी हूंँ, चलती-फिरती लाश हूँ।… किसी लाश के साथ कोई कैसा भी व्यवहार करे, उससे किसी तरह का रिश्ता बना ले, उससे क्या फर्क पड़ता है। बिना भावनाओं के मनुष्य मात्र बेजान पुतलों की तरह ही होते हैं ।… तुम्हारी फिक्र मुझे लगी रहती है “कहते-कहते उसकी आंँखों में आंँसू छलछला आये थे जिसको तेजी से उसने रुमाल से पोंछ लिया था।

  उसकी भी आंँखें गीली हो आई थी। 

                        उस खंडहर की एक चुटकी मिट्टी ललाट पर लगाकर वह लौट पड़ा था। रास्ते में उसे बचपन के एक साथी से भेंट हो गई। उसने अपनी दुकान में विशाल को बैठाया। वह उसकी कहानी से पहले से ही परिचित था। हाल-समाचार और चाय की औपचारिकता के बाद उसने कहा कि उस घटना के चार-पाँच सालों के बाद ही अल्का के पिताजी की मौत कैंसर से हो गई। कुछ वर्षों के बाद उसकी मांँ की भी मृत्यु हो गई लेकिन बहुत दुख के साथ कहना पड़ता है कि दो-चार माह पहले ही अल्का की भी मौत हो गई। उसका धनी किन्तु शराबी पति उस पर बहुत अत्याचार करता था। मृत्यु कैसे हुई यह तो वह नहीं जानता है लेकिन अब वह दुनिया में नहीं है।

  वह तेज कदमों से उतर पड़ा था दुकान से दुखी होकर। 

#एक_रिश्ता 

   स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित

                  मुकुन्द लाल 

                  हजारीबाग(झारखंड)

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