शिकायत अपनों से – अनिला द्विवेदी तिवारी  : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : अपूर्वा जी घर के बगीचे में तुलसी के पेड़ के पास, बैठे-बैठे गुनगुना रहीं थी,,, “शिकवा नहीं किसी से, किसी से गिला नहीं!

नसीब में नहीं था जो हमको मिला नहीं…!” इस गाने के साथ ही उनकी आँखें और आवाज भरभरा आई।

फिर अपने साड़ी के आँचल के एक छोर को पकड़ कर, आँखों के नम हो आए कोरों को  पोंछते हुए, वे अतीत के कुछ वर्ष पीछे चली गईं।

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अपूर्वा जी जब विवाह करके अपनी ससुराल आईं थी तब, उनके मायके ससुराल दोनों जगह के लोग यही कहते थे कि अपनी ससुराल में कैसे मैनेज कर पाएंगी एक तो बड़े घराने से ताल्लुक रखती हैं दूसरे पढ़ी लिखी और शहर-नगर में पैदा हुईं और पली बढ़ीं।

अपूर्वा जी एक कान से सुनतीं दूसरे कान से निकाल देतीं।

कई बार यह बात लोग उनके सामने भी बोल देते थे लेकिन वे जबाव देने की बजाय मुस्कुराकर बातों को टाल देतीं थी। क्योंकि उन्होंने तो मन ही मन कोई बड़ा सा संकल्प ले रखा था ताकि उनके माता-पिता के संस्कारों को कोई ऊंगली ना उठा सके।

समय गुजरता रहा, दिन, माह में, माह वर्ष में बीत गए और देखते ही देखते उनके विवाह को कई वर्ष भी बीत गए।

उनके दो बच्चे भी हो गए थे! बच्चे भी बड़े हो रहे थे।

अपूर्वा जी के घर पर होटल धर्मशाला जैसा वातावरण रहता था। उनके पति आदित्य जी, जो भी कमाकर लाते लोगों के खाने-पीने और खर्च में ही निकल जाता था और उनके संयुक्त परिवार की देख रेख में। अतः चाहकर भी अपूर्वा जी अपने शानो-शौकत के लिए कुछ नहीं बचा पातीं थी। ऊपर से बच्चों की देख-रेख उनकी पढ़ाई लिखाई। इसलिए अपूर्वा जी ने शानो-शौकत करना ही छोड़ दिया था। बहुत लोग इनकी इस बात पर भी टोकते थे कि  इस उम्र में बनाव श्रृंगार छोड़ना अच्छी बात नहीं है। बहुत से लोग कहते सादगी में भी अच्छी लगती हो! पर लोगों का क्या है, वो तो कुछ ना कुछ अवश्य ही बोलेंगे। लोगों की बातों पर भी अपूर्वा जी बस हौले से मुस्कुरा देतीं, जिसे जो अर्थ लगाना है लगाता रहे।

उनके पति को अपूर्वा जी क्या करती हैं क्या नहीं! कैसी रहती हैं इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था! उन्हें फर्क पड़ता था तो सिर्फ इस बात से कि उनकी स्वयं की,  बच्चों और उनके पारिवारिक सदस्यों की देखरेख अच्छे से अपूर्वा जी कर रही हैं या नहीं?

सबको खाना दे दिया, सबके झूठे बर्तन साफ कर लिया, सबके कपड़े धो दिए या नहीं?

दिन भर सबकी देखरेख करो उसके बाद उनकी सेवा में भी कोई कमी ना रह जाए अन्यथा इस बात पर झगड़ा निश्चित था। वो थकी हारी हैं इस बात से भी आदित्य जी को कोई खाश मतलब नहीं होता था।

इस प्रकार अपने आप को, सादगी की मूरत बनाकर अपूर्वा जी ने घर परिवार संबंधियों की देखरेख में अपना पूरा जीवन होम दिया। बिना अपनी चिंता फिकर किए हुए!

चूंकि उनकी शिक्षा भी अधूरी रह गई थी तो काम से बचा हुआ समय उन्होंने अपने पठन-पाठन में लगा दिया। नतीजा ये हुआ कि उन्हें औसत नींद और भोजन करने का भी वक्त नहीं मिला।

खाने-पीने में तो वही जो बच गया ठंडा-गर्म जिंदा रहने के लिए पेट भर लिया। इस बात का भी आदित्य जी को कभी फर्क नहीं पड़ा ना ही उन्होंने ध्यान दिया। 

उनकी नजर में शायद जीवन साथी के रूप में सारे दायित्व पत्नी के होते हैं सारी व्यवस्था देख-रेख  करना, पति को इन सब बातों से उदासीन रहना होता है।

शिक्षित होकर भी उनका कार्य व्यवहार और विचार हमेशा अशिक्षितों के समान रहा।

उन्हें अपने बैंक बैलेंस की हमेशा चिंता रही लेकिन अपूर्वा के स्वास्थ्य की परवाह उन्होंने कभी नहीं की।

अपूर्वा जी भी इस बात को अपनी तकदीर मानकर जीती रही।

पूरे परिवार (चाचा-ताऊ के परिवारों की) देख-रेख करना वे अपना फर्ज समझते रहे सिर्फ अपूर्वा को छोड़कर।

नतीजतन अपूर्वा अपनी उम्र से अधिक थका हुआ और बूढ़ा महसूस करने लगी थी। ऐसा लगता जैसे शरीर में जान ही ना बची हो बस जबरदस्ती में जिए जा रही हो।

कम उम्र से ही आँख-कान ने भी साथ छोड़ दिया था।

आज अब वह सब देखने भी नहीं आ रहे जिनकी सेवा सुश्रुषा में दिन रात वह लगी रहती थी और आदित्य जी लगाकर रखते थे।

खैर अपूर्वा को अब किसी से कोई शिकायत और गिले-शिकवे नहीं हैं उसे सिर्फ शिकायत है तो अपने आप से!

क्यों उसने दूसरों के लिए अपना वक्त, पैसा और शरीर बर्बाद किया?

जबकि अच्छे से पता है कि आजकल कोई किसी का नहीं होता। काम निकलते ही लोग पहचान तक भूल जाते हैं!

देर से ही सही लेकिन अब अपूर्वा ने भी किसी की परवाह करनी बंद कर दी है। जब किसी को उसकी परवाह नहीं, तो वो भी किसी की परवाह क्यों करे! उन्होंने अब लेखन-पठन और धर्म-अध्यात्म को अपने जीवन में उतार लिया है।

बच्चे भी उदासीन रहने लगे थे तो अपूर्वा जी ने भी उनके प्रति उदासीन रवैया अपना लिया था।

जब अपूर्वा जी अपने विचारों में खोई हुई थीं तभी पीछे से उनकी पड़ोसन और सहेली राधिका जी ने उनके  काँधे पर हाथ रखते हुए कहा,,, “अपूर्वा मैं कब से तुझे आवाज लगा रही हूँ, मंदिर और टहलने नहीं चलना है क्या आज?”

तब वे अपने अतीत के ख्यालों से बाहर आईं और कहा,,, “चलना है ना! वो मैं कुछ सोचने लगी थी।”

फिर दोनों सहेलियाँ मंदिर और टहलने चली जाती हैं।

स्वरचित

©अनिला द्विवेदी तिवारी 

जबलपुर मध्यप्रदेश

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