ह्रदेश जी की पत्नी का आज पहला श्राद्ध था, बहू और बेटे ने हर चीज उनकी पत्नी रमा की पसंद की बनाई थी । तर्पण भी बहुत मन से किया था, और जो ब्राह्मणी श्राद्ध का भोजन करने आईं थी उन्हें बड़े चाव से खाना खिला दान दक्षिणा देकर विदा किया।
खाने में भी खीर, पूरी,दाल की कचौड़ी,अरबी,सीताफल की सब्जी,दही भल्ले, लच्छा और मिठाई में गुलाब जामुन भी मंगाए थे ।सभी कुछ तो था,जो उनकी पत्नी रमा को पसंद था।
पर हाय रे विधि का विधान कैसा यह दस्तूर है कि….
जिंदों को डले,मरो को बड़े,
यानि जीवित व्यक्ति को जीते जी तो कोई पूछता ही नहीं कि उसे क्या पसंद है, क्या नापसंद , और मरने के बाद सारी उसकी पसंद की चीजें बनाई और खिलाई जाती है।वो अपने मन में सोचने लगे कि काश इंसान अपने बुजुर्गों की जीते जी सेवा कर पाये!
तभी हृदेश जी अपने बेटे की आवाज को सुनकर जैसे नींद से जाग गए, जब बेटे ने उन्हें खाने की थाली थमाकर झकझोर कर कहा, पापा अब आप भी खाना खा लीजिए ,मां के श्राद्ध का काम पूरा हो गया है।
थाली में खीर की कटोरी देख कर हृदेश जी की आंखों से आंसू झर झर झरने लगे, उन्होंने खीर की कटोरी अलग निकाल कर रख दी, और फिर अपने बेटे से कहा, बेटा जब जीते जी तेरी मां इस खीर को तरस गई तो मैं भी अब मृत्यु के बाद ही इस खीर को खाऊंगा।
ऋतु गुप्ता
खुर्जा बुलंदशहर
उत्तर प्रदेश