सपनों के इन्द्रधनुष – डॉ पुष्पा सक्सेना

  उस पहाड़ी कस्बे में पापा की नियुक्ति होते ही आस-पास के बंगले वाले स्वागत-सत्कार में जुट गए थे। रोज ही नई सौगातों, पार्टियों का तांता लग गया था। छोटी जगहों में पुलिस अधिकारी का दबदबा ज़रा अधिक ही होता है। पापा को जो कोठी मिली थी उसके बाई ओर मानिकराम की लांड्री थी। पूरे कस्बे में ड्राईक्लीनिंग की यही छोटी-सी जगह थी। लांड्री के ऊपर ही मानिकराम का घर था। अन्य अधिकारी पत्नियों की बातें सुन चार दिन बाद ही मम्मी बड़बड़ा रही थीं,

यह भी कोई बात हुई? हमारे घर के पास इन लांड्री वालों को ही रहना था? बच्चों की कम्पनी क्या होगी?

    पापा झुँझला उठे थे,

हमारे पहले भी यहाँ लोग रह हैं, क्या हमारे लिए नया बंगला बनेगा? बच्चों को समझा दो पार्क में घूमा करें, सब आँफिसर्स के बच्चे वहीं जाते हैं।।

    कस्बे के लड़के-लड़कियों को तीन मील दूर के एकमात्र इण्टर काँलेज में पढने जाना पड़ता था। दो वर्ष पूर्व इसी काँलेज से इण्टरमीडिएट परीक्षा में मानिकराम के पुत्र राजमोहन ने पूरे प्रान्त में प्रथम आ सबको विस्मित कर दिया था। यही नहीं, जब इंजीनियरिंग की अखिल भारतीय प्रतियोगिता में भी उसे द्वितीय स्थान मिला तो काँलेज समाचारपत्रों की सुर्खियों में आ गया था। इस समय वही राजमोहन इंजीनियरिंग का तृतीय वर्ष का छात्र था। गर्मी की छुट्टियों में पहाड़ी इलाके के स्कूल-काँलेज खुलते है; उन्हीं दिनों राजमोहन पूरे समय घर पर रह पाता था।

    उसी राजमोहन को दिव्या ने उसकी छोटी जुड़वाँ बहनों उमा और गौरी के साथ देखा था। उमा और गौरी से राजीव की शीघ्र ही मित्रता हो गई थी। अपने हॅंसमुख स्वभाव से उन्होंने दिव्या को ‘दीदी’ कहकर अपना लिया था। अधिकारी-वर्ग की स्त्रियाँ उसे ‘घमंडी’ कह अपने अहं की तुष्टि कर लिया करती थीं। उमा और गौरी को अपने भइया पर बड़ा अभिमान था- ।

देखना दिव्या दीदी, हमारे भइया खूब बड़े इंजीनियर बनेंगे, तब हम यह लांड्री का काम छोड़कर भइया के साथ रहेंगे गौरी उत्साह से कहती।

हाँ दीदी, तब हमें कोई ‘लांड्री वाली’ कहकर नहीं चिढाएगा। उमा साथ-साथ बोल पड़ती।

सच, उनको रूला पाने का नुस्खा सहज ही कस्बे के बच्चों ने कब और कैसे ईजाद कर लिया था, कोई नहीं जानता। जरा लड़ाई-झगड़ा हुआ नहीं कि बच्चे चिढ़ाने लगते थे। एक कहता- ऐ लांड्री वाली, हमारे कपड़े धोएगी? दूसरा जोड़ता-

नहीं धोएगी तो रोएगी। कोई और कहता –

रोटी कहाँ से खाएगी? क्या कपड़े सीकर खाएगी?

बस, ये पंक्तियाँ सुनते ही उमा और गौरी के मुख कुम्हला जाते, आँखों से आँसू बह निकलते। उमा ने ही दिव्या को बताया था- बचपन में भाई को चिढ़ाने पर उसका मुख तमतमा उठा था, गोरा दमकता-चेहरा अंगार हो उठा था। कई बच्चों की जमकर पिटाई कर डाली थी। उसके इस कृत्य पर अधिकारियों ने वह बावेला मचाया था कि लांड्री बन्द होने की नौबत आ गई थी। लांड्री-स्वामी मानिकराम ने उन अधिकारियों से क्षमा ही नहीं माँगी थी, घर आकर अभिमानी पुत्र को भी कपड़ों-सा पीट डाला था,

जिस थाली का खाता है उसी में छेद करने चला ,है कमबख्त? अरे हमारी रोजी-रोटी जिनसे चलती है उन पर हाथ उठाएगा, नालायक!

उस दिन के बाद राजमोहन के सामने किसी बच्चे का मुंह खोलने का साहस नहीं हुआ। अपने को एक अज्ञात कवच में कैद कर राजमोहन ने पूरा ध्यान पढ़ाई पर ही केन्द्रित कर दिया था। पर उसी दिन से उसके सीने में कोई आग निरन्तर धधकती रही, अन्याय के विरोध की चिंगार सुलगती रही। कस्बे में न जाने कितने अवसर आते, नृत्य-पार्टीज होतीं, पर मानिकराम के परिवार को सदैव छोड़ दिया जाता था। बाद में मानिकराम के घर से ढ़ेरों मिठाइयाँ भेजी जाती थीं उन्हें अधिकारी पत्नियाँ उदारता पूर्वक स्वीकार कर मानिकराम को कृतार्थ कर देती थीं।

उस बार होली पर दिव्या और राजीव की जिद पर सारे अधिकारी परिवार उनके घर आमन्त्रित थे। मानिकराम के परिवार को निमंत्रित करने की बात सुनते ही मम्मी ने दिव्या को खूब डाँटा था-

स्टेटस का जरा भी ध्यान नहीं है। कल को मैं न रही तो खानदान की इज्ज़त मिट्टी में मिल जाएगी। इतनी बड़ी हो गई, जरा भी अक्ल नहीं आई। न जाने किस-किस से दोस्ती कर रखी है! अन्तिम बात कहती मम्मी का क्षोभ स्पष्ट था। उस बार पहली दफ़े होली पर मानिकराम के घर से भी किसी को निमंत्रित नहीं किया गया था। मानिकराम का कैप्टन भतीजा और बेटा दोनों ही आए हुए थे। परिवार के सम्मिलित ठहाके मानो अधिकारी-वर्ग को चिढ़ा रहे थे।

गुप्ता आंटी ने मुंह बिचकाया था, अरे यही तो मुश्किल है, पिछड़े वर्ग का हवाला दे यही लोग हर जगह चुन लिये जाते हैं और इनके कारण हमारे बच्चे सफ़र करते हैं।। सेन आंटी भी हाँ-में-हाँ मिलाती बोली थीं,

और जरा कुछ मिलते ही इनके दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ जाते हैं। देख लो, आज यह मानिक अपनी औकात ही भूल गया।।

गुप्ता आंटी का आक्रोश बढ़ता जा रहा था, हाँ जी, हमें ही सुनाने को ठट्ठे लगाए जा रहे हैं! कल तक बाप-दादे घर-घर कपड़े बटोर धोते थे, वो दिन भूल गए। जरा क्या हो गया हमसे बराबरी कर रहे हैं!




पर आंटी, मानिक अंकल तो सबको हमेशा बुलाते हैं, आप ही लोग तो नहीं जाते?। दिव्या की बात मुंह से निकलते ही सब स्तब्ध हो उठे थे। मम्मी चिल्ला पड़ी थीं,

शर्म नहीं आती बड़ों के मुंह लगते? उन लोगों की बड़ी हिमायती बनी है- यही सीखा है काँलेज में? पापा की ओर उन्मुख मम्मी लगभग रो दी थीं,

देख लिया? मैंने पहले ही कहा था इन लोगों की कम्पनी में रहेगी तो यही सब सीखेगी। अब तो घर बदल लीजिए!

चन्द्रा अंकल हॅंस पड़े थे,

क्या मिसेज बाजपेई- आप तो बच्चों जैसी बातें करती हैं। अरे ठीक ही तो कह रही हे बिटिया। गलती हमारी भी तो है, इस युग में भी वही पुराने-दकियानूसी खयाल लिये बैठे हैं। चलिए न मानिकराम के घर चल होली मिल आएँ। हमेशा घर बैठे उनके यहाँ की मिठाई खाते हैं, आज उनके घर चलकर खाएँ।।

वितृष्णा सभी अधिकारी. पत्नियों के मुख पर उभर आई थी। चन्द्रा अंकल दिव्या को सदैव अच्छे लगते हैं, हमेशा न्यायपूर्ण बातें करते हैं, पर मम्मी और अन्य लोग उन्हें पसन्द नहीं करते। सुना है उनके पिता एक मामूली क्लर्क थे, अतः अभिजात्य वर्ग से उनका स्वभाव मेल नहीं खाता था। बच्चों के मध्य चन्द्रा अंकल बहुत प्रिय थे- उनकी फरमाइशें पूरी करने में उन्हें मजा आता था। पत्नी से इसके लिए उन्हें उलाहने भी सुनने पड़ते थे। ससुराल की विपन्नता का आक्रोश वह चन्द्रा अंकल पर ही उतारती थीं।

दिव्या के साथ स्कूल जाती उमा और गौरी अपने अतिथियों के विषय में दिव्या को विस्तार से बताती गई थीं। उनके ताऊजी दिल्ली में हैं- कैप्टन भइया वहीं पोस्टेड है। उनका बहुत बड़ा घर है। जाड़ों में सब दिल्ली जाएँगे………आदि-आदि।

उनके साथ-साथ चलते राजमोहन ने झिड़की दे मानो उफनते दूध पर पानी के छींटे डाल दिए थे, क्या बकवास करती हो? जानती नहीं यह जिस क्लास की हैं वहाँ तुम्हारी बातें कितनी महत्वहीन हैं?

उमा-गोरी सहमकर चुप हो गई थीं, पर दिव्या का मुख तमतमा आया था-

मैं किस क्लास को बिलौंग करती हूँ…………मिस्टर? आप क्या समझते हैं अपने को? मम्मी ठीक कहती हैं…….. आक्रोश से दिव्या का कण्ठ रूँध गया था।

उसके अपूर्ण वाक्य के आगे राजमोहन ने कहा था, हाँ-हाँ, आपकी मम्मी ठीक कहती हैं हम नीच हैं, हमारे घर के पास रहना आपकी विवशता है। भगवान से प्रार्थना कीजिए हमारे पास रहने के दुःख से मुक्ति मिल जाए।

आज ही कहूँगी पापा से – कहीं और चले जाएँगे हम। किस चीज का घमंड है आपको? कल आपकी वजह से मम्मी से डाँट खाई और आज खुद डाँट रहे हैं।। दिव्या का आक्रोश बह चला था।

किसने कहा था हमारे लिए लड़ने को? हमें किसी का दया-पात्र नहीं बनना है, समझीं? आगे से अपनी ये मेहरबानियाँ किसी और के लिए रखिए, मैडम! राजमोहन का वाक्य समाप्त होते न होते काँलेज आ गया था।

राजीव, उमा और गौरी दिव्या को ताकते रह गए थे। अपमानित दिव्या ने उस दिन कसम खा ली थी- आगे से कभी उस घमंडी से उसे बात नहीं करनी है। राजीव ने शायद उमा-गौरी को होली वाले दिन की बातें बताई होंगी। दोनों बहनें भाई से कितना लड़ी थीं, ।

एक वह दिव्या दीदी हैं- कितनी अच्छी हैं जो हमारे लिए दूसरों से लड़ती हैं, डाँट खाती हैं। उन्हीं दीदी का जो अपमान करे उस भाई से वे नहीं बोलेंगी।।




दूसरे दिन दिव्या बस की प्रतीक्षा में सबसे अलग हटकर मौन-गम्भीर खड़ी थी। राजमोहन ने एकाध बार उसकी ओर देखा भी था, शायद अभिवादन भी किया था। पर दिव्या ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई। निश्चय को वह बार-बार दोहराती रही थीं-

संध्या के समय घर आते राजमोहन ने दिव्या के हाथ में एक चिट जबरन थमा दी थी- सिर्फ दो पंक्तियाँ थीं-मेरे कठोर शब्दों को दुगुनी कठोरता के साथ वापस कर दीजिए। अनुगृहीत रहूँगा।

दिव्या मुस्करा उठी थी।

उस दिन के बाद से उन दोनों के मध्य अपनेपन का एक धागा बॅंध गया था। छुट्टियों में दोनों की बातें कभी खत्म ही न होने को आतीं। राजमोहन उस क्षेत्र के चप्पे-चप्पे से परिचित था। दिव्या से कहता,

देखना दिव्या, घाटी के इस छोर से उस छोर तक ‘रोप वे’ लगवाऊंगा। इस कस्बे को भारत का सबसे सुन्दर टूरिस्ट- केन्द्र बनाऊंगा।

मंत्रमुग्ध दिव्या राजमोहन की आँखों में तैरते सपनों में डूबती जाती। मम्मी को जब राजमोहन से उसकी मित्रता का पता चला था तो वह कितनी नाराज़ हुई थीं! पापा भी प्रसन्न नहीं दिखे थे।

इस लड़की का तो दिमाग खराब हो गया है। अपने बराबर वालों से दोस्ती न कर उस लांड्रीवाले को दोस्त बनाया है। क्या यहाँ अच्छे लड़के-लड़कियों की कमी है जो उसके साथ घूमती है?

पापा ने भी गम्भीर स्वर में कहा था, देखो बेटी, दोस्ती अपने बराबर वालों में ही ठीक है। आगे से उस लड़के के साथ घूमना-फिरना बन्द कर दो- गुड गर्ल। समझ गई?

दिव्या मम्मी से उलझ पड़ी थी, उसकी लांड्री है तो क्या हुआ? उसके यहाँ कपड़े तो नौकर धोते हैं। वह कितना इंटेलिजेंट है- जानती हो? हमेशा फ़र्स्ट आता है।

जानती हूँ कौन-से नौकर-चाकर हैं । उसका बाप खुद भी तो वही काम करता है। खबरदार जो उनसे मेलजोल बढ़ाया।

मेल बढ़ाने में क्या नुकसान है, मम्मी? वह ईमानदारी से अपना काम करते हैं। गुप्ता अंकल तो इतनी घूस लेते हैं, चोर हैं फिर भी तुम गुप्ता आंटी से दोस्ती रखती हो! काम कोई छोटा नहीं होता। गांधीजी कहते थे…………।

दिव्या वाक्य पूरा भी न कर पाई थी कि मम्मी का जोरदार तमाचा उसके कोमल गालों पर अपने चिन्ह बना गया था। मम्मी के इस क्रूर आदेश की अवहेलना की दिव्या ने ठान ली थी। वह भी मम्मी को दिखा देगी, सिवाय राजमोहन के उसे ओर किसी से बात भी नहीं करनी है।

दूसरे दिन तक दिव्या को मम्मी द्वारा दण्डित किए जाने की सूचना नमक-मिर्च लगा राजीव , उमा-गौरी तक पहुंचा चुका था। दोनों बहनें सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से दिव्या की सूजी आँखों को सहमी दृष्टि से ताकती रह गई थीं। काँलेज के रास्ते में राजमोहन खड़ा था। उसके नयनों में आक्रोश जल रहा था। दिव्या के पास आ उसने कहा था, ।

इसीलिए मैं तुम्हारे वर्ग, जाति, समाज से घृणा करता हूँ। ऐसा क्या कोई और समाज इस दुनिया में कहीं और है जहाँ मनुष्य से मनुष्य इतनी घृणा करे?। कुछ रूककर फिर कहा था, जी चाहता है ऐसे सब व्यक्तियों को समाप्त कर डालूं।  आई विश आई कुड डू सो। राजमोहन के अन्तर् की आग चिंगारियों के रूप में आँखों से निकल रही थी। उसके आक्रोश को देख दिव्या डर गई थी, कहीं राजमोहन मम्मी को कुछ कर न दे! वह हठात् चीख उठी थी-

नहीं! हाउ डेयर यू टु किल माई मम्मी? आई हेट यू। काँपती दिव्या के नयन छलछला उठे थे।

शाम को दिव्या का रास्ता रोक उसके कुम्हलाए मुख को स्नेह-भरी दृष्टि से ताक राजमोहन ने कहा था,

डोंट बी सिली, दिव्या! सुबह न जाने क्या-कुछ कह गया था- उसका कोई अर्थ मत लगा बैठना। असल में मेरी वजह से तुम्हारी मम्मी ने तुम पर हाथ उठाया- यह सुन अपना संयम खो बैठा था। कोई हमारे लिए अपने घरवालों से लड़ भी सकता है- सोचकर ही बहुत अच्छा लग रहा है। थैंक्यू, दिव्या! दोनों की आँखें एक पल को जुड़ अलग हो गईं। बादल छॅंट गए थे।

दिव्या की परीक्षाएँ सिर पर आ गई थीं। राजमोहन की तरह उसे भी इंजीनियर बनना है, यह उसने निश्चित कर लिया था। काँलेज जाते-जाते वह दिव्या को उत्साहित कर गया था,




तुम बुद्धिमती हो, सुविधा के सभी साधन उपलब्ध हैं। अगर सच्चे दिल से मेहनत करोगी तो इंजीनियरिंग परीक्षा में अच्छी पोजीशन ज़रूर पाओगी।

गर्मियों की छुट्टियों में जब राजमोहन घर आया तो पता लगा उसने पूरे काँलेज में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। दिव्या खिल उठी थी। सभी विषयों में डिस्टींक्शन अंक प्राप्त किए थे उसने। अधिकारी पत्नियों ने जहाँ छींटाकशी शुरू की, चन्द्रा अंकल जोरों से हॅंस पड़े थे,

बस यही तो हमारा दुर्भाग्य है, किसी की सफलता में हम अपनी असफलता के आँसू पोंछना चाहते हैं। भई वह लड़का तेज है, ज़हीन है- सबसे बड़ी बात मेहनती है। देख लीजिएगा हमारे इस कस्बे की शान बढ़ाएगा एक दिन! मैं तो सुबह ही उसके घर जा मिठाई खा आया हूँ।

क्या? चन्द्रा आंटी पति का अपराध जान स्तब्ध रह गई थीं। अन्य लोग विस्मित रह गए थे। उस दिन दिव्या को चन्द्रा अंकल अपने पापा से भी अधिक अच्छे लगे थे। काश, उसके पापा भी उतने ही उदार होते, इतना बड़ा दिल रखते!

प्रथम आने की दिव्या ने जब बधाई दी तो राजमोहन मुस्करा दिया, तुम्हारी मम्मी को धन्यवाद देना चाहता था दिव्या! उनकी बातें मेरे लिए प्रेरणा-वाक्य सिद्ध हुई हैं।

मम्मी की कही बातें तुम भूल नहीं सकते, राज? दिव्या का स्वर आहत था।

“नहीं दिव्या, यही बातें तो मेरे मन में आग जलाती हैं, कुछ कर गुजरने को उकसाती हैं। जिस दिन यह सब भूल गया, अपने-आपको भूल जाऊंगा….. और अपने-आपको भूल जाना कोई अच्छी बात नहीं है न दिव्या? मौन दिव्या उसका तेजस्वी मुख निहारती रह गई थीं। इंजीनियरिंग की अखिल भारतीय प्रतियोगिता में दिव्या ने उच्च अंक प्राप्त किए थे। मम्मी-पापा के हर्ष का ठिकाना न था, पूरे मित्र-समाज से बधाइयों का तांता लग गया था। पहली बार उसकी सफलता पर मानिकराम की पत्नी दिव्या के घर आई थीं, उसके सिर पर हाथ धर आशीष दिया था। गनीमत थी उस खुशी के माहौल में इस छोटी-सी घटना को मम्मी ने अधिक तूल नहीं दिया था।

अगले कुछ दिन मम्मी-पापा के साथ शाँपिंग करते बीत गए थे। बेटी के इंजीनियरिंग काँलेज में पढने जाने का गौरव दोनों को अतिशय उदार बना गया था। चलते समय उमा और गौरी ने फूलों का गुलदस्ता दे शुभ कामनाएँ दी थीं।

भाई से कुछ कहना है? दिव्या के प्रश्न पर वे हॅंस दी थीं।

स्टेशन पहुंचाने मम्मी-पापा कार से आए थे। करीब बीस मील की दूरी कार से पार करने पर स्टेशन आता था। रास्ते में हल्के स्वर में मम्मी ने कहा था,

वहाँ राजमोहन से बातचीत करने की ज़रूरत नहीं है। इन लोगों से थोड़ी दूरी भी बरतनी चाहिए वर्ना सिर चढ़ जाते हैं।। दिव्या को राजमोहन के ही काँलेज में प्रवेश मिलना मम्मी के भय का कारण बन गया था।

पपा ने भी प्रतिवाद-सा करते हुए कहा था,

अरे वहाँ पढ़ाई करेगी या फिजूल की बातें करेगी? अपने मम्मी-पापा की इज्ज़त का भी तो ख्याल रखना है। क्यों, ठीक कहा न, बेटी?”

मौन रह दिव्या ने छुट्टी पा ली थी।

नए शहर में पहुंच, नई लड़कियों के साथ होस्टल में रहना एक अनुभव था। होस्टल पहुंचा, सब सामान सहेज जब पापा का चपरासी लौट गया, दिव्या उदास हो उठी थी। उसी संध्या राजमोहन का मिलने आना दिव्या को अच्छा लगा था। कितना अपना लगा राजमोहन जब दोनों देर तक घर-कस्बे की बातें करते रहे थे!

काँलेज में प्रायः ही राजमोहन मिल जाता था। कभी संध्या के समय वह होस्टल भी आ जाता था। दिव्या को नोट्स किताबों की ज़रूरत होते ही राजमोहन न जाने कहाँ से जुटा देता था। दिव्या की समस्याएँ मिनटों में सुलझा अपनी प्रतिभा से उसे मुग्ध कर जाता था। उसके आने की हर दिन, हर पल बाट जोहती थी।

उमा और गौरी के जन्मदिन पर उपहार भेजने के लिए राजमोहन ने जब दिव्या के साथ बाजार चलने का प्रस्ताव रखा तो एक पल को वह झिझकी थी। राजमोहन के चेहरे पर स्वीकृति का विश्वास पढ वह फौरन तैयार हो गई थी। उपहार खरीद दोनों ने कोल्ड ड्रिंक्स ली थी। लौटते समय राजमोहन ने इतना ही कहा था,

आज का दिन बहुत अच्छा लगा, फिर कभी इसे दोहराएँगे।

दोहराना फिर दिव्या की ओर से हुआ था। राजीव की फरमाइश थी कि उसके लिए जैकेट ले आए। पसन्द के लिए राजमोहन को जाना पड़ा था। उसके बाद से दोनों की संध्याएँ, छुट्टी का दिन प्रायः साथ बीतता था। दिव्या अन्तर्मुखी, शान्त प्रकृति की लड़की थी, पर राजमोहन के साथ वह अपने मन की सब बातें सहजता से कह जाती थी।

दशहरे की छुट्टियों में दोनों जब साथ वापस गए थे तो स्टेशन पर दिव्या को लेने पापा पहुंचे हुए थे। पापा ने सामान उतरवा जब दिव्या से चलने को कहा था तो कुछ संकोच के साथ वह पूछ बैठी थी,

पापा, राजमोहन को भी साथ ले चले।

एक पल दिव्या को निहार पापा ने कहा था, ‘ओके, ऐज यू विश, उसे बुला लो!’

राजमोहन का उत्तर सर्वथा नकारात्मक था, थैंक्स! यहाँ कुछ काम है, रूककर पहुंचूँगा।

कन्धे उचका पापा ने दिव्या से विवशता ज़ाहिर कर दी थी। दिव्या को राजमोहन का व्यर्थ का अहं खल गया था। कार स्टार्ट कर पापा बड़बड़ाए थे, न जाने अपने को क्या समझता है? ऐसे लोगों को व्यर्थ लिफ्ट नहीं देनी चाहिए।

जी पापा! ओठों से दाँत काटती दिव्या इतना ही कह सकी थी। सचमुच कभी-कभी राजमोहन हद कर देता था।




घर पर मम्मी-पापा के लाड़ में वह सब-कुछ भूल गई थी। रोज ढेर सारे लोग उसका हालचाल पूछने पहुंच जाते थे। रोज किसी-न-किसी के घर से निमंत्रण आता रहा। राजमोहन मानो एकदम अपरिचित हो उठा था। राजमोहन को देख पाने के लिए वह व्यर्थ चक्कर लगाती थी, पर उसने अपने को न जाने किस गुफ़ा में बन्द कर रखा था, हमेशा उसकी पहुंच से परे रहा। काँलेज लौटते समय पता लगा कि राजमोहन छुट्टियाँ पूरी होने के दो दिन पूर्व ही जा चुका था। दिव्या मान से भर उठी थी- इस बार राजमोहन से उसे बात नहीं करनी है।

संध्या के समय होस्टल में जब राजमोहन मिलने आया, जी चाहा था उसे वापस लौटा दे, पर ऐसा कर पाना क्या सम्भव था?

नहीं बोलते आपसे- वहाँ तो हमें पहचानते नहीं, यहाँ बहुत अपने बनते हैं। दिव्या का मान छलक उठा था।

मन्द स्मित के साथ शान्त-सहज उत्तर दिया था राजमोहन ने, ठीक कहती हो दिव्या- तुम्हें तुम्हारे मम्मी-पापा के साथ सचमुच अजनबी पाता …………और यहाँ सिर्फ तुम्हें पाता हूं-बहुत अपनी लगती हो।

यह सब कुछ नहीं- बस तुम्हारे मन की कुण्ठा है। दरअसल तुम अपने मन में न जाने कितनी ग्रन्थियाँ पाले हो जो तुम्हें नाँर्मल नहीं रहने देती।शायद तुम ठीक कहती हो, पर ये ग्रन्थियाँ तुम्हारे वर्ग की ही देन हैं, दिव्या!

तुम यूं ही कहते हो…………उस दिन स्टेशन से घर हमारे साथ नहीं गए- जानते हो पापा ने कितना इंसल्टेड फ़ील किया?

एक छोटी-सी बात पर उन्होंने अपमानित महसूस किया, पर वही बातें मेरी नियति हैं- यह जानती हो दिव्या?

मानती हूँ प्रायः लोग तुम्हारे प्रति अनुदार हैं, पर सब-कुछ पाकर भी क्या तुम उन्हें क्षमा नहीं कर ,राजमोहन?

सब-कुछ पाकर न? व्यंग्य से राजमोहन के होंठ सिकुड़ गए थे।

क्या नहीं मिला है तुम्हें? इंजीनियर बनते ही किसी अच्छी कम्पनी में लग जाओगे। तब देखना सब तुम्हें सिर-आँखों लेंगे, जो चाहो मिलेगा।

तुम भी? राजमोहन की दृष्टि दिव्या पर टिकी थी।

दिव्या चौंक उठी थी, दो शब्दों में क्या कह बैठा था राजमोहन?

उसका मौन देख राजमोहन ठठाकर हॅंस दिया था,

नहीं दिव्या जी, नहीं। मैं जो चाहूं कभी नहीं पा सकता, और यह सत्य मेरे रक्त में बहता है। तुम्हारी चाहना करके आकाश के तारे तोड़ने के सपने मैं नहीं देखता। बस इतना कह वह उल्टे पाँव वापस चला गया था। स्तब्ध दिव्या उसकी पीठ ताकती रह गई थी। उसके चले जाने के बाद भी उसके शब्द दिव्या के मानस में प्रतिध्वनित होते रहे थे। एक अजीब बेचैनी में पूरी रात कटी थी दिव्या की। राजमोहन ने जो कुछ कहा, क्या वह उसके अन्तर् का सत्य था? रात पूरी तरह आँखों में बिता, प्रातः दिव्या जब काँलेज पहुंची तो राजमोहन गेट के पास खड़ा उसकी प्रतीक्षा कर रहा था।

कल मॅुंह से न जाने क्या उल्टा-सीधा निकल गया, माइंड मत करना दिव्या! मेरी उस बकवास के लिए क्षमा करना। कुछ रूककर सूखी हॅंसी के साथ कहा था, देखो न, अपने पागलपन की वजह से पूरी रात सो भी न सका।

जी चाहा था दिव्या का कि बता दे वह भी कहाँ सो पाई थी उस रात? पर उत्तर में बस कुछ पल मौन रह वह चल दी थी।

उस दिन के बाद कई दिनों तक राजमोहन दिखाई नहीं दिया था। न चाहते भी दिव्या प्रतीक्षा करती रही थी। राजमोहन के एक मित्र ने दिव्या को बताया था कि राजमोहन को टाइफाइड हो गया है और वह स्थानीय अस्पताल में भर्ती है। वार्डेन ने उसके घर सूचना भेजनी चाही तो राजमोहन ने साफ मना कर दिया था, बेकार वहाँ सब घबरा जाएँगे, दो-चार दिन में ठीक हो जाऊॅंगा। आप सब तो हैं ही, सर!

उसी मित्र के साथ दिव्या अस्पताल पहुंची थी। आँखें मूंदे राजमोहन शान्त लेटा था। पदचाप सुन, आँखें खोलते ही दिव्या को सामने पा उसका मुख खिल उठा था,

तुम?

क्यों? नहीं आना चाहिए था? दिव्या का स्वर स्पष्ट था।

तुम्हें सूचना नहीं दी थी न- कैसे पता लगा?




बहुत-सी बातें बिना बताए भी जान ली जाती, हैं मिस्टर राजमोहन! और अब अगर आपको एतराज न हो तो मैं बैठ सकती हूँ?

डाँक्टर से राजमोहन का हाल पूछकर उसका मित्र जा चुका था। मान-भरे स्वर में दिव्या ने शिकायत की थी, इतने बीमार रहे और मुझे खबर तक नहीं दी- ऐसी भी क्या नाराज़गी!

तुम बिन बुलाए अपने आर्प आईं, इस सुख का अनुभव भी तो करना था। बुलाने पर तो गैर भी आते हैं, दिव्या!

गनीमत है, हम ग़ैर तो नहीं। कहकर दिव्या हॅंस दी थी।

राजमोहन मुग्ध नयनों से निहारता रह गया था।

अस्पताल से वापस लौट राजमोहन ने कहा था,

तुम्हारी जिद ने ठीक कर दिया, वर्ना मेरी चलती तो आराम से लेटा रहता और तुम पलॅंग के पास बैठी रहतीं।हाँ, और दोनों एक-साथ एक्जाम्स में फेल हो जाते। यह भी याद है या नहीं जनाब, आपका यह फाइनल इयर है?

राजमोहन एकदम गम्भीर हो उठा था,

ठीक याद दिलाया दिव्या, अब तो दिन-रात मेहनत करनी है- कुछ बनकर दिखाना है न?

फिर राजमोहन सब-कुछ भूल गया था। दिन-रात तपस्या की थी उसने। पूरे काँलेज मे न केवल कितनी फर्मे, कम्पनियाँ पीछे पड़ी रहीं, बहुत प्रलोभन दिखाए गए नौकरी के लिए, पर उसने अपना छोटा-सा पहाड़ी इलाका ही चुना था जो उसके सपनों का संसार था। दिव्या ने आग्रह भी किया था, ।

अमेरिका चले जाते तो अच्छा था- भविष्य सॅंवर जाएगा।

फिर मेरे इस क्षेत्र का भविष्य कौन सॅंवारेगा, दिव्या? मैं तो यहीं रहकर इस जगह को एक नया रूप दॅूंगा। जानती हो दिव्या, हाइड्रोइलेक्ट्रिक पाँवर प्लांट शुरू करने का प्रस्ताव भेज चुका हूँ। पाँवर जेनरेट होते ही यहाँ ढेर सारे उद्योग शुरू हो जाएँगे। फिर देखना यह क्षेत्र कितनी प्रगति कर जाएगा। कुछ हॅंसकर जोड़ा था, इसीलिए तो तुम्हें भी इंजीनियर बनना है, दिव्या! हम दोनों मिलकर एक नया संसार बसाएँगे यहाँ। राजमोहन की आँखों में तैरते ढेर सारे सपनों को मुग्ध दिव्या निहारती रह जाती थी।

जिस निष्ठा के साथ राजमोहन उस पिछड़े इलाके के कायाकल्प में जुट गया था, सबने दाँतो-दले उंगली दबा ली थी। एक दिन स्वयं पापा उसकी प्रशंसा कर बैठे थे,

जो भी कहो इस लड़के में है कुछ बात जरूर!

‘रोप-वे’ का उद्घाटन करते मन्त्री महोदय ने पीठ थपथपाते उस युवा इंजीनियर को अपनी शुभकामनाएँ दी थीं। काँलेज में दिव्या को राजमोहन के पत्र मिलते रहते थे। पत्रों में उत्साह छलक पड़ता था,

कल नदी पर पुल की नींव पड़ गई है दिव्या! पाँवर जेनरेटर की स्वीकृति मिल गई है। बहुत बिजी हूँ दिव्या, पत्र देर से पहुंचे तो नाराज तो नहीं होगी न? घर पहुंचने पर दिव्या को विस्तार से उसकी योजनाएँ सुननी पड़तीं।

घर में माता-पिता राजमोहन के विवाह के लिए चिन्तित हो रहे थे। कई धनी-मानी परिवारों से विवाह के प्रस्ताव आ रहे थे, पर राजमोहन विवाह के नाम से ही रूष्ट हो उठता था, जब तक मेरे काम पूरे नहीं हो जाते मुझे विवाह नहीं करना है। इस विषय पर सोच भी नहीं सकता।।

माँ नाराज हो उठी थीं, तेरे काम तो पूरी ज़िन्दगी चलेंगे, क्या अच्छी लड़कियाँ तेरे लिए बैठी रहेंगी? अपनी जाति में पढ़ी-लिखी, सम्मानित परिवार की लड़कियाँ हैं ही कितनी?

दिव्या ने पूरी बातें सुनकर कहा था, सच ठीक ही तो कहती हैं माँ, किसी अच्छी लड़की से विवाह क्यों नहीं कर लेते?

राजमोहन गम्भीर हो उठा था, किसी लड़की से विवाह करने का अर्थ है अपने पाँवों में बेड़ियाँ डाल लूं।अभी मुझे बहुत काम करने हैं, दिव्या!

पर कभी तो बेड़ियाँ डालनी ही होंगी?

बशर्ते बेड़ी बन कोई स्वयं आकर जकड़ ले।

यानी आपको जकड़ने, आपकी तपस्या भंग करने कोई देवलोक की अप्सरा आनी चाहिए?

वह तो कब की आ चुकी! अब तो उसके अचानक चली जाने का भय हमेशा हावी रहता है। न जाने कब कौन आकर उसे ले उड़ेगा और मैं असहाय ताकता रह जाऊंगा।

लज्जा से दिव्या के कपोल आरक्त हो उठे थे, तो उसे पता लग चुका है दिव्या को देखने कोई आने वाला है।

सच दिव्या, हमेशा चाहा था इन मोहक सपनों के जाल में न बॅंधूँ, पर तुमने मुझे बाँध ही लिया। मौन दिव्या पर दृष्टि डाल वह कहता गया था, जानता हूँ यह असम्भव है, तुम्हारे मम्मी-पापा को यह सम्बन्ध किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं होगा, पर तुम्हारे सिवा किसी अन्य की कल्पना भी मुझे असहृय है।

क्या उत्तर देती दिव्या! स्पष्ट स्वीकारोक्ति के बाद कुछ कहने को शेष ही क्या रह गया था? क्या वह स्वयं इस मोहपाश से मुक्त रह सकी थी? राजमोहन और उसके आदर्शों को वह बहुत पहले ही वर चुकी थी। मम्मी-पापा को वह जानती है, अपने अभिजात्य का गर्व उन्हें इस निर्णय पर किसी भी स्थिति में समझौता नहीं करने देगा। फिर भी दिव्या ने साहस किया था। पापा से मिन्नतें की थीं, मम्मी के मातृत्व की दुहाई देखकर भीख माँगी थी, पर उन दोनों पर तो मानो गाज ही गिर पड़ी थी-

इस कुल-कलंकिनी को इसी दिन के लिए जन्मा था? पैदा होते ही मर जाती तो अच्छा था!

मम्मी ने अपना आक्रोश न केवल उस पर उतारा था वरन् मानिकराम और उनकी पत्नी को भी आड़े हाथों लिया था। उनके बेटे को जी भर कोसा था जिसने उनकी भोली-भाली बेटी को फुसलाया था। पापा ने अपने पद का हवाला दे परिवार को जड़-मूल से उखाड़ डालने की धमकी दे डाली थी। राजमोहन की माँ ने हाथ जोड़ मम्मी से क्षमा माँगी थी। मानिकराम ने पुत्र को दण्डित करने का वचन दे पापा को शान्त किया था। वह तो अच्छा था उनका अभिमानी पुत्र शहर गया हुआ था, वर्ना न जाने क्या हो जाता! पपा ने दिव्या से स्पष्ट कहा था अगर वह राजमोहन का जीवन चाहती है तो उससे कभी न मिले, अन्यथा राजमोहन की हड्डियों तक का पता नहीं चलेगा। इस सत्य की कल्पना मात्र से दिव्या सिहर गई थी। उसके अर्थ से वह पूर्णतः परिचित थी।

शहर से लौटा राजमोहन उसके घर आने का दुस्साहस कर बैठा था। अपमानजनक भाषा में पापा ने उसका जी-भर तिरस्कार किया था,




अपनी औकात भूल गए? मेरी ही बेटी पर डोरे डालने थे? खबरदार जो उसकी ओर आँख भी उठाई! आँखें निकाल लूंगा, समझे?

राजमोहन के नयन जल उठे थे, फिर भी स्वर यथासंभव शान्त रख कहा था, अपनी बेटी के शत्रु न बनिए, वह किसी और के साथ सुखी नहीं रह सकेंगी………………।

पापा दहाड़ उठे थे, खबरदार जो एक शब्द भी आगे जुबान से निकाला! ये जुबान काट दूंगा। याद रखो मिनटों में मेरे इशारे पर तुम्हारा घर मिट्टी में मिल जाएगा।

घर तो आप अपनी बेटी का मिटाने पर तुले हैं।। राजमोहन का वाक्य पूरा होने के पहले पापा का हाथ उठ चुका था। मम्मी ने दौड़कर पापा को पकड़ा था और राजमोहन ने दिव्या से मिलने की बहुत चेष्टा की, पर दिव्या ने अपने को स्वयं कैद कर लिया था। एक सप्ताह के भीतर ही पापा ने अपना ट्रांसफर एक दूर के शहर में करा लिया था।

कस्बा छोड़ते हुए दिव्या रो पड़ी थी। रास्ते में राजीव ने एक मुड़ा कागज चुपके से उसे थमा दिया था। बिना सम्बोधन के चन्द पंक्तियाँ थीं-

एक दिन तुमने कहा था जो माँगूँगा मिलेगा- क्या पा सका मैं? सच की कठोर धरती पर खड़ा था मैं, तुमने आशा के दीप जलाए थे, दिव्या! तुमको जितना पा सका जीवन जीने के लिए काफ़ी है। अब न किसी की कामना है, न करूँगा।

हमेशा के लिए तुम्हारा

राजमोहन।

    बस फिर पापा ने देर नहीं की थी। आनन-फानन समाचारपत्र के वैवाहिक विज्ञापन के आधार पर अमेरिका में बसे व्यवसायी के डाँक्टर पुत्र से उसका विवाह कर दिया गया था। दिव्या ने लाख सिर पटका, भूख-हड़ताल की, पर उसकी एक न सुनी गई थी। उसके सपनों का संसार निर्ममतापूर्वक तोड़ दिया गया था।

अमेरिका पहुंच जिस सत्य का सामना करना पड़ा, वह उसे जड़ बना देने को काफी था। पति ने पहुंचते ही स्थिति स्पष्ट कर दी थी- उसके अथाह सम्पत्ति के स्वामी पिता-माता को एक भारतीय उत्तराधिकारी की जरूरत थी। दिव्या को बस एक उत्तराधिकारी देने का ही दायित्व पूर्ण करना था, उसके बाद अपनी जीवनचर्या को वह पति की ओर से स्वतन्त्र थी। पत्नी-रूप में अपनी सहयोगिनी अमेरिकन नर्स को वह पहले ही प्रतिष्ठित कर चुके थे। दिव्या तो माता-पिता की जिद के कारण लाई गई थी। दिव्या का मुख घुणा से विकृत हो चुका था-काश ! उस उच्च कुल में जन्मे इस कुलभूषण की महिमा जान पाते। राजमोहन का शान्त, दृढ तेजस्वी मुख मानो विरोधी स्मृति में चमक उठा था।

पति के प्रस्ताव को दिव्या ने दृढ़ता के साथ अस्वीकार कर दिया था। सास-ससुर मनाकर हार गए, पर उनके धोखे को वह क्षमा न कर सकी थी। सास ने कहा था,

अरे इस उम्र में ऐसी गलती हो ही जाती है। तुम आ गई हो, उसके साथ रहोगी तो इसे अकल आ जाएगी।

दिव्या का आत्मसम्मान बुरी तरह आहत हो गया था। वह किसी का ‘सपना’ थी और आज उसे किसी उद्धेश्य की पूर्ति का साधन बनना पड़े- यह वह कैसे स्वीकार कर पाती? भारत जाकर मम्मी और पापा की दया पर निर्भर रहना क्या और भी कष्टदायी नहीं थो? सौभाग्य से वृद्ध श्वसुर उसके प्रति अपराधी महसूस करते थे। पुत्रवधू का एडमीशन वहाँ काँलेज में दिला उन्होंने मानो अपने अन्याय का प्रतिकार किया था। पार्ट- टाइम जाँब ले, दिव्या ने न केवल श्वसुर की सहायता का आग्रह तोड़ा, वरन् पति के साथ वैवाहिक बन्धन भी स्वेच्छा से तोड़, अपने रहने की अन्यत्र व्यवस्था कर ली थी।

राजीव-माधवी के विवाह पर जब वह पिछली बार आई थी तो माँ उसे देखकर रो पड़ी थीं। कितना बड़ा धोखा दिया पापियों ने! लड़की सदमे में गूंगी-सी हो गई है। अपनी माँ को भी नहीं बताएगी अपना दुःख बेटी? वहाँ अकेली क्यों पड़ी है? यहाँ हम सब हैं। वापस नहीं जाने दूंगी तुझे मैं।

अनचाहे ही एक व्यंग्यपूर्ण मुस्कान तैर गई थी-काश! मम्मी ने कभी उसके मन की बात जानी होती। तुरन्त उसने प्रतिवाद किया था, छिः, भला उन्होंने क्या मेरा बुरा किया था? वह तो उनके पुराने संस्कार थे। दिव्या ने अपनी कुण्ठा को समूल उखाड़ फेंकना चाहा था। मम्मी के गले से लिपट अपना सारा दुःख बहा देने की अदम्य चाह का गला घोंट, वह पुनः वापस उसी अपरिचित देश में अपनी पढ़ाई पूरी करने आ गई थी। अपनी नियति अब उसे स्वयं झेलनी है- किसी की दया-पात्री बन जीना उसे सह्य नहीं। पापा बड़बड़ाते रह गए थे। खुद तलाक दे केस खराब कर दिया, वर्ना एक-एक को देख लेता मैं। पापा ने बहुत रोका था, पर वह निर्णय पर अडिग रही थी। नहीं, अब उसे कोई मोह नहीं रोक सकता। वह दण्डित की गई तो अब अपना जीवन अपनी तरह से जीने का अधिकार है उसे।

उन्हीं दिनों वहाँ राजमोहन द्वारा किए गए कार्यों का वर्णन समाचार-पत्र में छपा देखा था। उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा के साथ यह भी लिखा गया कि युवा इंजीनियर ने आजीवन अविवाहित रह अपने क्षेत्र के काया-कल्प का संकल्प लिया है। उस समाचार को पढ़ती दिव्या के नयनों में एक अधूरा सपना कौंध उठा था- वही वाक्य फिर कानों में गूँज उठा था, ‘अब न किसी की कामना है, न करूँगा।’ बीते पलों की स्मृति कितनी मोहक होती है! उनके सहारे एक तो क्या, कई जीवन वह काट सकती है।

तब से आज तक उम्र का यह सफ़र दिव्या अकेले तय करती आई है। इसी बीच वह इंजीनियर बन नौकरी पा चुकी, न जाने कितनों ने विवाह के प्रस्ताव रखे, पर हर उदास एकाकी पल में साधनारत राजमोहन का चित्र, उसकी याद दिव्या को दृढ़ रहने का बल प्रदान कर जाती है। वही सपना तो उसका संबल है, उसका अपना रेशमी आँचल है जिसके नीचे वह शान्त निर्विकार सो पाती है। उसके दुर्भाग्य की कहानी कहीं उस साधक को आहत न कर दे- क्या मात्र इसी कारण वह अपनों से सहस्त्रों मील दूर पड़ी है या इसके पीछे स्वप्न-भंग की आशंका है? वह स्वयं नहीं जानती। आज भी उसका आराधक तपस्यारत है या…

राजीव के कन्धे से अपना सांत्वनापूर्ण हाथ हटा दिव्या ने नवजात शिशु को गोदी में उठा लिया।

    नवजात शिशु की ओर स्तब्ध ताकती दिव्या से राजीव ने कहा था, क्या मिला माधवी को दीदी? दो दिन बेटे का दुलार भी न कर सकी………. कितने अरमान थे उसके ………… आगे के शब्द क्रदन में बदल गए थे। भाई के अश्रुपूरित नयनों को निहार दिव्या ने कहना चाहा था- इस कच्ची उम्र में यह दुःख पाना ही क्या इस परिवार की नियति है, भगवन्? पर इस समय क्या वह सब कहना ठीक है? भाई के दुःख में वह अपना दुःख क्यों शामिल कर रही है? अब तो उसके सपनों की राख भी ठण्डी पड़ चुकी है, फिर क्यों इस समय वही बात बार-बार याद आ रही है उसे?

डॉ पुष्पा सक्सेना

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!