सपना वीर्य बिंदु का” – भावना ठाकर ‘भावु’

रिश्तेदारों की गपशप मेरे कानों में गर्म शीशा घोल गई! अरे ये क्या, बेटी हुई? काश मालती ने किसी खानगी डाॅक्टर को रिश्वत देकर लिंग परिक्षण करवा लिया होता, समय रहते निकाल कर पाती। आजकल बेटियों का बोझ कौन सह पाता है। दूसरे ने कहा, “सही बात है किसी और परिवार के लिए बच्चियों को जन्म देकर पालना-पोषना, इतना खर्च करके पढ़ा लिखा कर बड़ी करना और शादी में लाखों लूटाकर किसी ओर के घर भेज माँ-बाप की कमर तोड़ देता है। लड़कियाँ पैदा ही नहीं होनी चाहिए।  आहिस्ता-आहिस्ता मैं बड़ी हुई, हर कोई भाई का दीवाना था! मेरी खैर-खबर कोई नहीं पूछता। भाई की थाली हंमेशा भरी हुई रहती और अपनी थाली में दो रोटी और चम्मच भर सब्ज़ी देख सोच में पड़ जाती। मैं माँ से कहती, “माँ मुझे भी अचार दो न, उस पर दादी कहती लड़कियों को लाड़ शोभा नहीं देते! कल को ससुराल ऐसा-वैसा मिला तो फिर लाले पड़ेंगे इन चीज़ों के, कम चीज़ों में चलाना सीखो समझी। भाई के हर शौक़ पूरे होते, मेरी हर मांग नज़र अंदाज़ होती। क्यूँ मैं इतनी अनमनी? मेरी ये समझ में नहीं आता कि दादी खुद औरत ज़ात होकर क्यूँ औरतों की तरफ़दारी करने के बजाय दमनकारी नीतियों को बढ़ावा दे रही है? यूँ स्त्री ही स्त्री की दुश्मन बनी रहेगी तो शत प्रतिशत  महिलाओं की आज़ादी की उम्मीद करना बेकार है। ज़माने की नज़रों में बेटी पेट पड़ा पत्थर हो सकता है पर माँ बाप की नज़रों की भी किरकिरी बनी रही। 

बारह साल की होते ही सुबह दादी की तेज़ आवाज़ से सहम जाती! “अरी ओ महारानी आठ बज गए, लड़की की ज़ात हो उठो और कुछ घर काम भी सीखो पराये घर जाना है! तुम्हारी माँ साथ नहीं आएगी जो इतनी देर तक सो रही हो” मैंने देखा, पास ही भाई घोड़े बेचकर सो रहा था। मैंने कहा, “दादी भाई को भी जगाईये क्या उसे कोई काम नहीं सीखना?” दादी झल्लाते हुए बोली, “अरी चुप कर वो बेटा है! इस घर का वारिस, तू इससे बराबरी करेगी?” और दादी भाई के सर पर प्यार से हाथ फेरते कंबल ठीक से ओढ़ाकर हौले से निकल गई। मैं असमंजस में थी! भाई तो मुझसे बड़ा है कोई उसे घर काम क्यूँ नहीं सीखाता? कोई उसे क्यूँ जल्दी नहीं उठाता? बेटी क्यूँ किसीको एक आँख नहीं भाती? मेरे असंख्य सवालों के जवाब कहाँ से मिलेंगे किसे पूछूँ? माँ खुद दमनचक्र का मोहरा बनें जिए जा रही थी। मेरा सुबकना किसीको सुनाई नहीं दे रहा था। मैं सोलह साल की हुई! मुझे ज़िंदगी लुभाती थी, मुझे आसमान में उड़ना था, मुझे कुछ बनना था, मुझे लड़कों के प्रति आकर्षण होता था, मैं दोस्त बनाना चाहती थी। पर, मैंने देखा एक दिन पूरा परिवार एक तरफ़ हो गया और मुझे कोने में खड़ा कर दिया गया। ढ़ेरों हिदायतें, सूचनाएँ, रवायतें समझाते परंपरागत बंदीशों की बेड़ियों से बाँध दिया गया। 




बात-बात पर तू लड़की है वो वाक्य मुझे कमज़ोर और कमज़ोर बना रहा था! मैं उपर उठने की जगह घँसती जा रही थी एक ऐसे अंधियारे कुएँ में जहाँ असंख्य लड़कियाँ अपने हक के लिए गुहार लगा रही थी, लड़ रही थी, रो रही थी। मैं हिम्मत नहीं हारी! विद्रोह की मशाल जलाते अपनों के ख़िलाफ़ जा खड़ी हुई, पर कोई मेरा संबल नहीं था। 

अठारहवां साल लगते ही बिना मेरी मर्ज़ी जानें पच्चीस साल के लड़के संग ब्याह दी गई! ससुराल नाम के किले में एक खूँटे से बाँध दी गई। कहा तो गया था अब से वो घर तेरा है! मैं उम्मीद लिए जिए जा रही थी, यहाँ तो प्यार मिलेगा, इज़्जत मिलेगी, सम्मान मिलेगा ये तो मेरा घर है! यहाँ राज करूँगी। पर सारे सपने धराशायी होने में वक्त ही नहीं लगा। पति को पत्नी नहीं अपनी ऊँगली पर नाचने वाली कठपुतली चाहिए थी, ससुराल वालों को बहू नहीं नौकरानी का पर्याय चाहिए था। कहीं मेरे नाम का कुछ नहीं था! मैं बौखलाई सी इधर-उधर अपने वजूद को एक उम्मीद लगाए ढूँढ रही थी, कि कहीं तो मेरी पहचान मिले, कहीं कोई मुझे समझने वाला मिले पर हर जगह पर मेरे प्रति अपमान के जज़िरे ही मिले। न मायके की लाड़ली थी, न ससुराल में महारानी। हर मर्द की ज़ुबाँ पर गाली बनकर ठहरी थी! कहीं बेची जाती थी, तो कहीं खरीदी जाती थी। शराबी पतियों के हाथों पिटी जा रही थी। रास्ते पर, लिफ़्ट में, पार्क में, बस में या ट्रेन में हर जगह पर छेड़ दी जाती थी। कहीं किसी कोठे की शान बनी बैठी थी तो कहीं किसी दरिंदे के हाथों रोंदी जाती थी। 




नारी नाम का पतंगा थी! पल भर में एक उम्र कट भी गई। तन से भोगी गई मन से वर्जिन थी! कहाँ कोई बिंध पाया मेरे एहसासों को? बिना प्यार वाले रिश्ते की बलि चढ़ते चुटकी सिंदूर के बदले दो बच्चों का उपहार दे बैठी थी। बच्चों की भी शादी कर दी पर बहू को सास कहाँ भाती थी! आज बेटे को भरमा कर वृद्धाश्रम की दहलीज़ पर पटक गई थी। वृद्धाश्रम का दरवाज़ा खुलते ही मेरी नींद खुल गई! मेरी रूह को सुकून मिला। भगवान का लाख-लाख शुक्र है मैं सपना देख रहा था। आप सोचते होंगे मैं कौन हूँ? आप नहीं जानते मुझे पर, मैं अपने पिता के तन से गिरा अपनी माँ की बच्चे दानी के द्वार पर पड़ा वीर्य बिंदु हूँ। मैं सोच रहा था कि फ़लित होते ही मैं कौनसा रुप लूँगा, लड़का या लड़की? मुझे लड़की बनना था! मैं सोच रहा था दुनिया इक्कीसवीं सदी की दहलीज़ पर खड़ी है अब तो लड़कियों के जन्म पर बधाईयाँ बँट रही होंगी। मेरे जन्म पर भी जश्न मनाया जाएगा, मुझे भी बेटे जितना ही सम्मान मिलेगा! इतने में मुझे नींद आ गई और सपना चलने लगा। उपर कही गई बातें मेरे सपने का वर्णन था। अगर स्त्री के रुप में जन्म लेना इतना कठिन है तो मुझे आगे नहीं बढ़ना! जन्म लेकर इतनी वेदना सहने से बेहतर है अजन्मा ही रहूँ और जीने से पहले ही मर जाऊँ। शायद और थोड़ी सदियाँ इंतज़ार करना पड़ेगा बेटियों को अभी पूर्णतः आज़ादी की कोई “उम्मीद” नहीं। मैं स्पर्म की प्रतियोगिता से अपना नाम वापस ले रहा हूँ।

भावना ठाकर ‘भावु’ बेंगलोर 

स्वरचित

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