गांव की कच्ची गली में जैसे ही जानकी ने अपने घर की कुंडी खोली, सामने से रमिया दौड़ी चली आई। आंखों में आश्चर्य, होंठों पर हल्की मुस्कान लिए उसने पूंछा,
“अरे जिज्जी, तुम आ गईं? तुम तो कह रही थीं कि दो-तीन महीने गर्मी भर रुकने वाली हो, फिर इतनी जल्दी कैसे लौट आईंं?”
जानकी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, “नहीं रमिया, वहां मन ही नहीं लगा। तुम सब की बहुत याद आ रही थी, इसलिए लौट आई।”
सच कहूं, जिज्जी हमें भी तुम्हारी बहुत याद आती थी।
“बहुत अच्छा किया जिज्जी जो वापस आ गईं। चलो, कुल्ला मंजन कर लो, मैं चाय बना कर लाती हूं। थक गयी होगी।”
जानकी के चेहरे पर मुस्कान जरूर थी, लेकिन आंखों में एक थकान थी जो किसी सफर से नहीं, मन के बोझ से लग रही थी जो उसके मन का हाल बयां कर रहे थे।
रमिया की वही पुरानी अपनेपन से भीगी आवाज जैसे जानकी के मन की बंद गांठों को धीरे से खोल रही थी। जानकी ने सिर हिलाया, लेकिन कुछ बोली नहीं। वह जानती थी कि रमिया सिर्फ पड़ोसन नहीं, उसके दिल और दिमाग तक की आहट रखती है उससे कुछ छिपाना चाहे तो भी नहीं छिपा पाती। उसकी संवेदना पा खुद ही पिघल जाती है।
थोड़ी देर में रमिया गर्म चाय नमकीन पूड़ी के साथ आई। साथ में घर की सफाई में भी हाथ बंटा गई — जैसे कह रही हो, “तुम्हारा बोझ अब मेरा है जिज्जी ।”
जानकी के पति मोहन सब्जी लेने गए थे, पर दो घंटे बीत चुके थे। शायद कहीं बैठ कर बातें कर रहे होंगे। तब तक रमिया दाल और गरम-गरम फुलके ले आई, साथ में बैंगन का भर्ता —
“जिज्जी, मैं धरा के बाबू को खाना खिला के आती हूं, तब तक तुम खाकर आराम कर लो।”
मोहन लौटे तो गांव की खबरें सुनाने लगे, लेकिन जानकी तो जैसे कहीं और थी। उनकी बातें उसके कानों से टकरा कर वापस लौट रही थीं। उसका तन गांव में था, लेकिन मन अब भी उस शहर की सजी किन्तु संकीर्ण दीवारों से चिपका था — जहां वह एक माह पहले गई थी।
वे घर,जो उसका बेटा और बहू का था, और जहां उसे सुविधायें मिलीं, पर अपनापन नहीं। बहू की तनातनी, बात-बात में आप तो घर में सब काम खुद से करतीं हैं यहाँ तो बस बैठे बिठाये——- दिल में तीर सी लगतीं।
जानकी को काम करना कभी खला ही नहीं था बस ये सब सुन खाना उसके गले के नीचे उतरता ही नहीं था मानो गले में कांटे निकल आये हों।
बेटे का व्यस्त जीवन, और जानकी का अकेलापन — सब जैसे उसकी आत्मा पर पहरा बिठाए थे।घर में काम के बाद भी कितना समय निकलता अब भी कुछ सिलाई का काम ले लेती। पूरा दिन सुपरविजन में जाता कभी बर्तन वाली ने नाली नहीं साफ की तो कभी कुक गैस गन्दी छोड़ गया। बेचारी समझ ही न पाती पूरा का पूरा दिन कब निकल जाता फिर भी बहू की शिकायत आप घर को अपना समझती ही नहीं। बेचारी कट कर रह जाती। बेटे के कान थे देखता उतना ही जो चासनी में लपेट दिखाया जाता। मोहन तो शुरू से मानो वे उसे ब्याह कर नहीं नौकरानी बन कर आई हो उसकी पसन्द नापसंद से कोई सारोकार नहीं उसने समय के साथ समझौता कर लिया था। पर बेटों की उपेक्षा तोड़ जाती।
“बड़ा बेटा चकबंदी अधिकारी, बहू आईटी आफिस में काम करती है। छोटा स्वास्थ्य विभाग में सचिव है, और बेटी श अब मास्टरनी है अपने ससुराल में,” जानकी ने खुद से कहा, “मैंने सबके लिए कितना किया… पर शायद अपने लिए कुछ भी नहीं बस यहीं चूक हो गयी।”
गर्मी की दोपहरी के सन्नाटे में जानकी की आंखों से नींद कोसों दूर थी। उसका मन बीते वर्षों की गलियों में भटकने लगा। सोचती रही — मोहन तो गांव में रहते-रहते मस्तमौला हो गए थे। दोस्तों के बीच गप्पों में समय बिताते, जानकी की तपस्या को कभी समझा नहीं। उल्टा उससे कहते “पगली” क्यों बच्चों में गली रहती है , पर जानकी ने कभी शिकायत नहीं की। खुद की इच्छाएं, अरमान सब त्याग दिए — केवल परिवार के लिए।
उसका पति मोहन एक सरकारी दफ्तर में सफाई कर्मचारी था। बड़ी ही मुश्किल से, सिफारिशों और मिन्नतों से नौकरी मिली थी । एक-एक पैसा जोड़कर बच्चों की पढ़ाई, शादी-ब्याह, सब कुछ संभाला।सीमित आमदनी, तीन बच्चे, और
साधारण-सा घर — लेकिन स्नेह, अपनापन और सेवा का भाव जैसे उसके स्वभाव में रचा-बसा था।सीमित कमाई में कैसे बच्चों को पढ़ाया भुक्तभोगी ही जान सकता है। खुद भी एक स्कूल में रसोइया का काम करने लगी थी।
सुबह 5 बजे उठती रात 11 बजे सोती। उसके हौसले और लगन को देख स्कूल की प्रिंसिपल ने अपनी पुरानी सिलाई मशीन उसको दे दी थी जानकी को थोड़ा बहुत सिलना आता था और बाकी स्कूल की ही सिलाई टीचर से सीख दो चार कपड़ों की सिलाई में पारंगत हो गई थी और रात में एक दो ब्लाउज या पेटिकोट बना लेती।
वह कितनी आशा और उल्लास से बेटे के पास शहर गई थी — सोचा था बहू-बेटा सुकून देंगे, पोते-पोतियों की किलकारी सुनाई देगी, लेकिन वहां तो महज़ एक दिखावटी आराम और आत्मा को छलनी करती दूरी । बेटे के पास समय नहीं, बहू के पास सहनशीलता नहीं। घर सुंदर था, सुख-सुविधाओं से भरा था, पर वहां अपनापन न था।
बात बात में ये एहसास कि वे आराम के लिए यहाँ पड़े हैं।— ।
कैसा घर… जहां उसकी आत्मा रोती थी,” ऐसे घर तो उसने टेलीविजन में देखी गई फिल्मों में ही देखें थे, जानकी मन ही मन बुदबुदायी।
अचानक रमिया की आवाज आई, “जिज्जी, सोई नहीं अब तक?”
“अब जाग गई हूं रमिया..व्यंग्य से बोली.”
“अरे, वहां तो बहुत आराम रहा होगा?”
“हां, रहा तो बहुत आराम… अब तुझसे क्या झूंठ बोलूं ? पर मन नहीं रमा रमिया। बहू के ताने, बेटे की चुप्पी , और खुद की परछाई सी जिंदगी। वहां न मेरी बात की कोई कीमत थी, न मेरी चुप्पी की। मुझे कभी लग ही नहीं सका कि वे घर मेरा भी है वे तो इतने दिन बच्चों के मोह में कट गए ।
रमिया पास बैठ गई, उसका हाथ थामा —
“जिज्जी, घर वे होता है जहां कोई तुम्हारे आने का इंतजार करे… और वे हम हैं हाथों में हाथ ले हंसते हुए बोली । मोहन भैया की पेंशन में दो जून की रोटी मिल जाती है कि न और वह भी इज्जत के साथ। उससे बढ़कर क्या चाहिए?”
जानकी की आंखों में , एक सुकून की नमी थी।
“हां रमिया,” वह मुस्कराई, “सम्मान की सूखी रोटी, उस चुपड़ी रोटी से लाख गुना बेहतर है जिसमें आत्मा मर जाये।”
रमिया हंसी, “जिज्जी, एक बात कहूं…
कान्हा जी ने****
दुर्योधन घर मेवा त्यागी, शाक विदुर घर खायो ।”
वह निर्णय ले चुकी थी।
अब सुबह का सूरज उसका अपना था,
रमिया के जाते मन ही मन बुदबुदा रही थी जो उसकी दादी कहती थी।
रहिमन रहिला की भली जो परसे चित लाय।
परसत ही मन मैला करें मेदा ही जल जाए।।
जानकी मुस्करा दी थी — आंखों में राहत, मन में अपनापन। शायद वह जान गई थी कि“सम्मान की सूखी रोटी, चिकनी-चुपड़ी उपेक्षा से कहीं बेहतर होती है।”
स्वरचित और मौलिक
डा० विजय लक्ष्मी
‘अनाम अपराजिता’