होली – मधु झा

आइये हम सभी एक मन और नेक मन से होली खेलें,, 

होली अर्थात हो लें,,हम सब एक दूसरे के हो लें,,।

जब भी होली आती सुहानी को ये शब्द और सुभाष की याद दिला जाती है,,।

वैसे तो सुभाष को जीवन में एक पल को भी नहीं भूल सकती मगर होली के समय उसकी याद और बेचैन कर जाती है,,।

अबकी होली में उससे दूर हुए पांच साल से भी अधिक गुजर गये,मगर उसके साथ का हर एक पल उसे आज भी याद था,।

सुहानी और उसका परिवार अभी नया -नया शिफ़्ट हुआ था इस सोसायटी में,,।उसके पापा इस शहर में ट्रांसफर होकर आये थे।उसने अभी-अभी यहाँ के कालेज में दाखिला लिया था। जान-पहचान भी बहुत नहीं थी,,।तभी सोसायटी में होली-मिलन समारोह का आयोजन हुआ,,सुहानी का परिवार भी इसमें सम्मिलित हुआ कि इसी बहाने यहाँ के लोगों से जान-पहचान भी हो जायेगी,,।

बहुत अच्छा समा था,,सभी एक-दूसरे से प्रेम-पूर्वक मिल रहे थे होली की बधाई दे रहे थे,,।कुछ लोग होली के गीत भी गा रहे थे,,।तभी एक सुंदर सा नौजवान माइक हाथ में थामकर बोलने लगा– उसकी आवाज में इतनी कशिश, इतना खिंचाव कि बरबस ही सुहानी चुप होकर उसे सुनने लगी,,एक जादू सा था जो सुहानी को उसकी ओर खींचे जा रहा था ,उससे बाँधे जा रहा था,,वो कहे जा रहा था,,




होली अर्थात हो,, लें,,एक -दूसरे के हो लें,,

हम सभी एक मन से और नेक मन से होली खेलें, 

होली का त्यौहार क्रूरता पर प्रेम, अहं पर भक्ति और अन्याय पर न्याय की जीत का संदेश देता है,,।

होली के रंगों का यही संदेश है कि हम भेदभाव, ऊँच-नीच, जात-पात की दीवारों को गिराकर सभी प्रेम के भाव के रंग में रंग कर एक हो जायें,,।

ये संसार कितना रंग भरा है,,हमारी प्रकृति कितनी रंगीन है,,।ठीक इसी तरह हमारी भावनाओं व संवेदनाओं का रंगों से संबंध है,,क्रोध का लाल,ईर्ष्या का हरा,आनंद और जीवंतता के लिए पीला,प्रेम का गुलाबी,नीला विस्तृतता के लिए, शांति के लिए सफेद,त्याग का रंग केसरिया,और ज्ञान का जामुनी,,।ये तरह-तरह के रंग ही मनुष्य के जीवन में विविधता लाते हैं,,।

होली की तरह ही जीवन भी रंगों भरा होना चाहिए,,।नये रंगों के साथ जीवन को एक उत्सव की तरह बनाना चाहिए।  

हमारी भावनायें ही हमें अग्नि की तरह जलाती हैं मगर जब वही रंगों की फुहार सी हो तो हमारे जीवन में रंग भर जाती है,,।

पहली दो लाइनें सुहानी के दिल में गहरे उतर गयी थी,कि होली अर्थात एक-दूजे के हो ले,,,,,। 

इतना सब कहने के बाद उसने किशोर कुमार के बहुत से गीत भी गाये ,,सब सुहानी की पसंद के,,जैसे उसी के लिए गा रहा हो,,।

अब सुहानी को उसको जानने की उत्सुकता हुई,,।फिर डिनर के समय उससे जान-पहचान हुई,,पता चला जनाब इसी सोसाइटी में रहते हैं,,अभी-अभी मैनेजमेंट की पढ़ाई करके जाॅब ज्वाइन किया है,,। अभी होली की छुट्टी लेकर घर आये हैं,,और हमेशा होली की छुट्टी में आते हैं,,सभी कह रहे थे इसके आने से तो सोसाइटी में रौनक आ जाती है,,और ये साक्षात देख रही थी सुहानी,,।




सुभाष के माता-पिता उसी बिल्डिंग में नीचे के फ्लोर पर रहते थे,।

अब होली के दिन भी दुबारा मिलना हुआ उससे,, दोनों में जान-पहचान हुई, एक-दूसरे से शिक्षा से शौक तक के बारे में बातचीत हुई,,।सुहानी जितनी शाँत थी सुभाष उतना ही बातूनी,,उसने सुहानी को ही नहीं उसके माता-पिता को भी अपने स्वभाव से प्रभावित कर लिया था,,वो था ही ऐसा,,एक बार मिलने के बाद कोई भूल ही नही सकता था,,।

दोनों में दोस्ती हो गयी,,फोन नंबर्स एक्सचेंज हुए,,।तीन दिन बाद सुभाष अपनी नौकरी पर चला गया,,मगर दोनों में बातचीत होती रही,,धीर-धीरे दोस्ती प्यार में बदल चुकी थी,,इस तरह तीन साल बीत गये थे,,।दोनों के माता-पिता को भी कोई एतराज नहीं था,,,। सुभाष के साथ सुहानी भी बड़ी ही प्यारी थी तो पसंद आना लाज़िमी ही था,,।

सुहानी का भी कैम्पस सेलेक्शन हो चुका था ,सब अच्छा चल रहा था ,,अब इंतज़ार था तो बस,, सुहानी के फाइनल एग्जाम हो जाने का,,।उसके बाद दोनों की शादी हो जानी थी,,।

मगर विधाता को तो कुछ और ही मंजूर था,,,,,,,

होली की तैयारी चल रही थी,,दोनों ही परिवार को सुभाष का इंतज़ार था,,।सुहानी तो जैसे बेचैन हो रही थी,एक-एक पल काटना मुश्किल हो रहा था,,बहुत ही बेकरारी से सुभाष का इंतज़ार कर रही थी,,।जाने कब सुबह होगी,, ये रात कब बीतेगी,,यही सोच-सोच कर करवटें ले रही थी। प्रकृति, सृष्टि और वक्त को कब और कौन रोक पाया है,,समय के अनुसार रात भी बीती और सूरज भी निकला,,,,।

अपने समय से ही सुबह तो आयी मगर सुभाष कभी न आ सका,,।

हाँ,, उसका पार्थिव शरीर जरूर आया,,।




दरअसल एयरपोर्ट आते समय कैब को बड़ी बस ने टक्कर मार दी और कार में सवार सुभाष और ड्राइवर दोनों ने ही अस्पताल में दम तोड़ दिया था,।

सुबह तड़के ही उसके घर फोन आया,,।उसके माता-पिता पर तो पहाड़ टूट पड़ा, 

ये खबर सुनते ही सुहानी भी बेहोश होकर गिर पड़ी थी,,कयी दिनों के इलाज के बाद वो डिप्रेशन से बाहर आ पायी,,। धीरे-धीरे उसने खुद को संभाला और सुभाष के माता-पिता का भी बहुत ख़याल रखने लगी,,।सुभाष के माता-पिता उसे देखकर बहुत दुखी हो जाते तो सुहानी ही उन्हें समझाती,,।

इस तरह साल बीत गया,,सब कुछ धीरे-धीरे नार्मल होने लगा था,, कहते हैं न कि ज़िन्दगी कहाँ रुकती है कभी किसी के बिना,,।

सुहानी के माता-पिता अब उसकी शादी कर देना चाहते थे,,मगर सुहानी इसके लिए तैयार न थी,,।फिर उसके माता-पिता ने सुभाष के माता-पिता से बात की,,वे लोग भी सुहानी को ज़िन्दगी में आगे बढ़ता देखना चाहते थे,,।

आख़िर कब तक और किसके लिये और क्यों,,? किसका इंतज़ार कर रही थी सुहानी,,,,उसका,, जो कभी न आने वाला था,,?

सुभाष के माता-पिता ने उसे बहुत समझाया,,आख़िर सुहानी तैयार हो गयी,,।

फ़िर उन्हीं के द्वारा पसंद किये गये लड़के राजन से सुहानी की शादी तय हो गयी,,।

चारों ने मिलकर (सुहानी के माता-पिता और सुभाष के माता-पिता) ने मिलकर धूमधाम से सुहानी का विवाह कराया ,।विदाई के समय सुहानी के एक नहीं दो-दो माता-पिता थे,,।




आज सुहानी की एक छोटी सी प्यारी बेटी है और अपने घर-परिवार में बहुत ख़ुश है,,।

मगर जब भी होली आती है,,सुहानी को सुभाष की याद आने लगती है,,और साथ ही हर साल होली के त्योहार के समय यहाँ आती है और अपने दोनों माता-पिता के साथ ही होली मनाती है,,। सभी मिलकर सुभाष की बातें करते हैं,,उसे  याद करते हैं और इस तरह सुभाष को अपने बीच जिंदा रखते हैं,,!!!!

#5वाँ जन्मोत्सव,,

बेटिया,,

कहानी–4

मधु झा,,

स्वरचित

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