समझौता या फर्ज – संगीता अग्रवाल

” बेटा क्या सोचा है तूने अब क्या करेगी ?” दर्शना जी ने अपनी बेटी निशा से पूछा।

” सोचना क्या है मम्मी इस वक़्त जो मेरा फर्ज है वही पूरा करूंगी मैं !” निशा ने शांति से उत्तर दिया।

” लेकिन बेटा ये नौकरी …तुझे तो पता ही है नौकरी इतनी आसानी से नही लगती तू उससे समझौता कर रही है क्या ये सही है ?” दर्शना जी ने पूछा।

” मम्मी कैसी बात कर रही हो आप समझौते की बात कहाँ से आ गई यहां मम्मीजी को इस वक़्त मेरी जरूरत है और मैं अपना फर्ज निभाने को अपनी खुशी से ये सब कर रही हूँ !” निशा ने कुर्सी से सिर टिकाते हुए कहा। उसके चेहरे पर थकावट साफ नज़र आ रही थी । अस्पताल का माहौल ही ऐसा होता है वहाँ अच्छा खासा इंसान थकान महसूस करने लगता है फिर यहां तो निशा पूरी रात की जगी हुई थी।

दोस्तों यहाँ आपके मन में बहुत से सवाल उमड़ रहे होंगे । कहानी को आगे बढ़ाने से पहले मैं आपको अपनी कहानी के पात्रों और उनके जीवन परिचय से अवगत करवा दूँ तभी आपको आपके सवालों के जवाब मिल पाएंगे ।

निशा दर्शना जी की बेटी जिसकी शादी एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुई जहाँ अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए भी अगले महीने की तनख्वाह का इंतज़ार किया जाता था ऐसे में निशा ने पढ़ लिखकर अपने पैरों पर खड़े होने का निश्चय किया जिसमे उसके परिवार यानि की सास शांति जी और पति संदीप ने ज्यादा साथ भले ना दिया पर रूकावट भी नहीं पैदा की। अपनी पढ़ाई के दौरान निशा एक बेटी की माँ भी बन गई । निशा ने बीएड पास कर लिया और एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी पकड़ ली । सारा परिवार खुश था खुश तो खुद निशा भी थी क्योंकि उसके लिए ये सफर आसान नहीं था । किन्तु कहते हैं ना सब कुछ मन का चाहा हो जाये तो शायद इंसान ईश्वर को भी भूल जाये। अभी निशा को नौकरी करते कुछ महीने ही हुए थे कि उसकी सास को लकवा मार गया और आनन फानन में उन्हे पास के अस्पताल में भर्ती करवाया गया। यहीं निशा की मां दर्शना जी अपनी समधन यानि की निशा की सास शांति जी को देखने आई हैं और वो निशा को समझा रही हैं।



” मजबूरी को खुशी का नाम मत दे तेरी दो दो ननदे हैं इस शहर मे क्या उनका कोई फर्ज नहीं है तूने ही सारे फर्ज का ठेका लिया है !” दर्शना जी बोलीं।

” मम्मी ननदे हैं पर उनकी भी अपनी गृहस्थी है मैं कैसे उनसे कह दूँ कि मुझे नौकरी करनी है इसलिए तुम आकर अपनी माँ को संभालो …!” निशा बोली।

” अरे तो दिन में तो वो संभाल सकती हैं फिर कौन सा तू नौकरी अपने लिए कर रही है घर के लिए ही तो कर रही है ना !” दर्शना जी ने तर्क दिया

” मम्मी संदीप ने बोला था उनसे पर वो भी मजबूर हैं क्योंकि उनके भी सास ससुर हैं दो चार दिन की बात अलग है यहाँ बात महीनों की है और मुझे भी लगता है मैं ये नौकरी और मम्मीजी की सेवा का तनाव नहीं झेल पाउंगी। अब जब कोई और है नहीं और नर्स रखने की हमारी हैसियत नहीं तो मम्मी जी को ऐसे ही छोड़ दूं उनके हाल पर …कल को भगवान् ना करे आपको कुछ हो जाये और भाभी आपको छोड़ दें ऐसे तो ? मम्मी कुछ चीजों पर इंसान का बस नहीं होता ईश्वर जो चाहता है वही होता है और इस वक्त् ईश्वर की भी यही मर्जी है कि मैं मम्मीजी की सेवा के लिए अपनी नौकरी छोड़ दूँ नौकरी का क्या कल को ओर मिल जाएगी पर इंसान चला गया तो वापिस नही आएगा।” निशा ने माँ को समझाया।

” तो तूने ठान लिया है तू अपनी नौकरी से समझौता करेगी पर ये सोचा है कैसे संभालेगी सब बेटी की पढ़ाई , घर खर्च ये सब संदीप की कमाई से होंगे ? ऊपर से इनका खर्च !”दर्शना जी बोलीं।

” हां मम्मी और आप इसमे मेरे साथ हैं तो अच्छा है वरना आप प्लीज मुझे मेरे फर्ज से पीछे मत करिये रही बात खर्चे की उसका भी मैने सोच लिया मैं घर में कोचिंग इंस्टिट्यूट खोल लूंगी शुरु में कम कमाई होगी पर कम से कम अपने फर्ज से तो समझौता नहीं करना पड़ेगा मुझे !” निशा माँ से बोली ।

सामने लेटीं शांति जी कि आँख मे आंसू आ गये वो मन ही मन सोचने लगी इंसान सारी उम्र मेरा बेटा बेटी ही करता रहता है बहू को बाहर का व्यक्ति समझ जबकि बहू अगर निशा जैसी हो तो बेटा बेटी से बढ़कर अपनी होती है।

 

आपकी दोस्त

संगीता अग्रवाल 

 

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