मनपरिवर्तन……. – विनोद सिन्हा “सुदामा”

आ गए तुम….

मैंने अभी घर में कदम रखा ही था कि पत्नी सुधा ने मुझपर चिल्लाते हुए कहा…

हाँ ….क्या हुआ…

मैंने जानना चाहा…

सुनो अब मैं यहाँ नहीं रह सकती…

बहुत हुआ..मैं ये रोज़-रोज की झिकझिक और टोका टाकी से तंग आ गई हूँ…

अब मुझसे जरा भी बर्दाश्त नहीं होता …

कुछ कहो तो…आखिर हुआ क्या है और इस तरह क्यूँ चिल्ला रही हो…

चिल्ला रहीं हूँ…??? तुम तो मुझे ही कहना अपनी माँ को कुछ मत कहो…

सारा दिन तो तुम अपनी दो टकिए की नौकरी की वजह से बाहर रहते हो…

घर में तो मुझे रहना और सुनना पड़ता है…नौकरानी बनकर…

इस दो टकिए की नौकरी से ही घर चला रहा..

मैंने दबे स्वर में कहा….

सुधा को मेरी यह नौकरी पसंद नहीं थी…उसकी सोच थी कि उसकी शादी कहीं किसी बड़े घर में होती…और वह रानी की तरह रहती..लेकिन उसके पिता ने उसकी शादी मेरे साथ कर दी थी..

मैंने पूछा….

आखिर माँ ने ऐसा क्या कह दिया….जो…

अब क्या तुम्हारी  माँ की कहानियाँ सुनाऊँ तुम्हें…???

तो मत कहो….कुछ मत सुनाओ..

कुछ होगा तब न कहोगी…

कहकर माँ के कमरे की तरफ़ जाने लगा…

और ये हाँथ में क्या है…

दर्द का मलहम…

सुबह जब ऑफिस जा रहा था तो माँ ने लाने को कहा था…कह रही थी उसके घुटने का दर्द फिर परेशान करने लगा है…

मेरा कहना मानों उसके जले पर नमक…का काम किया

हाँ….हाँ…..माँ का तो दर्द दिख जाता है तुम्हें लेकिन मेरा नहीं…दिखता

तुम्हारे दर्द का कोई इलाज नहीं…

मैंने सुधा की ओर देखा और बिना कुछ सुने..माँ के कमरे में चला गया..

देखा माँ कोने में दुबकी आँसू बहा रही है..

उसके चेहरे पर आज फिर दर्द की रेखा साफ झलक रही थी…



सच कहूँ तो इन दिनों  माँ की परेशानियां और बढ गई थी..

पिताजी जिंदा थे तो.. मैं और वो..माँ की कुछ कुछ मदद कर देते थे जैसे चाय बना देना..,सब्जी काट देना,बाजार से सामान ला देना…माँ के पैरों में मलहम लगा देना…लेकिन अब …जब मैं लगाता हूँ तभी दवा लग पाती है वरना दर्द से छटपटाती रहती.. क्योंकि पिताजी के मृत्यु  से सदमें के कारण लकवाग्रस्त हो जाने से उसका दाहिना हाँथ कमजोर हो गया था और  कम काम करता था..उपर से पैरों में गठिए का दर्द…हालांकि भगवान का शुक्र था कि माँ अपना नित्यकर्म स्वयं कर लेती …हाँ कभी कभी मैं उसकी बालों को जरूर बाँध देता नहीं तो खुला ही रखती..

मैंने पास जाकर माँ से पूछा…बहुत दर्द हो रहा..लाओ दवा लगा दूँ….कहकर मलहम उसके घुटने पर मलने लगा….

ये गोली भी ले आया हूँ…जब बहुत. दर्द.हो तो खा लिया करना…

माँ ने किसी मासूम बच्ची की तरह हाँ में सर हिला दिया..और ममतामयी नजरों से मेरी तरफ देखने लगी..

बाहर खड़ी सुधा मुझे खा जाने वाली नज़रों से देख रही थी…फिर पैर पटकती अपने कमरे में चली गई…

मैने सुधा क़ो अनदेखा कर माँ से पूछा…

रो क्यूँ रही…बहू ने फिर कुछ कहा…

माँ की आँखों से गर्म आँसू अब भी टपक रहे थें..

माँ ने कहा नहीं…

लेकिन वो तो आज भी गुस्से में है..

माँ ने आँचल से बहते आँसुओं को पोछते हुए कहा..

बच्ची है..धीरे धीरे सब समझ जाएगी…

मैं मन ही मन कहता…

काश कि वह समझ जाए..

लेकिन नहीं…मुझे पता था वह समझने वाली नहीं….

माँ ने कहा जा…बहू को देख…चाय बनाने गई हो शायद..थका हारा आया है..जा कपड़े बदल…और बहू से बात कर….

मैं सोच रहा था एक माँ है जिसे दर्द में भी मेरी थकान की फिक्र है और एक बीवी है..जिसे घर आते शिकायतें छोड़ कुछ सुझता नहीं….

रोज बेवजह की शिकायत..रोज वही झिकझिक….फिर पूछने पर भी तो नहीं बताती थी कि आखिर माँ क्या कहती सुनती है उसे कि वह गुस्सा रहती है….बस मैं घर आया नहीं कि …

जाने क्या सोचती थी माँ को लेकर….जाने क्यूँ इतनी नफरत थी माँ के लिए उसके मन में…

पिताजी के देहावसान के उपरांत घर में मैं और माँ रह गए थे…पिता जी सरकारी नौकरी में कार्यरत थे इसलिए अनुकंपा के आधार पर पिताजी के स्थान पर मुझे नौकरी मिल गई थी..वैसे मैं खुद भी तैयारी में लगा था लेकिन कहीं सलेक्शन नहीं हो पाया था……..हाँथ आई नौकरी चली जाती अतः पकड़ ली वरना पढ लिखकर मेरी  गिनती भी बेरोजगारों में ही हो रही थी..

मैं ऑफिस चला जाता माँ बेचारी पीछे घर में अकेली रह जाती….सुबह मलहम लगा कर जाता तो लौटकर ही लग पाती…कोई ध्यान रखने वाला नहीं था…बगल वाली मौसी दिन में एकाध बार आकर माँ को देख जाती और खाना खिला जाती…क्योंकि मैं खाना बनाकर ही ऑफिस जाया करता था….लेकिन आखिर कब तक ऐसे चलता…इसलिए माँ का स्वास्थ्य देख उसके दबाव में आकर शादी कर ली..सोचा था बहू आ जाएगी तो माँ की देखभाल करेगी तो माँ को भी आराम हो जाएगा….लेकिन कहाँ पता था कि …हालात और बिगड़ जाऐंगे….

शुरू शुरू तो सब ठीक रहा…माँ भी खुश थी और बहू भी..लेकिन धीरे धीरे…किन्हीं न किन्हीं कारणों से माँ को ले हमारे बीच झगड़ा बढ़ता ही चला गया…और मैं माँ को ले पत्नी से झगड़े को लेकर परेशान रहने लगा…

एक तो रोज ऑफिस की टेंशन.. काम का बोझ..बड़े साहब की डाँट …घर आओ तो बीवी की शिकायतें…कभी कभी तो आत्महत्या कर लेने की इच्छा होती मेरी..लेकिन सोचता माँ का क्या होगा…..बेचारी जीते जी मर जाएगी.

सच या तो मैं जानता था या मेरी माँ कि उसने किन हालातों एवं कितने कष्टों को सहकर मेरा लालन पालन किया था…



इसलिए भी.. स्वयं के गुस्से पे संयम रखता…और इतना कुछ होने पर भी सुधा को कुछ नहीं कहता….उसे मुझसे या माँ से लाख शिकायत थी लेकिन उसे सदा प्रेम से ही समझाया मैंने….क्योंकि मेरा मानना था कि परेशानियाँ सदा संयम व सुलझ सोच से ही दूर होती है….आपसी तकरार उन्हें और बढ़ाती है…

तभी माँ ने टोका….

क्या सोच रहा है…जा न बहू राह तक रही होगी…मेरा क्या मेरी हड्डियाँ तो यूँ ही कथक करती रहेंगी…माँ ने चेहरे पर हल्की मुस्कान लाते हुए कहा…

दर्द अब पहले से काफी कम था..माँ को दर्द से आराम मिलता देख…मुझे भी थोड़ी राहत हुई…

उसे चादर ओढ़ाते हुए कहा

ठीक है माँ तुम आराम करो…मैं आता हूँ…कहकर अपने कमरे में आ गया…

सुधा हर बार की तरह मेरे स्वागत के लिए चेहरा लाल किए बैठी थी..

कर ली सेवा…सुन आए माँ की..

क्या सब सुनाया तुम्हारी माँ ने तुम्हें..

तुम तो अपनी माँ की ही हर बात सच मानोगे…

मैं चाहे कुछ कहूँ या न कहूँ….

अब मैं सुधा से क्या कहता कि माँ ने इसबार  भी उसकी कोई शिकायत नहीं की थी…..

हालांकि माँ ने पहले भी कभी मुझसे सुधा की कोई शिकायत नहीं की थी…जहाँ तक मेरे लाख पूछने पर भी क्या हुआ….माँ यही कहती कुछ नहीं….रहने दे…

मैं भली भाँति जानता था मेरी माँ को.. मेरे लाख पूछने पर भी वह कुछ नहीं कहेगी…न ही कुछ बताएगी..उसके मन में कोई छल कपट था ही नहीं..

लेकिन सुधा…..थी कि…

आज तो तुम फैसला कर ही लो

कैसा फैसला ….???

यही कि….

तुम्हें…अपनी माँ के साथ रहना है या मेरे साथ…

मैंने गुस्से में कहा..

तुम्हें जो फैसला करना है करो..तुम्हें जहाँ रहना है रहो..

मैं माँ को छोड़ कहीं नहीं रह सकता..

माँ वृद्धा आश्रम में भी तो रह सकती है..

तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया..

मेरे हाँथ सुधा पर उठते उठते रह गए…

कर लो …..

ये भी कसर पूरी कर लो…अब बस यही बाकि रह गई है

सामान्य तौर पे मैं सुधा पर कभी इस तरह नाराज नहीं होता था लेकिन आज उसकी बातें सुन जाने क्यूँ मैं मेरे गुस्से पर काबू नहीं रख सका …..फिर भी खुद को रोक लिया…

Sorry….. तुम बात ही ऐसी कर रही हो…

अब मैं माँ को इस अवस्था में वृद्धा आश्रम में भेज दूँ…

तो क्या हुआ..???

बहुत सी वृद्ध औरतें रहती हैं वहाँ…

माँ को भी कंपनी मिल जाएगी…

क्यूँ…??? तुम कंपनी नहीं दे सकती..

ऐसा करो अपनी माँ से बात कर देखो..

क्या तुम्हारी माँ रह ल़ेगी वहाँ..

अगर वह वहाँ रहना स्वीकार कर लेती हैं…तो …सोचता हूँ

तुम न सही शायद तुम्हारी माँ कुछ मदद कर दे मेरी माँ की

वो क्यूँ रहेगी भला..अच्छा खासा घर है..पापा अभी जिंदा हैं……और सबसे बड़ी बात मेरी माँ अपनी बहू से नहीं झगड़ती…बहुत अच्छी बहू मिली है उन्हें..

तो तुम क्यूँ अच्छी बहू नहीं बन जाती…

और क्या तुम्हारे पापा मर जाएंगे तो रह लेंगी  ..???

मैने सुधा को आइना दिखाने के ध्येय से कहा…

क्या मेरी माँ और तुम्हारी माँ में अंतर है…

मेरा घर…..घर नहीं….मेरी माँ …..माँ नहीं…???

मैनें उसे समझाते हुए कहा…



सुधा तुम समझती क्यूँ नहीं….

बे वजह की जिद्द किए बैठी हो….

ऐसा भी कहीं होता है क्या…

जितनी जरूरत हमें बचपन में माँ बाप की होती है..उतनी ही बुढापे में माँ बाप को बच्चों की आवश्यकता होती है..उन्हें साथ रखना हमारी जिम्मेदारी है…तुम्हें पता है माँ को गठिये का दर्द रह रहकर सताता रहता है…कभी कभी तो वह दर्द उसके लिए असहनीय हो जाता है..और तुम कहती हो कि मैं माँ को किसी वृद्धाआश्रम में भेज दूँ..

मैं कुछ नहीं जानती तुम्हें फैसला करना ही होगा…

तो सुनों….मैंने उसे चेताते हुए कहा

जैसा तुम चाहती हो वैसा कभी नहीं हो सकता….

और न ही मैं माँ को कहीं दूसरी जगह रखूँगा…बाकी तुम्हारी मर्जी तुम्हें रहना है तो रहो जाना है तो जाओ..मैं कुछ नहीं कहूँगा….

ठीक है फिर..मैं कल सुबह ही अपने मायके चली जाऊँगी…

तुम्हारी माँ का बोझ मुझे नहीं ढोना ..

कल सुबह क्यूँ…अभी चली जाओ….

लेकिन पहले अपनी माँ से बात तो कर लो…..

कहीं फिर तुम्हें आने से मना न कर दे..

कई बार सुधा पहले भी मायके जाने की बात करती थी लेकिन जाने क्यूँ उसकी माँ आने से रोक देती ….

हम दोनों के बीच काफी देर तक तू-तू मै-मै होती रही…

मैं उसे समझाता रहा लेकिन वो थी कि समझने के लिए तैयार नहीं थी…गुस्से से भरी मायके जाने के लिए अपना बैग तैयार करने लगी…

मैं भी उसे उसके हाल छोड़ बाहर नुक्कड़ पर चाय सिगरेट पीने जाने लगा…

पर जैसे ही बाहर का दरवाजा खोला देखा सुधा के माता पिता अपने सामान के साथ घर की दहलीज पर खड़े थे…उन्हें अचानक यहाँ देख मैं अचंभित हो गया..और खुद को तुरंत शांत कर लिया… मैंने झुककर दोनो का अभिवादन किया और घर के अंदर ले आया…उन्होंने हमारी बात़े सुनी या न सुनी कह नहीं सकता…..लेकिन उनके चेहरे उदास व मायूस प्रतीत हो रहे थे..

मैं थोड़ा डर सा गया….जाने क्या सोच रहें होंगे दोनों..

क्यूँकि मेरे कमरे और मेन दरवाजे में ज्यादा फासला नहीं था..कहीं सुधा की आवाज उन दोनों के कानों तक तो नहीं पहुँची…यही सोच थोड़ा असहज हो गया था…और शर्मिंदा भी.

मैंने सुधा को आवाज दी….

सुधा… देखो…माँ पापा आए हैं.

सुधा……..कहाँ हो…..

देखो…तुम्हारे माँ पापा आए हैं.

वह लगभग दौड़ती हुई कमरे से बाहर आई…

देखा इस बीच सुधा ने अपना आँसुओं से भरा चेहरा साफ कर लिया था..

माँ…??? पापा… ???..आप दोनों यहाँ… बिना बताए…???

खुशी से पहले माँ के गले लगी फिर पापा के..

उन्हें अचानक यहाँ देख प्रश्न उसकी नज़रों में भी थे…लेकिन जाहिर नहीं कर पा रही थी..

लेकिन आपलोग इतने उदास क्यूँ दिख रहें….

शायद थक गए हो आपलोग

ठहरिए मैं चाय नाश्ता लेकर आती हूँ….फिर बात करती हूँ…

तुम बातें करों चाय मैं बना लाता हूँँ….

मैं नहीं चाहता था कि हम पति पत्नी के झगड़े का उन्हें किसी तरह का कोई शक हो…

लेकिन मैं चाय नाश्ता लेकर आता कि…

तभी मेरो कानों में सुधा की आवाज आई…

भैया भाभी ऐसा कैसे कर सकते हैं….???

आखिर वह घर आपका भी तो है…

नजदीक आते ही मैंने पूछा क्या हुआ..?

तीनों कुछ पल चुप रहें ….

फिर बाद जब सच जाना तो मन दर्द से आहत हो उठा उनके बेटे बहू ने उन्हें घर से निकाल दिया था..और कहीं ठिकाना न देख सीधे बेटी घर आ गए थे दोनों…

दोनों फफक कर रो रहें थे……

बात चीत के दौरान सुधा की माँ ने यह भी बताया कि उनकी बहू उन्हें घर पर पहले से ही बहुत तकलीफ़ देती थी इसलिए वह सुधा को घर आने से अक्सर ही मना करती थी….ताकि सुधा को उनका सच न पता चले…और वह दुखी हो..

सच जान सुधा का मन भी आहत था शायद

कोई बात नहीं… आप यहीं रहिए…

मैं सुधा की तरफ देख रहा था….

कहने को तो सुधा ने कह दिया था लेकिन उस समय उसके चेहरे पर हजारों दर्द  एवं पलकें आँसुओं से सराबोर थी..

उस समय मैं सुधा में…बहू और बेटी में अंतर को साफ देख पा रहा था

देख…..सोच रहा था…एक आदमी का दर्द जितना माँ और बेटी समझ सकती है..उतना पत्नी और बहू नहीं.

सुधा ने माँ से कहा मैं भाभी को एक अच्छी बहू समझती थी कभी सोचा नहीं था कि वो आपके साथ ऐसा करेंगी..

लेकिन…भैया….भी..ऐसे निकले.

उसका कहा सुन …मैं न चाहकर भी बोल उठा..

सच कहूँ तो…अंतर तुम बेटियों ने डाल रखा है..इसमें बहुओं का कोई दोष नहीं.. बहू तो बस एक लेबल मात्र है..जो उसके माथे चिपका दिया गया जैसे..किसी सामान पे चिपका दिया जाता है उसका ब्रांड नेम…उस सामान को बेचने खातिर..



तीनों की नजरे मेरी तरफ घूम गई..

मैंने कहना जारी रखा…

कभी सास को माँ समझकर तो देखो,फिर ऐसा हो ही नहीं सकता कि जो माँ नौ महीने कोख का दर्द सहती है वह माँ बहू बेटी का दर्द न समझे..

कभी बहू से बेटी बनकर देखो,कभी ससुराल में बेटी बन अपने मन की छोटी छोटी ख्वाईशो की तिलांजलि देकर तो देखो…जैसे माता पिता के घर उनकी आर्थिक परेशानियों को जान अपना मन मार लेती हो…तुम बेटियाँ

कहती हो रहने दिजिए पापा …कभी और ले लूँगी.

हालांकि फिर भी पिता की कोशिश रहती है कि वे तुम्हारी ख्वाहिशों को पूरी कर दें….और शायद हो भी जाती हैं…

लेकिन जरूरी नहीं कि वो सारी ख्वाईशें पति भी पूरी कर दें…क्योंकि पति की सीमाएं उतनी अनंत नहीं जितनी एक पिता की होती है…परंतु जाने क्यूँ तुम बेटियों को बहू बनते ही…तुम्हारी ख्वाहिशे जो पिता के आँगन तक बड़ी होती हैं..ससुराल में छोटी दिखने लगती हैं…

घर छोटा दिखता है….सास बुरी दिखती है..पति की सारी कोशिशें के आगे तुम्हें तुम्हारे सपनें दो टकिए की नौकरी में दम तोड़ती दिखती हैं…

और तो और….ससुराल और मायके के प्रति इतनी तुलनात्मक रवैया अपना लेती हो कि पति का सर शर्म से झुक जाता है…

तुम बेटियाँ बहू बनने के उपरांत यह नहीं समझ पाती कि पिता और पति की जिम्मदारियों में अंतर होता है घर और ससुराल में अंतर होता है… उतना ही अंतर….जितना जमीन और आसमान में…होता है…पिता के घर हम खुले आकाश की सैर कर सकते हैं..उसका दायरा अलग है..लेकिन ससुराल में हमें जमीं पर रहना होता है….ससुराल छोटा हो या बड़ा बेटियों को बहू के रूप म़े..बहुओं को बेटी के रूप में हर हाल खुश रहने की कोशिश करनी चाहिए…

पर नहीं….जानें क्यूँ मन में शुरू से ही ससुराल के प्रति नकारात्मकता भरी रहती हो..पहले  ही मान बैठती हो सास अच्छी नहीं होगी…तो सास का विरोध करना है..ससुर का विरोध करना है..ननद का…यहाँ तक  खुद के पति का भी विरोध करने से नहीं चुकती…विरोध करो…और करना भी चाहिए लेकिन सिर्फ विरोध करने के लिए विरोध मत करो…और अगर करना ही है तो पहले स्वयं का विरोध करो…अपने बहू होने का विरोध करो…खुद के अंदर की बेटी के खोने का विरोध करो…फिर देखना…बहू के रूप में सास या ससुराल में किसी तरह के विरोध का सामना ही नहीं करना पड़ेगा..

मेरे सास-ससुर अचंभित थे कि यह मैं सुधा को क्या और क्यूँ बोले जा रहा हूँ…

पर शायद सुधा मेरी कही बातों का आशय समझ रही थी…

उसने मुझे क्षमा याचना भाव से देखा..

उसकी आँखों में अपराधबोध साफ झलक रहा था…

तभी मेरी माँ जो शायद हमारी आवाज से जग गई थी टगते टगते  हॉल में आ गई..

कौन आया है..बेटा…..

माँ की आवाज सुन….

सुधा ने झट से आगे बढकर माँ को सहारा दिया और अपनी माँ की बगल वाले खाली सोफे पर बिठाते हुए कहा

आइए माँ जी……

मेरे माँ पापा आए हैं..

मैं तो मानों…अपनी जगह से उछलते उछलते बचा..माँ के प्रति सुधा का यह व्यवहार व उसकी बोली में यह मिठास देख मेरे आश्चर्य की कोई सीमा नहीं थी..

उधर माँ कभी सुधा तो कभी मुझे देख रही थी..

और मैं मुस्कुरा रहा था..

आज उसके माता-पिता के सामने बिना किसी शिकायत बिना घर की बातें जाहिर किए…उसकी सोच बदलने में सफल हुआ था…वरना सुधा और मेरा सच जान शायद उसके माता पिता का मन और दुःखी हो उठता…बेटे के साथ बेटी का व्यवहार भी उन्हें कम तकलीफ़ नहीं देता…

खैर ..सुधा के व्यवहार में आया यह परिवर्तन क्षणिक था या फिर अपने माता पिता का हश्र देख उसके मन की पुकार..या फिर उसका #मन परिवर्तन जो भी था मेरे लिए सुखद था……और सुधा के लिए बहू से बेटी बनने एवं …शायद यह परिवर्तन उसके ससुराल के प्रति विरोधाभासी सोच में भी..लाभदायक..हो…

विनोद सिन्हा “सुदामा”

 

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