सहारे की आड़ में – विभा गुप्ता

   टेलीविज़न पर केबीसी शो का रिपीट टेलीकास्ट हो रहा था, ‘आनंद निवास’ के बड़े हाॅल में पिन ड्राॅप साइलेंस था।पुरुष-महिलाएँ सभी बैठकर एकटक अमिताभ बच्चन जी को देख रहें थें कि अब वे हाॅट सीट पर बैठे व्यक्ति से अगला प्रश्न क्या पूछेंगे।तभी एक सेविका ने आकर बताया कि दो लोग बड़ी दीदी से मिलना चाहते हैं।बड़ी दीदी यानि कि राजेश्वरी जी से।गौर वर्ण की सत्तर वर्षीय राजेश्वरी जी इस निवास की संचालिका थी और मुखिया भी।तेज-तेज कदमों से चलकर वे अपने ऑफ़िस में गईं तो एक युवा जोड़े को देखकर उन्हें तनिक भी अचरज नहीं हुआ।युवती ने कहा कि दो वर्ष पूर्व सास-ससुर का देहान्त हो चुका है।अब उनके बिना घर काटने को दौड़ता है,इसलिए वृद्ध कपल को अडाॅप्ट करना चाहते हैं ताकि उन्हें घर-परिवार का सहारा मिल सके और मेरी डेढ़ वर्षीय बेटी को दादा-दादी।

            राजेश्वरी जी साफ़ नकार गई और बोली कि यहाँ के सभी सदस्य एक ही परिवार के हैं।कोई भी एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकते।युवती बोली कि तीन साल पहले तो यहीं से मेरी सहेली ने…।

      ” तीन साल पहले यह वृद्धाश्रम था परन्तु अब ये ‘आनंद निवास’ है।” युवती को बीच में ही टोकते हुए राजेश्वरी जी दीवार पर लगे बोर्ड की ओर इशारा करते हुए बोलीं और वापस हाॅल के अंदर चली गईं।टीवी शो के बीच में ब्रेक आया तो सभी ने एक स्वर पूछा, “कौन थें? क्या लेने आयें थें ?”  राजेश्वरी जी हमेशा की तरह हँसते हुए बोली, ” कोई नहीं’ ब्रेक खत्म हुआ,सब टीवी देखने में व्यस्त हो गये।

          दृढ़-निश्चयी राजेश्वरी देवी कभी सरल स्वभाव की सहृदया हिमांशु नाम के बेटे की माँ हुआ करतीं थीं।उन दिनों भागलपुर छोटा शहर हुआ करता था।बेटे को पालने-पोषने और उसे एमबीए कराने में कब उनके बाल सफ़ेद हो गये,उन्हें पता ही नहीं चला।बेटे को मुम्बई शहर में नौकरी मिल गयी, वो चला गया और घर सूना हो गया।सोचने लगी, साल दो साल में बहू आ जाएगी, पोते-पोतियों से घर में रौनक होगी और पति- पत्नी को जीने का एक सहारा मिल जाएगा।पति बृजभूषण बाबू के रिटायरमेंट में अभी दो दिन शेष थें कि हिमांशु ने अपनी शादी की खबर देकर उनकी सभी इच्छाओं पर पानी फ़ेर दिया।उसने वहीं पर एक विजातीय लड़की जो उसकी सहकर्मी भी थी,से विवाह कर लिया था।




            हिमांशु की पत्नी जब गर्भवती हुई तो उसे अपने माता-पिता की याद आई।उसने कहा कि माँ, इस समय हमें आपकी सपोर्ट की ज़रूरत है।डाॅक्टर ने आपकी बहू स्नेहा को बेडरेस्ट करने को कहा है।सुनकर बृजभूषण बाबू तो बहुत क्रोधित हुए, बेटे को मतलबी भी कहा लेकिन माँ की ममता के आगे घुटने टेक दिये।सोचा,बेटा ही तो हमारा एकमात्र सहारा है,उससे नाराज़गी कैसी?और घर समेटकर पति-पत्नी चल दिये मुंबई।बेटे-बहू से मिलने और मुंबई शहर देखने के उत्साह में सफ़र कैसे कट गया,उन्हें पता ही नहीं चला।

            एक दिन तो उन्हें वहाँ के तौर-तरीके समझने में लगा और फिर अगले दिन से ही दोनों पति-पत्नी की ड्यूटी शुरु हो गई।हिमांशु तो सुबह ही लंच लेकर ऑफ़िस निकल जाता।बाहर का सारा काम बृजभूषण बाबू को ही करना पड़ता था।स्नेहा तो बिस्तर पर लेटे-लेटे लैपटॉप पर अपने ऑफ़िस का काम करती, उसे सुबह की चाय से लेकर रात को दूध देने की ज़िम्मेदारी राजेश्वरी जी की थी जो वे पूरी ईमानदारी से निभा रहीं थीं।रात को बेटा जब अपने कमरे में जाता तो थके-हारे पति-पत्नी भी अपने कमरे में आ जाते थें।नौ महीने पूरे होते ही हिमांशु और स्नेहा एक पुत्र के माता-पिता बन गये और राजेश्वरी जी दादी बन गई।दादा-दादी बनकर दोनों की खुशी दोगुनी हो गई तो काम भी डबल हो गया।बच्चे की छोटी-छोटी चीज़ों के लिए बृजभूषण बाबू को ही बाज़ार जाना पड़ता था।घर में नौकरानी होते हुए भी राजेश्वरी जी को बच्चे को संभालना और बहू की तीमारदारी करनी ही पड़ती थी।सोचा था,पोते के साथ खेलने का लेकिन स्नेहा बच्चे को नौकरानी के हवाले कर सास को किचन संभालने का आदेश दे देती थी।

           हिमांशु ने अपने बेटे की पहली सालगिरह की पार्टी एक बड़े होटल में रखी।दोनों खुश हुए कि मुंबई शहर देखेंगे।एक साल में तो बृजभूषण बाबू ने घर से बाज़ार तक ही यात्रा की थी, राजेश्वरी जी को तो वह भी नसीब नहीं हुआ था। पार्टी में जाने के लिए बेटे-बहू के साथ जब ये दोनों भी तैयार हुए तो बेटे ने यह कहकर ले जाने से मना कर दिया कि वहाँ के शोर-शराबे में आपलोगों का दम घुट जाएगा।बृजभूषण बाबू चाहकर भी नहीं कह पाए कि हमारा दम तो तुमलोगों के व्यवहार से ही घुटा जा रहा है।

            देखते-देखते तीन बरस गुज़र गया।पोता अंश अब बोलने लगा था।दादा की अंगुली पकड़ता और दादी-दादी कहकर पीछे दौड़ता तो पोते की बाल-सुलभ क्रियाओं में दोनों सबकुछ भूल जाते।




           अंश का स्कूल में दाखिला हो गया,हिमांशु-स्नेहा भी अपनी-अपनी ड्यूटी पर नियमवत जाने लगे।अब राजेश्वरी जी खाली रहने लगी।शाम का इंतज़ार करती कि अंश आये तो उसके साथ हँसे- बोले।छुट्टी का दिन था। वे  किचन में चाय बना रहीं थीं कि उन्हें हिंमाशु की आवाज़ सुनाई दी, ” अब मैं पापा से जाने के लिए कैसे कहूँ?” स्नेहा बोली, ” कहना तो पड़ेगा ही, हमने ज़िदगी भर का ठेका तो ले नहीं रखा है।अंश के लिये ही हमें उनका सपोर्ट चाहिए था,सो हो गया।अब उनका खर्च उठाना तो नामुमकिन है।अंश की स्कूल की फ़ीस…।” सुनकर राजेश्वरी जी का दिमाग चकराने लगा।जिसे वो अपना सहारा समझ रहीं थी वो तो उनका इस्तेमाल कर रहा था।हे भगवान! कैसा कलजुग है।

         अपने कमरे में आकर वो फूट-फूट कर रोने लगी।उनकी आँखों से बहते आँसुओं में बृजभूषण बाबू ने बेटे-बहू के स्वार्थ-पूर्ति की कहानी पढ़ ली थी।कुछ दिनों पहले ही उन्हें भनक लग चुकी थी लेकिन पत्नी के पुत्र-मोह के आगे वे चुप रह गये थें लेकिन अब तो कुछ बचा ही नहीं था।शिकायत करना उनका स्वभाव था नहीं, इसलिए अपनी सेहत ठीक न होने का बहाना कर बेटे से तत्काल टिकट करवाने को कहा और अगले ही दिन दोनों वापस अपने शहर आ गये।दोनों की वापसी ने कई रिश्तेदार के द्वार खोल दिये थें।कभी भाई का बेटा तो कभी ननद की बेटी उन्हें अपना सहारा बनाने पहुँच जाते लेकिन कहते हैं ना ,दूध का जला तो छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है।वे तो एक-दूसरे का साथ पाकर ही बहुत प्रसन्न थें।

        एक दिन बाज़ार से लौटते समय राजेश्वरी जी नज़र वृद्धाश्रम के बोर्ड पर पड़ी।पति से अंदर चलने की विनती की,बृजभूषण बाबू पत्नी के आग्रह को टाल न सके।वहाँ जाकर जब उन्होंने सबसे बातें की तो पता चला कि उन सभी के बेटे- बेटियाँ उन्हें अपने सहारे के रूप में इस्तेमाल करते हैं और फिर यहीं लाकर पटक देते हैं।उससे भी ज़्यादा हैरत वाली बात यह थी कि कुछ युवा दंपत्ति आकर अपने मन-पसंद वृद्ध अथवा वृद्धा को अनाथ बच्चे की तरह गोद ले लेते हैं और दो-चार साल में जब उनका साध्य पूरा हो जाता है तो बोझ समझकर वापस यहीं छोड़ जाते हैं।उनकी व्यथा सुनकर दोनों की आँखें भर आईं और तभी दोनों ने निश्चय किया कि सहारा देने की आड़ में बुजुर्गों की भावनाओं से खिलवाड़ अब नहीं होने देंगे।उस रात उन दोनों ने वहीं बिताई और सब कुछ तय कर लिया।




           आश्रम के पुरुषों और महिलाओं की रुचिओं की लिस्ट बनाई और उसे व्यवसाय का रूप देने का निश्चय दिया।बृजभूषण बाबू सरकारी मुलाज़िम थें,सरकारी दाँव-पेंच जानते थें,इसलिए कागज़ी कार्रवाई में उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई।महिलाओं ने अचार,पापड़,जैम-मुरब्बा,मसाले आदि बनाने में अपनी कौशलता दिखाई, गर्मी में बैग-थैलों की सिलाई और सर्दियों में बुनाई का काम होने लगा।पुरुषों में कुछ तो साइकिल रिपेयरिंग,बुक बाइडिंग वर्क करने लगे तो कुछ अखबारों से थैलियाँ बनाने में जुट गये।दिनभर काम,शाम में भजन-कीर्तन और फिर सुकून की नींद लेने में सबके दिन मजे से कटने लगे।जिन आँखों से जहाँ दिन-रात आँसू बहते थें, उन आँखों में अब नये सपने पलने लगे।बेटे-बेटियों के संग जाना अब उन्हें गँवारा न था।वे सभी अपनी आत्मनिर्भर ज़िंदगी से बहुत खुश थें।बृजभूषण बाबू ने भी अपना घर किराये पर देकर पत्नी संग यहीं रहने लगे और तभी से वृद्धाश्रम का नाम  ‘आनंद निवास ‘ रखा गया जहाँ खुशियों की अनवरत बारिश होती थी।

                   —विभा गुप्ता 

     #सहारा

       हम क्यों भूल जाते हैं कि वृद्धावस्था तो एक दिन सभी के जीवन में आना है।आज हम अपने बुज़ुर्गों का इस्तेमाल करेंगे तो कल हमें भी तो कोई इस्तेमाल करेगा।हम उन्हें सहारा नहीं दे सकते हैं तो उन्हें बेसहारा भी न करें।उन्हें खुश रखें, उनसे दुआएँ ले,खुशियाँ बाँटें और खुश रहें।

 

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