सफर में चलते हुए – संजय मृदुल

कहाँ जाना है? उसने पूछा।

बहुत दूर। मैंने कहा।

कितनी दूर?फिर प्रश्न आया।

जहां से वापसी सम्भव ना हो। जवाब दिया मैंने।

ऐसा क्यों? वो झुंझलाई।

बस यूं ही। मैं लापरवाही से बोला।

जाना क्यों है? ऐसे पूछा मानों कोई काम हो उसे भी।

बस यूं ही। मैं बोला।

जरूरी है क्या? अब उसकी आवाज में चिंता थी।

है तो! 

मैं चलूं साथ तुम्हारे? उसने मेरा हाथ कस कर पकड़ कर प्रश्न किया।

तुम नहीं चल पाओगी। मैंने चेहरा दूसरी ओर करते हुए कहा।

क्यों? प्यार करती हूँ तुमसे, तुम जहां मैं वहां। उसने जिद वाले स्वर में कहा।

प्यार करने वाले भी वहां तक साथ नहीं जाते। मैं निराशा भरी आवाज से बोला।



अच्छा! उसकी आवाज भर आईं।

प्यार का कॉन्सेप्ट बस इसी जहां में है। वहां सब की अपनी आइडेंटिटी है। सब अकेले हैं वहां।

अच्छा! जैसे तुम होकर आए हो वहां? उसने उलाहना दिया।

पढा था कहीं, वही दोहरा दिया मैंने।

जरूरी तो नहीं जो लिखा जाए वो सत्य हो। उसने सवाल किया।

हां, जरूरी तो नहीं। पर संग गए और तुम वहां लेडिस सेक्शन में चली गयी और मैं जेट्स में तो क्या फायदा।

और तुम गए और लेडिस सेक्शन में चले गए तो? उसका मुंह बन गया।

फिर क्या? मैं अपने मन से थोड़े ही जा रहा, भगवान जहां भेज दें उनकी मर्जी। मैंने और चिढ़ाया।

रहने दो! तुम सब लड़के एक से हो। पहले से बता दो की नहीं जाना वहां।

अच्छा। जैसे चॉइस पूछी जाएगी, फार्म भराया जाएगा मुझसे। 

चुपचाप यहीं रहो। कहीं और जाने का ख्वाब न देखो, समझे। अब उसने धमकाया।

मैं नहीं छोड़ने वाली तुम्हें। ना यहां ना वहां। अब की उसकी पकड़ मजबूत थी मेरी हथेलियों पर।

पर मुझे जाना है, मैंने जिद की। क्या है यहां जो रहा जाए। ना काम ना अच्छा भविष्य, ना ही तुम मेरे रहने वाली हो हमेशा ऐसे में।

क्यों नहीं रहूंगी। कुछ न कुछ कर लेंगे। काम की कमी तो नहीं। दोनों मिलकर सम्हाल लेंगे सब। उसने दिलासा दिया।

प्रेम से पेट नहीं भरता मिस। प्रेम से केवल ये बेवकूफ दिल बहलता है। मैंने तर्क किया। और क्या काम कर लेंगे। चाय भी तो नहीं बनाई जाती तुमसे।

ओहो। जैसे चाय बना लेना बड़ा काम है। मैं और बड़ा काम करूंगी तुम्हारे लिए, देखना। उसके चेहरे पर विश्वास की झलक थी।

बस मत जाओ कहीं। साथ रहो मेरे। वो गाना नहीं सुना क्या- जब कोई बात बिगड़ जाए वाला।

वो फ़िल्म थी असल जिंदगी में ऐसा कुछ नहीं होता। मैं झुंझलाया।

फ़िल्म भी असल जिंदगी से ही बनती है साहेब। अपन भी बनाएंगे देखना। वो मुस्कुराई।

अच्छा उठो अब। शाम ढलने वाली है, जहां जाना है कल चले जाना। अभी घर चलो। उसने जैसे रिक्वेस्ट किया।

अनमने मन से हाथ थाम उसका मैं उठा। डूबता हुआ सूरज जैसे कह रहा था। कहाँ जाओगे बच्चू? मैं भी रोज संकल्प कर के जाता हूँ कल नहीं आऊंगा। पर फिर रोज आ जाता हूं। तुम मुझसे तो मजबूत, दृढ़ निश्चयी तो नहीं हो। जाओ! घर जाओ।

#सहारा 

©संजय मृदुल

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