रिश्तों में आई दरार – कविता झा ‘अविका’: Moral stories in hindi

दोस्तों के बहकावे में आकर मैंने अपना वो पुस्तैनी मकान बेच दिया था। मां ने कई बार मुझसे कहा था कि…

” सुहास इसमें  तुम्हारी बहनों का भी हक बनता है, तुम्हें उनका हिस्सा दे देना चाहिए। बहनों को देने से बरक्कत ही होती है और पिता के बाद तुम्हीं पर पूरा दायित्व आ जाता है। अपनी जिम्मेदारियों से कभी मुंह मत फेरना।”

,,पर ना जाने उस समय कौन सी बुरी नियत ने  आ दबोचा था  मुझे कि मैंने साफ़ मना कर दिया। 

“पिता की संपत्ति पर सिर्फ बेटे का अधिकार होता है मां। आपको  नानाजी की संपत्ति में क्या मिला ?

क्यों मैं इस पुस्तैनी घर को दोनों बहनों को दूं। जैसे मामा जी ने आपको कुछ नहीं दिया मैं भी नहीं दूंगा उन दोनों को। वैसे भी बेटियों को जो देना था वो तो उनकी शादी में  दे ही दिया है हमने ।

फिर अब उनका इस पुस्तैनी घर पर कोई हक नहीं बनता। उनका ससुराल है ना, वो वहां अपना हक मांगे।

मैं चाहे इसमें रहूं अपने परिवार के साथ या इसे बेचूं। यह मेरी मर्जी, मैं इस घर का वारिस हूं।

मुझे आप मजबूर मत कीजिए उनको कुछ देने के लिए।”

मां ने भी कुछ समय बाद इस मामले में बोलना ही छोड़ दिया था। उसने  धीरे धीरे अपना सब कुछ मेरे नाम कर दिया। मैं उसके पास अपने बिजनेस का घाटा लेकर रोता और उससे कागजों में साइन करवा लेता। गांव की जमीन और हमारे खेत खलिहान, जो भी मां के नाम था, सब मैंने अपने नाम करवा लिया।

वैसे भी मेरी मां को बेटे के होते बेटी के ससुराल में जाकर रहना उन्हें कतई गवारा नहीं था। कुछ भी हो बेटा कैसे भी रखें रहूंगी उसी के पास। यह जिद्द पकड़ कर बैठी थी मेरी मां।

मेरी भी एक बेटी और दो बेटे हैं। पत्नी का देहांत दस साल पहले ही डेंगू के कारण हो गया था। मैं उसका समय पर इलाज नहीं करवा पाया। इसका अफसोस ताउम्र रहेगा मुझे। वो होती तो मेरा परिवार ऐसे ना बिखरता।

 पुस्तैनी घर बेचने से जो पैसे मिले मैंने उन पैसों में से आधे से ज्यादा को तो अपने दोनों बेटों को बिजनेस के लिए दे दिए और बाकी अपने भविष्य के लिए संभाल लिए। 

मेरी बेटी जो अपने पति के साथ किराए के मकान में रहती है, अपनी मां के जाने के बाद उसने ही मेरे घर को , मुझे और  अपनी दादी यानी मेरी मां को संभाला हुआ है। 

मेरी पसंद नापसंद का ध्यान रखते हुए हमेशा कुछ ना कुछ बनाकर ले आती है। जब भी मैं बीमार पड़ता हूं मेरी सेवा में जी जान लगा देती है।

,,पर जब उसके पति को यह पता चली कि मकान बेचने के बाद मिले पैसे मैंने सिर्फ अपने बेटों को दिए हैं।

 ना ही अपनी बहनों को दिया कुछ और ना ही बेटी को।

मेरे जमाई ने मेरी बेटी को मेरे पास आने से रोक लगा दी।

“जिन्हें सब कुछ दिया वो क्यों नहीं सेवा करते। देते समय बेटे अपने हैं और काम के समय बेटियों की याद आती है। खबरदार जो तुम अपने बाप के घर में कदम रखोगी। हां अगर दादी मां यहां आकर रहना चाहतीं हैं तो मैं मना नहीं करूंगा। पर उन्हें भी तो सोचना चाहिए था सबकुछ अपने बेटे के नाम करने से पहले क्योंकि जो उन्होंने किया वही तो उनका बेटा कर रहा है।”

मां अपने बिस्तर पर बैठी आंसू बहाती रहती है और मुझसे कहती हैं,

“संभल जा अब तो सुहास।

देख तेरा दोनों बेटा पैसा लेकर जो गया तो कभी हम दोनों मां बेटा को देखने तक नहीं आता। मेरी बेटियां तो दूर रहती है साल दो साल में एक बार आ जाया करती थी पर तेरी बेटी तो पास रहकर भी तुझसे दूर हो गई है।

क्या करेगा भविष्य के लिए पैसे जोड़कर जब वर्तमान ही हमारा अंधकारमय हो रहा है। नफरत के बीज उखाड़ ले मन से और बेटियों को उनका हिस्सा दे दे। “

मां की अंतिम इच्छा का मान रख रहा था आज मैं। मैंने अपनी दोनों बहनों से उनका अकाउंट नम्बर मांगा। जब अपनी बेटी जमाई ने मुंह मोड़ लिया मुझसे तब मुझे अपने दायित्व का अहसास हुआ। मैंने अपनी बेटी के लिए एक मकान खरीदा और उसके कागज लेकर उसके घर जा रहा था। बहनों के भी अकाउंट में पैसे भेज दिए थे।

इस बात का अहसास हो गया कि खाली हाथ आया हूं इस दुनिया में और खाली हाथ ही जाऊंगा। इस जीवन में सिर्फ आधिकार और हक ही नहीं होता बल्कि जिम्मेदारी, कर्तव्य और दायित्व भी निभाना पड़ता है। 

रिश्तों में आई दरार को भरने में तो समय लगेगा पर मैंने अपनी तरफ से पहल कर दी थी।

#दायित्व

कविता झा ‘अविका’

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