रक्षा – पुष्पा पाण्डेय

शालिनी को बचपन से सुरक्षा विभाग में नौकरी करने की प्रवल इच्छा  थी, लेकिन वह जानती थी कि उसके माता-पिता उधर नहीं जाने देंगे। अंततः उसका नामांकन मेडिकल काॅलेज में हुआ। मन-ही-मन वह हमेशा यही सोचती रही कि वह आर्मी के अस्पताल में नौकरी करेगी।

वो वक्त भी आया जब उसे निर्णय लेना था।  माँ-बाप की एकलौती बेटी थी शालिनी। माँ उसे दूर नहीं भेजना चाहती थी, लेकिन शालिनी की खुशी के लिए उसे अनुमति देनी पड़ी। अब उसकी शादी भी एक आर्मी डाॅक्टर से ही करनी थी। दो साल बाद शालिनी ने उस समस्या का समाधान भी निकाल दिया। उसी के अस्पताल का एक सर्जन ने उसके दिल में प्यार की घंटी बजा दी।उस घंटी की गूँज मंदिरों तक पहुँच गयी और बड़ों के आशिर्वाद के साथ धूमधाम से शादी हुई। सभी बहुत खुश थे। ————-

जो भी घायल सैनिक अस्पताल में आते थे शालिनी उन्हें एक डाॅक्टर के साथ-साथ माँ-बहन बनकर उनकी देखभाल करती थी। अचानक एक दिन खबर आई कि शालिनी की ननद किसी दुर्घटना की शिकार हो गयी। उस साल राखी पर अपने पति दिनेश को उदास देखकर उसके मन में एक विचार आया- 

क्यों न मैं इन सैनिकों के लिए राखी भेजूँ।ये अपने घर से इतनी दूर है ,कभी राखी समय पर आ पाती है कभी नहीं भी। अपने पति के समक्ष अपनी बात रखी।

“दिनेश! मैं इन सैनिकों के लिए राखी स्वयं अपने हाथों से बनाऊँगी जैसे बचपन में बनाती थी। मेरे भाई तो नहीं थे ,मैं कान्हा जी को राखी बान्धती थी और आज भी बांधती हूँ। क्यों न इन सैनिकों के लिए राखी बनाई जाए।”

“कितना राखी बना पाओगी तुम?”

“कम-से-कम इस छावनी में जितने सैनिक है उनके लिए तो बना ही लूँगी। “

“तुम भी क्या-क्या सोचती रहती हो।”

“जो देश की रक्षा करता है,उसकी रक्षा की दुआ तो हमें करनी ही चाहिए।”



और शुरू हो गया यह सिलसिला।—————–‐–

जिन्दगी के कई रंग होते है। कब किस रंग से जिन्दगी रू-ब-रू करा देगी, कोई नहीं जानता। एक सुबह ऐसी आई कि शालिनी की जिन्दगी में अंधेरा छा गया।

एक ऑपरेशन के दौरान ही दिनेश के दिल की धड़कन हमेशा के लिए रुक गयी। जो अब-तक न जाने कितनों की जान बचाई, लेकिन उसने अपनी जान बचाने का किसी को मौका ही नहीं दिया।

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शालिनी के माता-पिता भी अब शालिनी के साथ रहने लगे।

उसका एक साल का बच्चा अब नाना- नानी के संरक्षण में पलने लगा।

कहते हैं न कि वक्त सबसे बड़ा मरहम होता है।

 शालिनी अब पूरी तरह से अपने को सैनिकों की सेवा में झोंक दिया था। सेवा निवृत्त के बाद भी वह घायल सैनिकों की सेवा में लगी रहती थी। उनकी सेवा से उन्हें आत्मिक सुख मिलता था। उनका सोचना था कि हम सीमा पर दुश्मनों का सामना नहीं कर सकते हैं तो कम-से-कम इस भारती के सपूत की सेवा तो कर सकते हैं।———–

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अगले हफ्ते राखी का त्योहार था, राखियाँ बनाने में व्यस्त थी। अचानक रवि एयरफोर्स की बर्दी में सामने आकर खड़ा हो गया।

“माँ! आज भी तुम राखी बनाने में व्यस्त हो। अब तो आराम करो।।”

अतीत के गलियारे से बाहर निकली।

“अरे रवि,तुम? अरे बेटा, इन देश के प्रहरियों के लिए रक्षा- सूत्र तो बना ही सकती हूँ। जिसने देश की सुरक्षा की जिम्मेवारी ली है, उसके लिए इतना करना सौभाग्य की बात है।”

शालिनी अपने पायलट बेटे को कलेजे से लगाकर मानों दुआओं की कवच पहना रही हो। फिर तो रवि भी माँ की मदद करने लगा।

#रक्षा

 

स्वरचित एवं मौलिक रचना

पुष्पा पाण्डेय 

राँची,झारखंड। 

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