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आज दर्शना के बेटे मण्डल का पहला जन्मदिन था। चारो ओर पार्टी का शोर और गहमागहमी, स्वादिष्ट व्यंजन की खुशबू, स्त्री और पुरुषों के परफ्यूम की सुगन्ध से पूरा वातावरण सुवासित था। बेटे को गोद में लिये दर्शना का सुन्दर मुखड़ा मातृत्व की गरिमा से दमक रहा था।
उसके खुशी से दमकते चेहरे को देखकर चन्दन का मन पिछली यादों में लौट गया था। सुबह वह जब ऑफिस जा रहा था तभी दर्शना ने उससे कह दिया था कि आज वह शिवांश को लेकर बाजार जायेगी।
करीब तीन बजे दर्शना की सहेली रूपिका का उसके ऑफिस में फोन आया और उसने स्थान बताते हुये उसे जल्दी से आने को कहा। चन्दन को कुछ समझ में नहीं आया लेकिन फोन कट चुका था।
चन्दन जल्दी से बताये हुये पते पर पहुॅचा तो उसके होश उड़ गये। सड़क पर दर्शना बेहोश पड़ी थी, सामने रोडवेज बस से कुचली हुई एक बच्चे की लाश पड़ी थी, लोगों की मार से मरणासन्न एक युवक को मौके पर पहुॅची गिरफ्तार कर चुकी थी। बेकाबू भीड़ बस को आग लगाने जा रही थी। पुलिस ने बड़ी मुश्किल से भीड़ को काबू में किया। बीच सड़क पर बैठी रूपिका चीख चीखकर रो रही थी।
चन्दन को पता चला कि दर्शना पॉच वर्ष के शिवम का हाथ पकड़े बाजार की ओर जा रही थी तभी सामने से आती रूपिका दिखी। दोनों सहेलियों ने एक दूसरे को गले लगाया, दर्शना के एक हाथ में शिवम का हाथ था तो उसने एक हाथ से ही रूपिका को गले लगाया लेकिन इतनी सी देर में शिवम दर्शना के हाथ से अपना हाथ छुड़ाकर सड़क पर दौड़ गया। दर्शना उसे पकड़ने के लिये उसके पीछे दौड़ी लेकिन तभी सामने से आती रोडवेज बस की टक्कर लगी और पहिये के नीचे कुचला हुआ शिवम पड़ा था। उसकी सॉसें बन्द हो चुकी थीं।
चन्दन की कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? सामने उसके लाड़ले बेटा का कुचला हुआ शव पड़ा था। रूपिका रोये जा रही थी – ” मेरे कारण यह सब हुआ है। न मैं मिलती और न यह सब होता।”
किसी तरह सीने पर पत्थर रखकर उसने दर्शना को अस्पताल में भर्ती करवाया और शिवम का अंतिम संस्कार किया।
दर्शना को जब भी होश आता वह पलंग पर सिर पटकने लगती – ” मैंने तुम्हारे बच्चे को मार डाला है चंदन, तुम मुझे मार डालो। मैं उसे सम्हाल नहीं पाई।” और यह कहते कहते बेहोश हो जाती।
करीब तीन महीने बाद दर्शना की स्थिति में थोड़ा सुधार हुआ तो चंदन उससे लिपट कर रोने लगा – ” मेरे बारे में सोचो। मैं क्या करूॅ, मैंने अपने इन्हीं हाथों से अपने बेटे का अन्तिम संस्कार किया है और तुम्हारी यह दशा है। मेरे लिये अपने को सम्हालो, अगर तुम्हें कुछ हो गया तो मैं जीकर क्या करूॅगा? शिवम इतने दिनों के लिये ही हमारे पास आया था।”
दर्शना भी उससे लिपट कर रोने लगी – ” मुझे माफ कर दो चंदन। मैंने बिल्कुल भी लापरवाही नहीं की थी। रूपिका से मिलते समय भी मैं उसका हाथ पकड़े थी। मेरी कोई गलती नहीं है।”
उस दिन से दर्शना की तबियत धीरे धीरे सुधरने लगी। वह शिवम की याद में रोती तो थी लेकिन चंदन का ख्याल करके अपने को सम्हाल लेती थी। चंदन ने अपने ऑफिस से छुट्टी ले ली, जानता था कि उसके साथ रहने से दोनों एक दूसरे को सहारा दे लेंगे।
एक दिन दर्शना ने चंदन से पूॅछा – चंदन उस बस ड्राइवर का क्या हुआ था?”
” पता नहीं, उसे तो पुलिस पकड़ कर ले गई थी। शायद अब भी जेल में ही होगा। उस पर गैर-इरादतन हत्या का मुकदमा चलेगा।”
दर्शना सोच में पड़ गई, फिर उसने चंदन से कहा – ” उसकी कोई गलती नहीं थी अचानक हमारा बेटा ही बस के आगे आ गया था। तुम सच कहते हो कि उसका जाने का समय आ गया था तभी तो वह सेकेण्ड भर में मुझसे हाथ छुड़ाकर भागा और बस के नीचे आ गया। प्रारब्धवश मैं कुछ न कर पाई और मेरी ऑखों के सामने……।” वह दृश्य याद आते ही दोनों ही फूट फूटकर रोने लगे।
समय जैसे बीत नहीं रहा था बल्कि रुक गया था। विडम्बना यह थी कि शिवम के जन्म के समय ही डॉक्टर ने कह दिया था कि अब दर्शना दुबारा कभी मॉ नहीं बन पायेगी।
एक दिन दर्शना ने चंदन से कहा – ” चंदन, क्या हम उस ड्राइवर की जमानत करवा कर उसे जेल से छुड़वा सकते हैं?”
” क्या तुम सचमुच यही चाहती हो?” चंदन अचम्भे में था।
” हॉ चंदन। हमारे दुर्भाग्य से मेरा बच्चा तो चला ही गया है। अब यदि उसे फॉसी भी हो जाये तो हमारा बेटा वापस नहीं आयेगा। हमें आखिरी सांस तक पीड़ा के इस जहर को पीना होगा, हम तड़पते रहेंगे लेकिन हमारे कारण उसके परिवार की पीड़ा कम हो सके तो हो सकता है कि हमारा बच्चा जहॉ भी हो उसकी आत्मा को शान्ति मिले।” दर्शना की ऑखों से ऑसू बह रहे थे।
” ठीक है, मैं किसी वकील से बात करता हूॅ।”
जिस दिन ड्राइवर मोहन को जमानत मिली, दर्शना और चंदन स्वयं वहॉ उपस्थित थे। मोहन दर्शना और चंदन के पैरों पर झुक गया – ” मुझे आपके बच्चे के लिये बहुत दुख है लेकिन मेरी कोई गलती नहीं थी। बच्चा अचानक बस के सामने आ गया था और जब तक मैं कुछ समझ पाता, वह दुर्घटना हो गई लेकिन आपने जमानत पर मुझे छुड़ा कर मेरे बूढ़े माता-पिता, दो बच्चों, एक बहन पर बहुत उपकार किया है। मैं आपका यह अहसान कभी नहीं भूलूंगा।”
” अपने परिवार के पास जाओ मोहन। हमसे तुम्हारे लिये जो हो सकेगा करेंगे। हो सका तो यह केस भी खतम करवा देंगे।”
चंदन ने प्रयत्न करके मोहन के ऊपर लगा इल्जाम खतम करवा दिया। उन दोनों ने यह भी निर्णय कर लिया था कि रोडवेज बस के द्वारा क्षतिपूर्ति ( मुआवजा ) के रूप में उन्हें जो धनराशि मिलेगी उसे अनाथ बच्चों के लिये दान कर देंगे।
शिवम को गये करीब एक वर्ष से ऊपर हो चुका था। दिल पर पत्थर रखकर चंदन भी ऑफिस जाने लगा। मुश्किल से ही सही लेकिन दर्शना ने भी अपने को चंदन के लिये सम्हाल लिया।
चंदन ऑफिस से आकर दर्शना के साथ शाम की चाय पी रहा था कि दरवाजे की घंटी बजी। दर्शना उठकर दरवाजा खोलने गई तो सामने मोहन को देखकर चौंक गई – ” मोहन तुम!”
उसकी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मोहन के साथ एक युवती भी थी जिसकी गोद में एक बच्चा था। देर लगती देखकर चंदन भी उठकर आ गया। सामने मोहन को देखकर पहले तो हतप्रभ रह गया लेकिन जल्दी ही अपने को सम्हाल कर दर्शना से कहा – ” इन लोगों को अन्दर तो आने दो।”
जब सभी लोग अन्दर आ गये तो दर्शना उनके लिये पानी लेने रसोई में चली गई। बैठक में पूरी तरह सन्नाटा था। दर्शना भी पानी की ट्रे मेज पर रखकर चंदन के बगल में आकर बैठ गई।
आखिर चंदन ही बोला – ” कहो मोहन, कैसे आना हुआ?”
मोहन ने अपनी पत्नी रुचि की ओर देखा। रुचि धीरे से उठी और उसने बच्चे को दर्शना की गोद में रख दिया –
” आपकी अमानत वापस करने आई हूॅ दीदी। यह लीजिये सम्हालिये अपने बेटे जो कुछ दिन के लिये आपके पास से भटककर मेरे पास आ गया था।”
चंदन और दर्शना के मुॅह से बड़ी मुश्किल से आवाज निकली – ” तुम लोग यह क्या कह रहे हो? यह तो तुम्हारा बच्चा है।”
मोहन ने दोनों हाथ जोड़ते हुये कहा – ” मेरे कारण आपका बेटा चला गया। आपका शिवम तो वापस नहीं ला सकता लेकिन अगर आप इसे स्वीकार कर लेंगी तो मैं समझूॅगा कि मेरा प्रायश्चित पूरा हो गया है। हमारे दो बच्चे हैं, इसे आपके लिये ही जन्म दिया है हमने। अब यह आपका बेटा है, हम दोनों का इससे कोई लेना देना नहीं है।”
” लेकिन……।”
” आपने हमारे परिवार को बरबाद होने से बचाया है। आपने भले ही मोहन को माफ कर दिया हो लेकिन मोहन अपने आप को माफ नहीं कर पा रहा है। जब तक आपकी गोद सूनी रहेगी, यह ऐसे ही पश्चाताप की आग में जलता रहेगा।” रुचि ने ऑखों में ऑसू भरकर कहा।
दर्शना अपलक बच्चे को देखती रही, उसे अपने सीने में कुछ रेंगता हुआ अनुभव हुआ। उसने बच्चे को सीने से लगा लिया। खुशी के कारण उसकी ऑखें बरसने लगीं –
” चंदन देखो, मेरा बच्चा, मेरा बेटा।”
चंदन उठकर दर्शना के पास आ गया – ” हॉ दर्शन, हमारा शिवम वापस आ गया है। अब अपना घर सूना नहीं रहेगा।”
” नहीं चंदन, यह शिवम नहीं है, इसका हम कोई दूसरा अच्छा सा नाम रखेंगे, जिससे अब यह हमें छोड़कर कभी न जाये।”
दोनों बच्चे में इतना व्यस्त हो गये कि उन्हें पता ही नहीं चला कि मोहन और रुचि कब उठकर चले गये थे। जब थोड़ी देर बाद उन्हें याद आया तो उन्हें आभास हुआ कि दोनों जा चुके हैं।
” उन दोनों ने हमें इतना अनमोल उपहार दिया है और हमने उन्हें धन्यवाद तक नहीं दिया। कल हम लोग उनके घर चलेंगे धन्यवाद देने।”
दूसरे दिन सुबह जब वह दूध वाले से दूध लेने के लिये उठी तो उसे दरवाजे के पास एक छोटी सी चिट पड़ी मिली – ” हम लोग यह शहर छोड़कर जा रहे हैं ताकि बच्चे को कभी पता न चल सके कि उसके माता-पिता कौन हैं? अब वह केवल आपका बेटा है।”
दर्शना और चंदन अपने बेटे के रूप में इस विचित्र प्रायश्चित को प्यार से देख रहे थे।
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर